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ओशो की धोखेबाज प्रेमिका 'शीला' का काला सच

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'कम्यून (रजनीशपुरम) को नष्ट कर देने से पहले उनको कुछ भी न रोक पाता। सर्वोपरि रूप से, वे ओशो रजनीश को नष्ट करना चाहते थे- यह गैर-ईसाई, गैर-यहूदी, गैर-रैंचर, जो रॉल्स रॉयस में घूमता था और अजीब से कपड़े पहनता था। उन्होंने उसे मृत देखना पसंद किया होता। और वे उसमें सफल भी हो जाते यदि समय रहते उसके शिष्यगण उसे छुड़ा लाने के लिए बीच में न कूद पड़ते।'

यदि हम तथ्‍यों की मानें तो ओशो रजनीश को जहर देने में जब शीला असफल रही तो उसने अमेरिकी सरकार के साथ मिलकर ओशो के खिलाफ षड्‍यंत्र रचा और फिर अमेरिकी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जहर देकर मरने के लिए छोड़ दिया।

ओशो की प्रेमिकाएं तो बहुत थीं लेकिन कथित रूप से 'विश्वासघात' सिर्फ एक ही ने किया और उसका नाम है शीला, जो पहले कभी मां आनंद शीला थी। उसका असली नाम है- शीला अंबालाल पटेल। वर्ष 1949 में बड़ौदा के एक गुजराती परिवार में जन्मीं शीला को सिर्फ पैसों से प्यार है। वह अपने एक साक्षात्कार में कहती है- 'मैं आज भी ओशो की प्रेमिका हूं।' सही है शीलाजी ओशो की प्रेमिका बने रहने में ही लाभ है।

बहुत सालों बाद शीला ने अपनी किताब को हिंदी में लिखने का इसलिए मन बनाया, क्योंकि हिंदी का बाजार भी अब समृद्ध हो चला है और ओशो के संन्यासियों की संख्या भी पहले से 10 गुना ज्यादा हो गई है। यदि 20 प्रतिशत संन्यासी ही यह किताब खरीद लेते हैं तो काम बन जाएगा। आखिर शीला उसी समाज का हिस्सा है, जो धन के अलावा कुछ सोचता ही नहीं।

यह आधुनिक युग है। यहां प्रेम का अर्थ और महत्व समझना मुश्किल है। शीला ने अपनी किताब में खुद लिखा है कि उनकी (शीला की) दिलचस्पी आध्यात्मिक ज्ञान में नहीं थी, वह तो रजनीश से प्यार करने लगी थी। शीला कहती है कि वह आज भी रजनीश की प्रेमिका है।

रजनीश उन लोगों से कतई मतलब नहीं रखते थे जिनकी रुचि ध्यान और अध्यात्म में नहीं होती थी। वे बहुत जल्द ही ऐसे लोगों को चलता कर देते थे। दूसरी बात यह कि आप आज भी उन्हें अपना प्रेमी क्यों मानती हैं? जब आपको रजनीश ढोंगी, सेक्सी, नशेड़ी और गैर-आध्यात्मिक व्यक्ति लगते हैं तो उनकी प्रेमिका कहलाने में आपको तो शर्म महसूस होना चाहिए?

अगले पन्ने पर पढ़ें, शीला के रजनीश पर आरोप...


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ओशो रजनीश की पूर्व निजी सचिव शीला ने एक संस्मरण में कहा है कि ओशो रजनीश अपने नियम और कायदों के समाज का निर्माण करना चाहते थे इसलिए उन्होंने हर कानून, नीति और वैधता को भुला दिया।

ओशो रजनीश की पूर्व सचिव आनंद शीला ने अपने संस्मरण ‘डोंट किल हिम : द स्टोरी ऑफ माई लाइफ विद भगवान रजनीश’ में अपने उस समय के अनुभव, अवलोकन और भावनाएं व्यक्त की हैं, जब वे ओशो रजनीश के साथ काम कर रही थीं। 1981 में ओशो रजनीश की सहायक के रूप में नियुक्त हुईं शीला ने 1985 में इस पद को छोड़ दिया था। इसके बाद वे समुदाय के साथी सदस्यों के साथ यूरोप रवाना हो गईं।

कथित तौर पर ओशो शीला के इस ‘विश्वासघात’ पर बहुत नाराज हुए थे और उन्होंने उस पर जैव-आतंकी हमले की योजना बनाने, हत्या का षड्‍यंत्र रचने और 55 करोड़ डॉलर लेकर भागने का आरोप लगाया था। शीला इनमें से कुछ आरोपों की दोषी निकलीं और उन्होंने 39 माह जेल में बिताए।

