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इज्जत का अर्थ यौन शुचिता ही क्यों?

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निर्मला भुराड़िया
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एक पत्रिका के संपादन के दौरान छोटे कस्बे की एक किशोरी का खत हाथ में आया। उक्त पत्रिका में एक मनोविश्लेषक महोदय पाठकों की मानसिक समस्याओं का समाधान एक स्तंभ के जरिए करते हैं। किशोरी का खत इसी हेतु था। उसने लिखा था, 'मेरे साथ जबर्दस्ती हुई थी। तब से लेकर आज तक मैं हर पल तनाव में रहती हूँ। मैं बहुत हीन भावना महसूस करती हूँ क्योंकि मैं किसी से आँख मिलाने के लायक नहीं रही...।"

पता नहीं मनोचिकित्सक महोदय उसे क्या उत्तर देंगे। शायद कोई समझाइश या दिलासा दें । इस किस्म की कि तुम्हारी इसमें कोई गलती नहीं, भूल जाओ वगैरह। मगर क्या स्त्री के लिए 'घोर यौन शुचिता' का सामाजिक आग्रह उसे यह भूलने देगा? समाज शिकारी को नहीं, शिकार को घूरे पर फेंकेगा। त्याज्य मानेगा। मान लो कि लड़की ने किसी से यह बात शेयर न की हो, तब भी समाज तो मानसिक रूप से उसके पीछे लगा ही है।

स्त्रियों के दिमाग में कूट-कूटकर यह बात भरी हुई है कि जबर्दस्ती वाले यौन समागम से भी वे अपवित्र हो जाती हैं। दूषित हो जाती हैं! शायद इसी मानसिकता के चलते बलात्कार के पर्यायवाची शब्दों में इज्जत, अस्मत जैसे शब्द आते हैं। बलात्कार होने पर इज्जत लुट गई, अस्मत लुट गई, सब कुछ चला गया, किसी को मुँह दिखाने काबिल नहीं रही, आँख मिलाने लायक नहीं रही, मुँह पर कालिख पुत गई वगैरह।

समझ नहीं आता कि जिसने कुछ गलत नहीं किया उसकी 'इज्जत' क्यों गई? उसे शर्म क्यों आई? ठीक है, एक हादसा था। जैसे दुनिया में अन्य हादसे होते हैं और समय के साथ चोट भरती है वैसी ही यह बात होनी चाहिए। मगर नहीं होती। सिर्फ और सिर्फ औरत के लिए ही यौन शुचिता के आग्रह के चलते हम घटना को कलंक बनाकर शिकार के माथे पर सदा-सर्वदा के लिए थोप देते हैं।

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स्त्री का तथाकथित दंभ तोड़ने के लिए भी बलात्कार किया जाता है। प्रताड़ना करने हेतु आज भी गाँवों में स्त्री को निर्वस्त्र करके घुमाया जाता है। क्षेत्रीय अखबारों में इस तरह की आँचलिक खबरें अक्सर आती हैं। क्योंकि कहीं न कहीं हम स्त्री के अस्तित्व को देह के इर्द-गिर्द ही देखते हैं। गाँवों में महिला सरपंचों तक के साथ ऐसी घटनाएँ हुई हैं, जहाँ पुरुषों की अकड़ के आगे स्त्री को पदावनत करने का और कोई उपाय नजर नहीं आया तो यह किया।

इसी तरह सती की अवधारणा है। जिसका ताल्लुक स्त्री की यौनिक पवित्रता से है। एक पुरुष के सिवा किसी की न होना तो उसकी एक अभिव्यक्ति भर है। यह ठीक है कि इस अभिव्यक्ति के लिए अब स्त्रियाँ पति की चिता के साथ नहीं जलाई जातीं (कभी-कभी जला भी दी जाती हैं) परंतु भारतीय समाज में सती की अवधारणा अब भी बेहद महिमा मंडित है।

