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खेल, खिलाड़ी और कुछ सवाल

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नवीन रांगिया

क्रिकेट अनिश्चितओं से भरा एक खेल, जिसने भारतीयों के मानस पटल पर ऐसी छाप छोड़ी है कि अब यह खेल न रहकर इससे अधिक कुछ और ही बन गया है, जिसे फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। क्रिकेट की अपार लोकप्रियता को देखते हुए इसे केवल खेल न कहकर धर्म कहा जाता था, लेकिन कभी कभी लगता है कि यह धर्म से भी पहले है।

क्रिकेट अब क्रिकेट नहीं भारत-पाकिस्‍तान के बीच शांति प्रक्रिया का साधन, देश का स्‍वाभिमान, धर्म और युवाओं को उर्जा प्रदान करने वाला एक असरदार टॉनिक है।

मुझे तो यह कभी-कभी मेरी रगों में महसूस होता है। क्रिकेट देखते हुए और खासतौर से भारत-पाकिस्‍तान का मुकाबला देखते हुए अपने शरीर में हजारों, लाखों नहीं बल्कि असंख्‍य रक्‍तकण तेजगत‍ि से एक साथ हजारों रन लेते महसूस होते है।

य‍ह सचमुच एक अनिश्चित खेल ही नहीं, एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अनिश्चित है,जिसका परिणाम अनिश्चित है। हम कब हँसेंगे, कब डरेंगे और कब हमारे अंदर एक अदभूत उर्जा का संचार होगा, यह खिलाड़ी के प्रदर्शन पर ही न‍िर्भर करता है।

महान सचिन जब मैदान पर गेंद को क्षितिज की ओर उछालते हैं तो हम अपनी भूख और प्‍यास भी भुल जाते हैं, जो हमारी निश्चित आवश्‍यकता है। लेकिन वही सचिन जब जरूरत के समय सात रन पर आउट होकर भारत को पाँच विकेट से हरा देने में मदद करते हैं तो यह महान खिलाड़ी देश की गलियों और नुक्‍कड़ों में एक जलता हुआ पुतला बन जाता है। देश का युवा अपने आदर्श को आग लगाकर उसे धूँए में तब्दील करने में जरा भी देर नहीं करता।

दरअसल देश के क्रिकेट प्रेमियों के लिए किसी दुसरे देश की टीम को हराना मायने नहीं रखता, बल्कि हमारा स्‍वाभिमान बनाए रखना हमारे लिए मायने रखता है।

हमने सम्‍मानजनक हार को हमेशा स्वीकार किया है। ऐसा नहीं है कि हम क्रिकेट में अंधे हो गए हैं, जैसा कि कुछ लोग अक्‍सर कहते हैं। हम क्रिकेट खेल खेलना, देखना और इसकी समीक्षा करना जानते हैं।

पान और चाय की दुकानों पर सुबह का अखबार पढ़ते हुए हमारे कस्‍बाई क्रिकेट‍ समीक्षक जब अगले-प‍िछले मुकाबलों का विश्‍लेषण करते हैं तो भारतीय चयन समिति के सारे दावे खारिज हो जाते हैं। क्‍योंकि वे सचमुच जानते हैं कि कि‍से ओपनिंग करना चाहिए, किसे तीसरे नंबर पर जाना चाह‍िए और किससे गेंद फिकवाना है।

देश के क्रिकेट चयनकर्ताओं को चाह‍िए कि वे देश के कस्‍बों और नुक्‍कड़ों में घुमें और खोज निकाले निडर और आत्‍मविश्‍वासी खिलाड़ि‍यों को, मगर ऐसा नहीं हो सकता, क्‍योंकि हम ह‍िस्‍सा हैं उन सौ करोड़ लोंगो का और दोषी हैं, जो धोनी को उनके बालों को और अध‍िक लम्‍बा करने का प्रोत्‍साहन देते हैं। सचिन के अमीरी के किस्‍सों से अखबारों को काला करके इस महान ख‍िलाड़ी की आँखें और दिमाग फिरवा देते हैं।

ओलिम्‍पिक से अभिनव बिंद्रा के स्‍वर्णपदक जीतने पर देशभर में उत्‍सव मनाया जाता है, पर कम ही लोगों को पता होता है कि बिंद्रा किस वर्ग में कितने मीटर की राइफल निशानेबाजी में जीते हैं।

भारत में इन खेलों के प्रति लोगों का उत्‍साह और दीवानगी तो देखते ही बनती है पर विडम्‍बना तो य‍ह है कि भारत के खेलप्रेमी कुश्‍ती, निशानेबाजी और बॉक्सिंग को तुंरत भूलकर अगले दिन होने वाले भारत-श्रीलंका के टेस्‍ट मैच पर टिक जाते हैं। यही तो क्रिकेट का जादू है, जो दिल, दिमाग और सिर चढ़कर बोलता है और बाकी खेलों पर भारी पड़ता है। हम खेल प्रेमी है, जुनूनी है।

महेश भट्ट जैसे फिल्‍म निर्देशक विजेंदर और सानिया मिर्जा जैसे खिलाड़ि‍यों को खिलाड़ी न रहने देकर उन्‍हें हीरो-हिरोइन बनाने के प्रस्ताव देते हैं।

सवाल य‍ह नहीं कि विजेंदर और सानिया अच्‍छा अभिनय कर सकेंगे या नहीं, सवाल तो यह है कि क्‍या वे अच्‍छे खिलाड़ी बचे रह पाएँगे? या कि भट्ट साहब यह उम्‍मीद करते हैं कि विजेंदर आमिर खान से बेहतर अभिनय कर सकते हैं या सानिया मिर्जा मल्‍लि‍का शेरावत से भी ज्‍यादा अंगप्रदर्शन कर पाएँगी? माना कि ऐसा हो भी गया तो क्‍या हम ऐसे खेलप्रेमी हैं, जो विजेंदर को बॉक्सिंग रिंग में देखने के बजाए किसी अभिनेत्री की बाहों में झूलते हुए देखना चाहते हैं या सानिया मिर्जा को किसी आयटम नंबर पर थिरकते?

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