शीला कहती हैं कि ओशो बहुत करिश्माई, प्रेरक, शक्तिशाली, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व वाले थे और साथ ही वे बेतुके ढंग से चालाक, प्रतिशोधी, खुद के बारे में सोचने वाले और हानि पहुंचाने वाले भी थे। उन्होंने हर समुदाय, समाज और देश के सभी नियमों, नैतिकताओं, नीतियों और वैधताओं का उल्लंघन किया, क्योंकि वे अपने नजरिए वाले ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें उनके अपने नियम और कायदे हों।

ओशो का पतन : फिंगरप्रिंट द्वारा प्रकाशित अपनी किताब में शीला लिखती हैं कि मैं इस बात की गवाह बनी कि इस खेल में बंबई और पूना में वे किस तरह शीर्ष पर थे, किस तरह उन्होंने अपना समुदाय खड़ा किया, किस तरह वे लोगों के साथ काम करते थे और किस तरह विवाद पैदा करके उन्होंने मीडिया को बरगलाया।

ओशो के पतन के बारे में शीला लिखती हैं कि उनका पतन ओरेगन में दर्दनिवारक दवाओं और अन्य नशीले पदार्थों पर उनकी निर्भरता से शुरू हुआ। जिसके फलस्वरूप गिरावट आनी शुरू हो गई और फिर समुदाय का विघटन हो गया। वर्ष 1949 में बड़ौदा के एक गुजराती परिवार में जन्मीं शीला अंबालाल पटेल कहती हैं कि वे ओशो से बहुत प्रेम करती थीं और उन पर आंख मूंदकर भरोसा करती थीं।

ओशो को अपनों ने ही लूट लिया : शीला को लगता है कि ओशो को उनके अपने ही लोगों ने लूट लिया। वे कहती हैं- ‘मेरे दिल में उनकी शिक्षाओं के लिए बहुत आदर भाव है और आज भी मैं उनकी भक्त हूं।' आज उनकी संन्यासी शिष्याएं भी रजनीशपुरम के बारे में बात करने में डर और शर्म महसूस करती हैं। मेरी राय में लोगों ने उनके जीवन के बहुत महत्वपूर्ण समय के बारे में बात न करके उन्हें कमजोर कर दिया।

ओशो की मौत के बारे में शीला लिखती हैं कि उन्हें आज भी इस बात पर यकीन नहीं होता कि ओशो की मौत प्राकृतिक थी। ओशो के दिल ने 1989 में 58 साल की उम्र में काम करना बंद कर दिया था।

शीला दावा करती हैं, ‘आज भी मैं यह नहीं मानती कि वह एक प्राकृतिक मौत थी। अगर वह प्राकृतिक होती तो मैं उसे जरूर महसूस करती।’ किताब के शुरुआती अध्यायों में उस समय का जिक्र है, जब लेखिका रजनीशपुरम छोड़कर गईं और उन्हें कानूनी कार्रवाइयों का सामना करना पड़ा। किताब के दूसरे भाग में शीला शुरुआत से कहानी बयां करती हैं, जब 1972 में 20 साल की उम्र में वे ओशो के अभियान में शामिल हुई थीं।

लेकिन शीला ने जो कहा वह सब कुछ झूठ था?, पढ़ें अगले पन्ने पर...


यह वह वक्त था जबकि दुनियाभर के धार्मिक संगठनों के नेता और अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार ओशो के धर्म और राजनीति विरोधी विचार के कारण उनकी जान के दुश्मन बन बैठे थे। एफबीआई और सीआईए ओशो के साम्राज्य को ध्वस्त करने के लिए योजना बनाने लगे थे।

वे लगातार इस मामले में जर्मन और ब्रिटेन की सरकार के संपर्क के अलावा ओशो के ओरेगान कम्यून के संन्यासियों के संपर्क में थे। उन्होंने बहुत से ऐसे लोगों को भेजा, जो ओशो के संन्यासी बनकर कम्यून की गतिविधियों की जानकारी अमेरिकी खुफिया विभाग को देते थे। आखिकार उन्होंने 'शीला' सहित कम्यून के और भी लोगों को अपना एजेंट बना ही लिया।

