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एक निर्भीक पत्रकार का जाना

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हमें फॉलो करें प्रभाष जोशी
-वेदप्रताप वैदिक

प्रभाष जोशी के निधन से हिन्दी पत्रकारिता का एक सबसे सशक्त स्तंभ ढह गया है। यह कहना बिलकुल भी पारंपरिक नहीं है कि प्रभाष जोशी का निधन हिन्दी पत्रकारिता की अपूरणीय क्षति है। प्रभाष जोशी जिस साँचे में ढले थे, वह आजकल की धंधे वाली पत्रकारिता के साँचे से बिलकुल अलग था। एक अर्थ में वे पत्रकार नहीं, समाजसेवक थे।

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उन्होंने पत्रकारिता को अपनी समाजसेवा का साधन बनाया। प्रभाष जोशी और मेरा पचास वर्ष का संबंध रहा है। क्रिश्चियन कॉलेज इंदौर में हम लोग सहपाठी थे। धीरे-धीरे हमारी मित्रता गहरी होती गई। उन्होंने पढ़ते हुए ही बाकायदा पत्रकारिता भी शुरू कर दी। उन्हीं दिनों वे विनोबाजी के प्रभाव से महात्मा गाँधी के रचनात्मक कार्यक्रमों से जुड़ गए।

इंदौर में जब हम लोग साथ-साथ पढ़ते थे तो मैं छात्र आंदोलन चलाता था। वे विनोबाजी की गतिविधियों पर शाम को एक पर्चा निकालते थे। यह पर्चा कुछ दिनों तक नियमित प्रकाशित होता रहा। उन दिनों विनोबाजी इंदौर आए हुए थे। दरअसल, गाँधी और विनोबाजी के कामों में उनकी संलग्नता थी।

विनोबाजी के प्रभाव से ही उन्होंने गाँवों में स्वच्छता अभियान चलाया। सिनेमा के अश्लील पोस्टरों के खिलाफ एक मुहिम छेड़ी, उसमें हम सब नौजवान भाग लेते, विनोबाजी के विचार और उनकी गतिविधियों का प्रचार करते थे। प्रभाषजी में समाजसेवा का यह भाव अंत तक बना रहा।

वे अंत तक यात्राएँ करते रहे, भाषण देते रहे और समाज सेवा के काम में जुटे रहे। विनोबाजी के विचारों से प्रेरित और प्रभावित समाजसेवा का ही काम था कि प्रभाषजी ने विधिवत पत्रकारिता भी शुरू कर दी। बाकायदा उन्होंने नईदुनिया में आरंभ किया। राजेंद्र माथुर भी नईदुनिया से जुड़े थे।

हालाँकि वे तब गुजराती कॉलेज में व्याख्याता भी थे। मैं भी इन दोनों से बराबर संपर्क में रहता, बाद में नईदुनिया का दफ्तर कड़ावघाट से छावनी में आ गया। मुझे कॉलेज में पढ़ाई और सामाजिक गतिविधियों से जो समय मिलता, उसमें नईदुनिया में जाकर बैठता था। वहाँ प्रभाषजी और राजेंद्र माथुर के साथ विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा होती।

चर्चा में कई बार असहमतियाँ भी होतीं, लेकिन आत्मीयता दिनों-दिन गहरी होती गई। इतनी गहरी कि हम दोनों में कभी कोई अंतराल महसूस नहीं हुआ। बातचीत करते हुए सराफे, छावनी और बोझाँकेट बाजार में निकल जाते, वहाँ दुकानों पर खड़े होकर खाया-पिया करते थे।

प्रभाषजी खाने-पीने के बड़े शौकीन थे। पढ़ाई के दिनों में वे कॉलेज से अक्सर मेरे घर आ जाया करते। उनके आने की सूचना पाकर माताजी कहतीं कि प्रभाष आ रहा है, उसके लिए बाफले बनाना। घर आने के बाद वे भी खाना बनाने में जुट जाते थे। यह जिक्र इसलिए कि प्रभाषजी में मालवी फक्कड़पन भरा हुआ था। इसलिए उन्होंने पढ़ाई-लिखाई में भी खास रुचि नहीं ली और औपचारिक शिक्षा में आगे नहीं गए।

कॉलेज के दिनों में मैंने उनसे कई बार आग्रह किया और ऐसी व्यवस्था भी बनाई कि उपस्थिति कम होने के बावजूद वे परीक्षा में बैठ सकें, लेकिन इस मस्ती और फक्कड़पन के चलते उन्होंने कभी परवाह नहीं की। उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी, लेकिन उनमें तीव्र प्रतिभा थी। वे बहुत अच्छे लेख लिखने लगे थे।

