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इराक-अमेरिका युद्ध, क्या खोया-पाया?

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शरद सिंगी

अब से ठीक दस वर्ष पहले नौ अप्रैल 2003 को इराक में सद्दाम हुसैन के क्रूर शासन का अंत हुआ था तथा इसके साथ ही इराक पर अमेरिकी आक्रमण के दस वर्ष भी पूरे हुए। समय है एक आकलन का कि इस युद्ध से अमेरिका, इराक और संसार ने क्या खोया, क्या पाया?

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कहानी शुरू होती है इराकी राजनैतिक पटल पर सद्दाम के उदय के साथ। इन्होंने इराक में बाथ पार्टी के प्रमुख नेता के रूप में अपना राजनैतिक जीवन शुरू किया। 1968 में एक क्रांति के जरिए अपनी पार्टी को सत्तासीन किया। जनरल अहमद के कार्यकाल में बतौर उपराष्ट्रपति सद्दाम ने सुरक्षा घेरा मजबूत किया और कई आंदोलनों को हिंसा से कुचला। सन 1979 में राष्ट्रपति बने और 2003 के अमेरिकी आक्रमण तक राष्ट्रपति बने रहे।

ईरानी क्रांति से उपजे भय और इराकी शियाओं को ईरानी समर्थन के डर से 1980 में ईरान के साथ युद्ध छेड़ दिया। आठ वर्षों तक चले इस बीसवीं सदी के सबसे लंबे और परंपरागत युद्ध को फारस खाड़ी का युद्ध भी कहा जाता है। शुरू में इराक ने बढ़त बनाई किंतु बाद में ईरान ने न केवल अपनी पूरी जमीन वापस ली, बल्कि इराकी जमीन पर भी कब्ज़ा किया।

अनुमान के अनुसार इस युद्ध में पांच लाख लोगों की जानें गईं। अंत में संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से एक संधि हुई और ईरान ने कब्ज़ा की हुई जमीन छोड़ी। इस युद्ध में कुवैत और अमेरिका का समर्थन इराक को प्राप्त था। युद्ध के लिए कुवैत ने इराक को विपुल धनराशि उपलब्ध कराई।

युद्ध समाप्त होने के बाद इराक की अर्थव्यवस्था कर्ज में डूब गई। इराक ने कुवैत को कर्ज माफ़ करने के लिए कहा जिस पर सहमति न हो सकी और इराक ने कुवैत पर हमला कर दिया। दो दिन के भीतर इराक ने पूरे कुवैत पर कब्ज़ा कर लिया और आनन-फानन में कुवैत को इराक का उन्नीसवां प्रांत घोषित कर दिया। यह आक्रमण अंतरराष्ट्रीय जगत को नागवार गुजरा और संयुक्त राष्ट्र संघ से स्वीकृति लेकर अमेरिका के नेतृत्व में 34 देशों की सेना ने इराक को कुवैत से खदेड़ा। यहीं से नींव पड़ी अमेरिका के इराक आक्रमण की।

सभ्यता के विकास में इन युद्धों का भी उतना ही योगदान है, जितना अमन का। ये ही युद्ध कई अविष्कारों के कारक बने हैं। स्वयं सद्दाम के शब्दों में- आसान रास्तों की ओर आकर्षित न हों क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए पथ वही हैं जहां पैरों से खून निकलता है
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सद्दाम अपनी जिद और महत्वाकांक्षा में सैन्य शक्ति का विस्तार करना चाहता था। उसने परमाणु तकनीक हासिल करने की भरपूर कोशिश की। अमेरिका के विरुद्ध उग्रवादियों को समर्थन दिया। अमेरिका ने सद्दाम के परमाणु और रासायनिक हथियारों के खिलाफ़ दुनिया के देशों को विश्वास में लेकर इराक पर चढ़ाई कर दी।एक लाख से ज्यादा इराकी मारे गए। अरबों डॉलर खर्च हुए। इराक में अमेरिका का एक सैनिक पर सालाना खर्चा 2 करोड़ रुपए था। इसी से अनुमान लगा सकते हैं अमेरिकी खर्चे का।

यह खर्च और इतनी जानों का जाना शायद वाजिब होता यदि इराक की स्थिति पहले से बेहतर होती। यह बात और है कि पश्चिमी देशों द्वारा लगाया परमाणु और रासायनिक हथियारों का आरोप बेबुनियाद निकला ठीक उसी तरह जैसे मीडिया ने सद्दाम के बॉडी डबल की सनसनी दुनिया में फैलाई थी।

इराक सद्दाम के वहशी चंगुल से निकल तो गया किंतु धार्मिक और जातीय कट्टरवाद में धंस गया जिस पर सद्दाम ने कड़ा अंकुश लगा रखा था। स्थिति अराजकता की है और तंत्र पूरा भ्रष्ट हो चुका है। अमेरिका अपनी जनता और अंतरराष्ट्रीय दबावों में आकर इराक छोड़कर जा चुका है और आम जनता हिंसा में वैसे ही पिस रही है जैसे पहले पिस रही थी।

युद्ध की विभीषिकाओं से कौन परिचित नहीं? संसार का इतिहास युद्ध व तानाशाही की भयानक और दर्दनाक कहानियों से भरा पढ़ा है, किंतु क्या कभी मनुष्य ने इन कहानियों से सबक लिया है? दुनिया तो वर्चस्व, अहं, सत्ता, शक्ति और धन की लड़ाई का खुला मैदान है। जिनके पास नहीं है उन्हें इनकी चाह है और जिनके पास है उन्हें अधिक की चाह। तो क्या यह मानें कि यदि मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं ख़त्म हो जाएं तो धरती स्वर्ग हो जाएगी? ऐसा भी नहीं हैं। यदि आदमी की महत्वाकांक्षाएं न हों तो संसार स्थिर और प्रगति शून्य हो जाएगी।

मानव सभ्यता के विकास में इन युद्धों का भी उतना ही योगदान है, जितना अमन का। ये ही युद्ध कई अविष्कारों के कारक बने हैं। स्वयं सद्दाम के शब्दों में 'आसान रास्तों की ओर आकर्षित न हों क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए पथ वही हैं जहां पैरों से खून निकलता है।' कामना है कि कंटकाकीर्ण मार्ग पर तो चलें किन्तु उसका अंतिम लक्ष्य शांति, सहजीवन और विकास हो।

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