विद्या और शीला के माध्यम से अमेरिकी सरकार ने जहां ओशो को मारने की साजिश रची वहीं उन्होंने उनके वैभवपूर्ण साम्राज्य को ध्वस्त करने और दुनियाभर में उनकी छवि बिगाड़ने के लिए लाखों-करोड़ों खर्च किए।

इस बारे में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ऑफ विक्टोरिया (ऑस्ट्रेलिया), सुप्रीम कोर्ट ऑफ ओरेगान, दि यूएस फेडरल डिस्ट्रिक्ट ऑफ ओरेगान तथा नाइन्थ सर्किट यूएस कोर्ट ऑफ अपील्स में वकालत करने के लिए मान्यता प्राप्त अटर्नी और अमेरिकन बार एसोसिएशन तथा एसोसिएशन ऑफ ट्रायल लायर्स की सदस्या 'सू एपलटन' ने एक विश्वप्रसिद्ध किताब लिखी है जिसमें इस बारे में खुलासा किया गया है।

उन्होंने अपनी किताब में अमेरिकी सरकार और उसकी खुफिया एजेंसी के वे सारे दस्तावेज उपलब्ध कराए हैं जिसमें रोनाल्ड रीगन सरकार की साजिश और शीला के अमेरिकी एजेंट होने का खुलासा होता है।

सू एपलटन अनुसार शीला ने खुद के चरित्र को सरकारी अधिकारियों के विरोधी के रूप में चित्रित किया ताकि कोई उन पर संदेह न कर सके। लेकिन अमेरिकी फ्रीडम ऑफ इन्‍फर्मेशन एक्ट से प्राप्त जानकारी के आधार पर पता चला कि मां योग विद्या और अन्य फेडरल सरकार को सूचनाएं देती रही थीं। यह अमेरिकी खुफिया विभाग में एक एजेंट के रूप में कोड थी यानी ओशो कम्यून में शीला ही नहीं और भी कई संन्यासी थे, जो अमेरिकी एजेंट थे?

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मां आनंद शीला 1981 से 1985 तक ओशो रजनीश की सचिव थी। इन चार साल में उसने ओशो को कई बार मारने का प्रयास किया। यही नहीं, ओशो तक पहुंच बनाने और कम्यून की सर्वेसर्वा बनने के लिए उसने ओशो संन्यासियों को धीमा जहर देकर मारने का भी प्रयास किया।

सत्ता और ध्यान मिलने की अपने लालच को छोड़कर शीला का एक अन्य प्रयोजन भी था ओशो रजनीश का खात्मा करने के लिए सरकार की मदद करना। लेकिन रजनीश के खात्मे तक भी शीला के कम्यून की सर्वेसर्वा बने रहने की योजना सफल नहीं हो पाई।

सू एपलटन लिखती है, 'जहर दिए जाने के क्रियाकलाप रजनीशपुरम् में बढ़ गए थे। देवराज और विवेक दोनों को ही शीला के घर पर चाय अथवा कॉफी में जहर दिया गया और देवराज को एक बार कम्यून के रेस्तरां में भोजन करते समय जहर दिया गया।'

सू एपलटन के अनुसार शीला एक संदिग्ध महिला थी। वह बेहद ही महत्वाकांक्षी लेकिन कुंठाग्रस्त महिला होने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ थी। कुछ वर्ष आर्ट स्कूल में और होटल में वेट्रेस का कार्य करने के बाद वह ओशो की संन्यासी बन गई। पूना में पहले वह लक्ष्मी की सहायक के रूप में नियुक्त हुई। लक्ष्मी की दूसरी सहायक अरूप से वह जलन रखती थी। लक्ष्मी ओशो की सचिव थी और शीला लक्ष्मी की जगह लेने के लिए कम्यून का माहौल खराब करने लगी थी।

शीला लोगों को प्रोत्साहित करती थी कि कोई भी मसला लक्ष्मी के पास न जाकर पहले मेरे पास आए। शीला ने लक्ष्मी और अरूप को हाशिए पर धकेलकर खुद की शक्ति बढ़ाना शुरू कर दी थी। जब शीला ने सचिव का पद हथिया लिया तो उसकी महत्वाकांक्षा को पर लग गए थे।

सू एपलटन के अनुसार शीला की युवावस्था में उसके साथ बलात्कार हुआ था इसीलिए वह पुरुषों के साथ कभी भी अपने संबंध सहज नहीं बना पाई। यही कारण था कि उसने अपने पति जे. को छोड़ दिया था और अपने आसपास समलैंगिक पुरुषों की भीड़ बढ़ा ली थी। शीला की हरकतों के कारण वह कम्यून में चर्चा के केंद्र में आ गई थी।

शीला विश्वप्रसिद्ध बनना चाहती थी और कम्यून की सारी संपत्ति पर अपना अधिकार रखना चाहती थी। इसके लिए वह जो भी कर सकती थी उसने किया।

...क्यों ओशो को मारना चाहती थी शीला? पढ़ें अगले पन्ने पर...