नईदुनिया में उनके जिम्मे खेल-कूद की रिपोर्टिंग, समाचार लेखन और टिप्पणियों का काम आया। वे खेल-कूद की घटनाओं पर सधी हुई टिप्पणियाँ लिखते। इन टिप्पणियों और अन्य विषयों पर लेखन से ही उनकी प्रतिभा का परिचय मिलता है।

औपचारिक पढ़ाई नहीं होने के बावजूद उन्होंने इतनी योग्यता अर्जित कर ली और आत्मविश्वास उभरा कि पीएच-डी और डॉक्टरेट कर लेने वाले विद्वान भी उनके मुकाबले टिक नहीं पाते थे। वे अपनी जानकारी और पैठ के बल पर बड़े-बड़े प्रोफेसरों के भी छक्के छुड़ा सकते थे। यह स्थिति उन्होंने दिन-रात पत्रकारिता में खटने और जीवन से सीखते हुए अर्जित की थी।

प्रभाषजी खाने-पीने के बड़े शौकीन थे। पढ़ाई के दिनों में वे कॉलेज से अक्सर मेरे घर आ जाया करते। उनके आने की सूचना पाकर माताजी कहतीं कि प्रभाष आ रहा है, उसके लिए बाफले बनाना। घर आने के बाद वे भी खाना बनाने में जुट जाते थे।
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दिल्ली आने के बाद प्रभाषजी ने गाँधी निधि को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। यहाँ वे सर्वोदयी पत्र-पत्रिकाओं पर संपादन करते। इसके बाद इंडियन एक्सप्रेस समूह से जुड़े और "प्रजा नीति" तथा "आसपास" साप्ताहिक पत्रों के लिए काम करने लगे। प्रजा नीति के संपादक प्रफुल्लचंद्र ओझा "मुक्त" थेहालाँकि पत्र का वास्तविक काम प्रभाषजी ही देखते थे।

बाद में जब उन्होंने जनसत्ता अखबार शुरू किया, इस पत्र से पुराने प्रतिष्ठित अखबारों की प्रसार संख्या पर कोई खास असर नहीं पड़ा, लेकिन जो तेवर, साफगोई और निर्भीकता की मिसाल उन्होंने दी, उसने हिन्दी पत्रकारिता में नई लीक गाढ़ दी। अखबार प्रसार संख्या में कभी अव्वल नहीं रहा, लेकिन प्रभाव में वह हमेशा अव्वल रहा। इसका श्रेय अकेले प्रभाष जोशी को जाता है। उनमें स्वभाव से जो फक्कड़पन था, वह उनके लेखन में भी झलकता था। उन दिनों पंजाब में फैल रहे आतंकवाद के खिलाफ उन्होंने जिस तेजस्विता का परिचय दिया, उसे मैं आज भी प्रणाम करता हूँ।

कलम को तलवार की तरह चलाना और अपने सिर को तलवार की नोक पर रखकर लिखना यदि किसी से सीखना हो तो प्रभाष जोशी से सीखें। उनकी जान को हमेशा खतरा बना रहता था, लेकिन उनकी कलम कभी नहीं काँपी।

जो सही लगे वह लिखना और बिना किसी संकोच के लिखना उनकी विशेषता थी। यह विशेषता बिरलों में ही मिलती है। प्रभाष भाई के फक्कड़पन का हाल यह था कि सारा देश जब रूपकँवर के सती होने पर हाय-हाय कर रहा था तो वे इसके समर्थन में लिख रहे थे।

प्रवाह के विरुद्ध तैरने की क्षमता हर किसी में नहीं होती। जहाँ तक मेरी जानकारी है-प्रभाष जोशी के कार्यकाल में जितने मुकदमे जनसत्ता की खबरों को लेकर चले, उतने किसी अखबार की खबरों पर नहीं चले होंगे।

प्रतिद्वंद्वी संपादक इसे गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता का सबूत कहते थे, लेकिन मैं इसे साहसिक पत्रकारिता मानता हूँ। उन्होंने गाँवों और कस्बों में भी अपने पत्रकारों को निर्भीक होकर लिखने की छूट दी थी। मिट्टी के पुतलों में उन्होंने ऐसा इस्पात भर दिया था कि वे लोहे के सैनिकों की तरह लड़ते थे और वे उन पत्रकारों से बेखौफ होकर खबरें भेजने के लिए कहते थे।

संपादक के तौर पर जो आजादी प्रभाषजी को मिली, वह दिल्ली में शायद ही किसी अन्य संपादक को मिली। अपनी संपादकीय आजादी का उन्होंने जबर्दस्त उपयोग किया
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रभाषजी के पुराने साथियों में रहे हैं।) नईदुनिय

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