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जगह-जगह 'सती माता' के मंदिर हैं। शहरों में रानी सती जैसे नामों की कॉलोनियाँ, मोहल्ले हैं। सती सेल्स जैसी बिजनेस फर्म्स भी काफी हैं। सती माता के श्रद्धालुओं और भक्तों की काफी तादाद है। इस तरह की कथा-वार्ताओं पर औरतें अब भी मत्था टेकती हैं जिनमें यह जिक्र आता है कि फलाँ औरत इतनी बड़ी सती थी कि अपने बीमार पति को कंधे पर बैठाकर वेश्या के यहाँ ले गई। स्त्री और पुरुष के लिए दोहरे मापदंडों की पराकाष्ठा इन उदाहरणों में झलक जाती है।

औरत के चरित्र को दैहिकता से जोड़े रखने की सामाजिक वजहें बहुत सीधी-साधी नहीं, काफी गहरी और जटिल रही हैं। उनको समझे बगैर इस बात को नहीं समझा जा सकता कि क्यों दैहिक आचरण को ही हमने स्त्री के चरित्र का सबसे बड़ा और कभी-कभी तो एकमात्र पैमाना मान लिया है।

दरअसल दुनियाभर में औरतों की वर्जिनिटी और यौन शुचिता एक खब्त रही है। स्त्री की यौनाकांक्षाओं को कुचलने के भी हर संस्कृति के अपने-अपने बहाने रहे हैं। किसी ने वंश की शुद्धता का बहाना बनाया तो किसी ने व्यभिचार रोकने का, पर फल वही निकला स्त्री की अग्निपरीक्षा! अलग-अलग तरीकों से।

स्त्री पर दबाव अपने 'स्वामी' के लिए पवित्र बने रहने का। योरपीय सामंतों में, जो कि बहुधा युवा स्त्री के बूढ़े पति होते थे, चेस्टिटी बेल्ट चलते थे। यानी लिटरली स्त्री को मेटल अंडरगारमेंट पहनाकर पुरुष चाबी अपने साथ ले जाएँ। वक्त के साथ पश्चिमी संस्कृति में यह बदला, लेकिन शायद लोगों को ध्यान हो लेडी डायना को प्रिंस चार्ल्स से विवाह के पूर्व वर्जिनिटी टेस्ट करवाना पड़ा था।

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फिर भी हम यह मान सकते हैं कि मोटे तौर पर पश्चिमी संस्कृति में यह सामंतवाद जारी नहीं है। किंतु दुनिया के कुछ अन्य भागों में यौन शुचिता के कड़े आग्रहों के चलते इस सदी में भी स्त्री का जो दमन होता है वह सचमुच हतप्रभ करने वाला है।

मिस्र के समाज में विवाह की रात तक लड़की की यौन झिल्ली का साबुत होना एक अतिआवश्यक गुण माना जाता है। या यूँ कहें कि ऐसा होना जरूरी ही माना जाता है। यह झिल्ली लड़की के लिए चरित्र का प्रतीक व लड़की के भाई-बाप इत्यादि मर्दों के लिए घराने की इज्जत का प्रतीक मानी जाती है ताकि यह प्रमाण रहे कि स्त्री को विवाह पूर्व किसी पुरुष ने छुआ नहीं है। यौन शुचिता के इस सामाजिक हठ ने स्त्री पर वहाँ कई तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं जिसमें साइकल चलाना, खेलना-कूदना, नाचना-उछलना भी मना है ताकि झिल्ली साबुत रहे और भूले से भी यह गुमान न हो कि लड़की खराब चरित्र की है।

मिस्र के कुछ गाँवों में सुहागरात को दूल्हा और दुल्हन के कुछ रिश्तेदार विवाहित जोड़े के कमरे के बाहर बैठते हैं ताकि सुबह देखकर प्रमाणित करें कि चद्दर पर रक्त का निशान है अतः दुल्हन वर्जिन थी, उसकी झिल्ली अब तक साबुत थी। यदि चादर पर रक्त न मिला, जिसका अर्थ यह मान लिया जाता है कि लड़की कुमारी नहीं है, तो लड़की का कत्ल लड़की के रिश्तेदारों द्वारा ही किया जा सकता है 'ऑनर किलिंग' नाम देकर।