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मां आनंद शीला 1981 में रजनीश की सचिव बन गई। इसके बाद उसकी महत्वाकांक्षा को पर लग गए थे। सत्ता और ध्यान मिलने की अपनी लिप्सा को छोड़कर शीला का एक अन्य प्रयोजन भी था ओशो रजनीश का खात्मा करने के लिए सरकार की मदद करना यानी एक तीर से दो निशाने साधना। पहला सरकार का कार्य भी पूरा हो जाए और दूसरा 'रजनीशिज्म' (रजनीश धर्म) को स्थापित कर खुद उसकी सर्वेसर्वा बनना, यानी पोप बनना। वह और उसके गुट के लोग उसे पहली 'रजनीशी' कहने लगे थे।

उसने कम्यून में अपने खास लोगों का एक गुट बना लिया था, जो ओशो के विश्वासपात्रों को बेदखल करने के लिए सक्रिय रहता था, यानी शीला के काल में ओशो कम्यून राजनीति का अखाड़ा बन गया था।

सू एपलटन अनुसार शीला स्वयं की उस व्यक्ति के रूप में कल्पना करती थी, जो 'रजनीशिज्म' (रजनीश धर्म) को दुनिया में फैलाने के लिए खुद को धर्मगुरु मान बैठी थी। शीला के अनुसार 'द बुक ऑफ रजनीशिज्म' नामक किताब का प्रकाशित होना जरूरी था। इसी बुक को बाइबिल के समान मान्यता दिलाने की पूरी योजना थी जिसमें रजनीशिज्म धर्म की 'परंपराओं' और 'प्रथाओं' को निर्धारित करने और सभी को इसकी प्रति अपने साथ रखने की हिदायत दी गई थी। जैसे अदालत में किसी बयान अथवा गवाही वगैरह में केवल इसी पुस्तक पर शपथ लें। रजनीशिज्म बनाने के पीछे और भी कई कारण थे।

ओशो जब मौन में चले गए तब शीला को मनमानी करने की छूट मिल गई। ओशो से संपर्क करने के लिए शीला ही माध्यम होती थी। शीला ने इस बात का भरपूर फायदा उठाया और ओशो कम्यून की सभी तरह की गतिविधियों को खुद ही संचालित करना शुरू कर दिया। वह बहुत से लोगों की बातें ओशो तक नहीं पहुंचाती थीं और ओशो का संदेश भी नहीं। वह चाहती थी कि ओशो सदा मौन में रहें या वह मोक्ष (मौत) को प्राप्त हो जाएं।

सू एपलटन अपनी किताब में लिखती हैं कि ओशो रजनीश की एकमात्र प्रवक्ता के रूप में उसने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली। धन, सत्ता और ख्याति- इन सबकी प्राप्ति संभव हुई, क्योंकि ओशो रजनीश मौन व एकांतवास में थे और उनसे संपर्क के लिए शीला एकमात्र कड़ी थी।

लेकिन एकमात्र लक्ष्य जो प्राप्त करने में शीला असमर्थ थी और वह था ओशो रजनीश के जीतेजी 'चर्च ऑफ रजनीशिज्म' (रजनीश धर्म) को स्थापित करना और उसकी प्रमुख बनकर कम्यून को अपने कब्जे में रखना। 'चर्च' (धर्म) का निर्माण पूरी तरह से उसका अपना कृत्य था। लेकिन वह जानती थी कि संगठित धर्म के खिलाफ ओशो की उपस्थिति उनके विचारों को कभी भी एक नए धर्म का रूप नहीं लेने देगी।

अगले पन्ने पर शीला की गिरफ्तारी और...


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1984 में ओशो रजनीश ने घोषणा की कि वे फिर से सार्वजनिक रूप से बोलना शुरू करेंगे। शीला के लिए यह घोषणा खुद की दुनिया ढहने जैसी थी। उसकी सभी योजनाएं ध्वस्त होने वाली थीं। अब उसके लिए जल्द से जल्द ऐसा कुछ करना था जिससे कि ओशो रजनीश मारे जाएं, गिरफ्तार हो जाएं या फिर से मौन में चले जाएं। शीला की सक्रियता पहले की अपेक्षा और बढ़ गई।

उपलब्ध प्रमाण अनुसार उसी समय शीला ने सरकारी अधिकारियों के साथ संपर्क करना और ओशो रजनीश की स्वास्थ्य-रक्षा के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार दो लोगों की हत्या कर ओशो रजनीश को जहर दिए जाने के लिए रास्ता साफ करने का षड्‍यंत्र शुरू कर दिया था। जब ओशो को जहर देने में शीला असफल रही तब अगली प्रक्रिया के तहत सरकार ने ओशो रजनीश की गिरफ्तारी और कारावास में डालकर जहर देने का प्लान तैयार किया और वे इसमें सफल रहे।

1985 में ओशो के विश्वासपात्र और कम्यून के संन्यासी शीला के ‘विश्वासघात’ से बहुत नाराज हुए थे और उन्होंने रजनीश पर जैव-आतंकी हमले की योजना बनाने, हत्या का षड्‍यंत्र रचने और 55 करोड़ डॉलर लेकर भागने का आरोप लगाया और वे मामले को कोर्ट में ले गए।

शीला इनमें से कुछ आरोपों की दोषी निकलीं और उन्होंने 39 माह जेल में बिताए। 1981 में ओशो रजनीश की सहायक के रूप में नियुक्त हुईं शीला ने 1985 में इस पद को छोड़ दिया था। इसके बाद वह अपने परिवार के साथ यूरोप रवाना हो गईं।

शीला के साथ ही शांतिभद्रा और पूजा पर भी मुकदमा चलाया गया लेकिन सरकारी मदद के तहत सभी को अल्प सजा मिली और साथ में यह सरकारी धमकी भी कि यदि किसी बात का खुलासा होता है तो फिर से मुकदमा चलाया जा सकता है, यानी अमेरिकी सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करने का उनको यह इनाम मिला था कि वह देश से बाहर रहकर शांतिपूर्वक जीएं। जेल में ही ‍शीला कहती थी कि एक दिन वे फिर से विश्व प्रसिद्ध बन जाएंगे।

सू एपलटन अनुसार बाद में 'शीला, शांतिभद्रा और पूजा को उन पर मुकदमा चलाए जाने के लिए जर्मन से अमेरिका वापस लाया गया और शीला और उसके दल पर ठेठ आपराधिक मुकदमा चलाए जाने और बचाव किए जाने का पूरा नाटक किया गया' ...ताकि यह लग सके की अमेरिकी सरकार इस मामले में ईमानदार है।

अगले पन्ने पर, इस तरह जहर देकर मार दिया ओशो रजनीश को...


ओशो संन्यासियों को हरदम यही चिंता सताती रहती थी कि कहीं ओशो पर कोई प्राणघातक हमला नहीं कर दें, क्योंकि उन पर दो बार हमले हो चुके थे। लेकिन आखिरकार ओशो रजनीश को अमेरिका ने नाटकीय ढंग से गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। जेल में ही उन्हें थैलियम जहर का एक इंजेक्शन लगाकर छोड़ दिया। इस इंजेक्शन से ओशो तीन दिन तक कोमा में रहे।

तीन दिन बाद उन्हें अमेरिका से देश निकाला दे दिया। देश निकाले के बाद वे बहुत से देश में भटकते रहे, लेकिन किसी भी देश ने उन्हें शरण नहीं दी। खुद भारत ने भी अमेरिकी विरोध के चलते हाथ खड़े कर दिए थे।

यह बात सार्वजनिक थी कि उन्हें अस्थमा था तब भी जहर दिए जाने के पहले तक 53 साल की उम्र में ओशो रजनीश के पास लंबी दूर तक दौड़ने और तैरने का दम-खम था। इससे पहले 20 वर्षों से भी अधिक समय तक वे रोज प्रवचन देते थे। ‍‍1981 के बाद फिर वे साढ़े 3 वर्षों तक मौन में रहे, तब भी वे तेज गति से कार चलाते थे।

28 अक्टूबर 1985 को ओशो रजनीश अमेरिकी फेडरल मार्शलों द्वारा शारलट, नॉर्थ केरोलाइन में गिरफ्तार किए गए। अटर्नी जनरल सू एपलटन अनुसार गिरफ्‍तारी का कोई वारंट नहीं था फिर भी उनको जबरन हाथ-पैरों में हथकड़ियां डालकर जेल में डाल दिया गया। अमेरिकी इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ था। उन्हें किसी खूंखार अपराधियों की तरह गले, हाथ और पैरों में हथकड़ियां पहनाकर ले जाया गया जबकि उन पर आव्रजन कानून के उल्लंघन के मामूली आरोप लगाए गए थे।