यह न कपोल-कल्पना है, न पिछली सदी की बातें बल्कि ताजा सर्वेक्षणों की रिपोर्ट्स हैं। 'कैरो' में एक संस्था के रिसर्च के अनुसार हर साल मिस्र में कम से कम एक हजार स्त्रियाँ ऑनर किलिंग के नाम पर मार दी जाती है। इस दुष्टाग्रह ने अरब समाज में कुछ वैज्ञानिक कुप्रथाओं को जन्म दिया है(जैसे हमारे यहाँ साइंटिफिक मैथड से कन्या भ्रूण हत्या होती है)। कई अरब लड़कियों के विवाह पूर्व यौन झिल्ली जोड़ने के सर्जिकल ऑपरेशन करवाए जाते हैं। हालाँकि ऐसे ऑपरेशन से पुन: कुँवारी बनने पर वहाँ कानूनन रोक है परंतु पिछले दरवाजे से प्रेक्टिस जोरों से जारी है। ऐसे ऑपरेशन से औरत के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को धक्का पहुँचता है। मगर पिता, भाई, चाचा वगैरह भी यही चाहते हैं क्योंकि बेटी का कुँवारापन इज्जत का सवाल है।

दक्षिण अफ्रीका के कुछ समाजों में भी जो कि कबीले भी नहीं है, अच्छे-खासे कस्बाई और शहरी समाज हैं, समय-समय पर लड़कियों का वर्जिनिटी टेस्ट करवाया जाता है। यहाँ दुल्हा, दुल्हन के परिवार को धन(लोबोला) देता है। दुल्हन के वर्जिन होने पर ही अच्छी रकम मिलती है। साउथ अफ्रीका की संसद में 2005 में ऐसी वर्जिनिट‍ी टेस्ट पर रोक लगाने के प्रस्ताव पर विचार किया गया था पररंतु प्रस्ताव गिर गया।

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कुछ अफ्रीकी देशों में सामाजिक-धार्मिक देशों के तहत स्त्री योनि का अंग-भंग किया जाता है। हालाँकि जिनकी ये रस्म है वे इसे अंग-भंग मानने को तैयार नहीं है। वे इसे महिला खतना कहते हैं। परंतु यह पुरुष-खतना से बिलकुल अलग बात है। स्त्री में अंग -भंग के पश्चात यौन उत्तेजना, यौन सुख प्राप्ति की क्षमता समाप्त हो जाती है। इन समाजों में खुलेआम यह कहा जाता है कि चूँकि इससे स्त्री की यौन-आकांक्षा पर प्रतिबंध लग जाता है अत: समाज में व्यभिचार रोकने में मदद मिलती है।

यह बहाना कितना कूढ़ मगज, पक्षपाती, और दोहरे मापदंड वाला है, यह इससे पता चलता है कि अफ्रीकी समाज यौन बीमारियों और एड्स का घर है। बावजूद इसके कि सेनेगल से लेकर सोमालिया और तंजानिया तक अधिकांश देशों में 90 प्रतिशत लड़कियों का पारंपरिक खतना होता है। नए जमाने के खिलाफ अपनी तथाकथित सांस्कृतिक परंपरा की रक्षा(?) में लगे लोगों को इस बारे में समझाना मुश्किल है।

वे इसे अपनी संस्कृति पर बाहरी सभ्यताओं का प्रहार मानते हैं। कुप्रथाओं के समर्थन में भी समाजों के अपने तर्क होते हैं। यह हम भारतीय समाज में भी देखते हैं। मगर इतना तय है कि ये सब बातें स्त्री को सिर्फ उपभोग की वस्तु मानती है इसलिए उसकी उपस्थिति को देह और उसके चरित्र को यौन शुचिता से ऊपर नहीं मानतीं।

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