अमेरिकी सरकार ने एक जज से कहा कि उन्हें तब तक सरकारी हिरासत में रखा जाए जब तक ‍कि वे पोर्टलैंड न पहुंच जाए। पोर्टलैंड में उन्हें 'अप्रवास नियमोल्लंघन' का सामना करना था। अमेरिकी सरकार की योजना के तहत सरकारी वकील ने यह भ्रम फैलाने का कार्य किया कि उनके संन्यासी उन्हें जहर देने का प्रयास कर रहे हैं या हो सकता है कि वे खुद आत्महत्या कर लें।'

सात दिनों तक शारलट में मार्शलों की हिरासत में रहने के बाद रजनीश को सोमवार, 4 नवंबर 1985 को पोर्टलैंड की संघीय जेल में ले जाने के लिए विमान में मार्शलों के साथ बिठाया गया, जहां वे गुरुवार 7 नवंबर को शाम को पहुंचे जबकि शारलट से पोर्टलैंड की दूरी केवल 5 घंटे की है। सवाल उठता है कि 3 दिन बीच में वह विमान कहां रहा?

सू एपलटन के अनुसार ओशो कहते हैं कि इन तीन दिनों का मुझे कुछ पता नहीं। तीन दिन रजनीश को पूरी दुनिया से अमेरिकी सरकार ने लापता कर दिया था। अमेरिकी सरकार ने ओशो के वकीलों को यह बताने से इंकार कर दिया कि वे कहां थे।

बाद में यह पता चला कि पहली रात यानी नवंबर को ओशो को ओक्लोहॉमा की काउंटी जेल में रखा गया, लेकिन जेल के शेरिफ ने इससे इंकार किया। लेकिन जेल के रिकॉर्ड अनुसार रजनीशपुरम का एक 'डेविड वाशिंगटन' नाम का व्यक्ति 4 नवंबर को वहां रहा था, यानी रजनीश को नाम बदलकर वहां रखा गया था!

मार्शलों ने रजनीश के साथ उसके बाद की दो रातें ओक्लोहॉमा सिटी के बाहर फेडरल पेनिटेंशियरी में बिताईं। नवंबर 7 की सुबह उनके वकील ने उन्हें खोज निकाला। यदि उनके वकील उन्हें नहीं ढूंढ निकालते तो संभवत: उन्हें और कुछ दिन ओक्लोहॉमा में इसी तरह कोमा में रखा जाता।

सू एपलटन के अनुसार 7 नवंबर के बाद पूरे दिन ओशो रजनीश को मितली आने, चक्कर आने, सिरदर्द रहने और भोजन के प्रति अरुचि की शिकायत रही। उनका वजन गिरफ्तारी से पहले 150 पौंड था, वह गिरकर 140 पौंड रह गया था। वे पोर्टलैंड की जेल से 8 नवंबर को रिहा किए गए।

अगले पूरे दिन वे उनके निजी चिकित्सक की देखभाल में रहे और उनकी अच्छे से जांच की गई जिसमें उन्हें इन तीन दिनों में थैलियम नामक धीमा जहर दिए जाने की पुष्टि हुई। यह जहर ऐसा था जिससे व्यक्ति की 6 माह में मृत्यु हो जाती है। इस जहर के असर के रूप में धीरे-धीरे व्यक्ति का शारीरिक क्षरण होता जाता है।

अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार द्वारा उन्हें जहर दिए जाने की घटना के बाद ही ओशो रजनीश के तेजी से बाल झड़ने लगे। आंखें कमजोर हो गईं। अस्थमा के अटैक बढ़ गए। रीढ़ की उनकी पुरानी तकलीफ फिर से उभर गई।

लगातार सेहत में गिरावट के बावजूद थैलियम से उपजी बीमारियों को उन्होंने सुंदर ढंग से वश में कर रखा था और बहुत तेजी से वे अपने बचे हुए कार्यों को निपटाने लगे थे। अंतत: वे जहर से हार गए और 19 जनवरी 1990 में उन्होंने देह छोड़ दी। यदि ओशो को जहर नहीं दिया जाता तो वे आज भी आपके और हमारे बीच होते और तब देश का वर्तमान कुछ और होता।

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