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गाँधी का हिन्द स्वराज

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हमें फॉलो करें महात्मा गांधी
- मधुसूदन आनन्
इस वर्ष महात्मा गाँधी की सुप्रसिद्ध किताब "हिन्द स्वराज" के एक सौ साल पूरे हो रहे हैं। गाँधीजी 1909 में लंदन गए थे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के सिलसिले में वे कई अनुभवों से गुजरे थे। लंदन में अनेक भारतीय नौजवानों से उनकी मुलाकात हुई थी, जो भारत की आजादी का सपना देख रहे थे। वहाँ से वापस दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए उन्होंने छोटी-सी किताब लिखी जो गुजराती भाषा में थी।

इस किताब को जब गोपालकृष्ण गोखले ने पढ़ा तो इसके मजमून को उन्होंने कच्चा कहा और आशा प्रकट की कि भारत लौटने पर गाँधीजी इसे खुद रद्द कर देंगे। गाँधीजी गोपालकृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। इसलिए स्वाभाविक है कि गाँधीजी ने उनकी प्रतिक्रिया पर विचार किया होगा लेकिन उन्होंने इस पुस्तक में एकाध सुधार ही किया और कहा कि अगर मैं इस किताब को फिर लिखता तो उसकी भाषा में जरूर सुधार करता लेकिन मेरे मूलभूत विचार वही रहते।

तो क्या हैं गाँधीजी के मूलभूत विचार? काका कालेलकर ने लिखा है : "गाँधीजी का कहना था कि भारत से
सत्याग्रह के पहले कदम में ही गाँधीजी को सफलता मिली। ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्द स्वराज का उनका अँगरेजी में छपा अनुवाद जब्त कर लिया। गाँधीजी विचलित नहीं हुए और उन्होंने जब इसे दुबारा प्रकाशित कराया तब बंबई सरकार कोई विरोध नहीं कर सकी
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केवल अँगरेजों को और उनके राज्य को हटाने से अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज नहीं मिलेगा। हम अँगरेजों को हटा दें और उन्हीं की सभ्यता का और उन्हीं के आदर्श को स्वीकार करें तो हमारा उद्धार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। भारत के लिखे-पढ़े चंद लोग पश्चिम के मोह में फँस गए हैं। जो लोग पश्चिम के असर तले नहीं आए हैं, वे भारत की धर्मपरायण नैतिक सभ्यता को ही मानते हैं। उनको अगर आत्मशक्ति को उपयोग करने का तरीका सिखाया जाए, सत्याग्रह का रास्ता बताया जाए तो वे पश्चिमी राज्य पद्धति का और उससे होने वाले अन्याय का मुकाबला कर सकेंगे तथा शस्त्रबल के बिना भारत को स्वतंत्र कराके दुनिया को भी बचा सकेंगे।"


गाँधीजी ने इसी आत्मशक्ति के उपयोग का तरीका ईजाद किया और भारत को आजाद कराया। सत्य और अहिंसा उनके मूलतंत्र हैं। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और सत्याग्रह उनके नैतिक अस्त्र-शस्त्र हैं जिनके जरिए गाँधीजी ने स्वराज का लक्ष्य हासिल किया। सत्याग्रह के पहले कदम में ही गाँधीजी को सफलता मिली। ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्द स्वराज का उनका अँगरेजी में छपा अनुवाद जब्त कर लिया। गाँधीजी विचलित नहीं हुए और उन्होंने जब इसे दुबारा प्रकाशित कराया तब बंबई सरकार कोई विरोध नहीं कर सकी।

गाँधीजी माध्यमों की पवित्रता या नैतिकता के साथ समझौता नहीं करते थे। इसलिए हम देखते हैं कि जब 1920
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के दशक में गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया और चौरा-चौरी में हिंसा भड़क उठी तो उन्होंने अपना आंदोलन वापस ले लिया। आज शहीद भगतसिंह और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे महान क्रांतिकारियों के संदर्भ में गाँधीजी द्वारा अपनाए गए रवैये की आलोचना और निंदा होती है। इसी प्रकार विभाजन के बाद पाकिस्तान को एक बड़ी रकम दिलाने की गाँधी की जिद की भी छीछालेदर की जाती है लेकिन गाँधीजी के लिए यह सत्यनिष्ठा का प्रश्न था। एक नितांत नैतिक सरोकार। आजादी के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए उन्होंने भूख हड़ताल की क्योंकि यही उनका आजमाया हुआ नैतिक अस्त्र था। इसी पर वे चले।


40 साल की उम्र में गाँधीजी के देश और समाज के बारे में जो विचार बन गए थे, उनमें आगे चलकर कोई बड़ा बदलाव देखने में नहीं आता। इंग्लैंड में रहने के कारण गाँधीजी ने संसदीय प्रणाली की खामियों को नजदीक से देखा था और क्षुब्ध होकर उसे बाँझ तक कहा था और यह भी कि "जैसे हाल वेश्या के होते हैं, वैसे ही ब्रिटिश पार्लियामेंट के होते हैं। उसका कोई एक मालिक नहीं होता।" यह भी कि ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। "कि यह धर्मनिष्ठ आदमी के लायक नहीं रही।"

गाँधीजी कहते हैं कि "अँगरेजों ने मारकाट करके 1833 में मताधिकार प्राप्त किया था। उनकी इच्छा सिर्फ अधिकार पाने की थी, लेकिन सच्चे अधिकार तो फर्ज के फल हैं। अधिकार हासिल करके जो फर्ज उन्हें पूरे करने चाहिए थे, वे उन्होंने नहीं किए।" लेकिन 1921 में जब उन्होंने हिन्द स्वराज के बारे में यंग इंडिया में प्रस्तावना लिखी तो कहा कि "आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिन्दुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।"

और स्वराज के लिए अन्याय का, शोषण का और परदेशी सरकार के हिंसक विरोध का सहारा लेना उनके यहाँ वर्जित रहा है। गाँधीजी चूँकि गहरे अर्थों में हिन्दू और आध्यात्मिक थे, इसलिए उनका हिन्द स्वराज भी आध्यात्मिक स्वराज्य था जिसकी भौगोलिक सीमा, विडंबना है कि, उनके शरीर तक ही सीमित रही। हमारा संसदीय लोकतंत्र भी किस तरह अमीरों, अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के निहित स्वार्थों का केंद्र बन गया है, गाँधीजी यह देखते तो दुःखी होते।

इस किताब में गाँधीजी न केवल पश्चिमी सभ्यता का, बल्कि पश्चिमी तालीम का, मशीनों और यंत्रों का, रेल का,
जाहिर है गाँधी जी का विरोध यंत्रों को लेकर नहीं था, बल्कि उस प्रवृत्ति को लेकर था जिसकी तरफ भारत बढ़ रहा था और वह प्रवृत्ति थी औद्योगिक पूँजीवाद की
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पश्चिमी न्यायपालिका और चिकित्सा पद्धति का, वकीलों और डॉक्टरों का भी विरोध करते हैं। गाँधीजी ने बाद में मशीनों के बारे में अपने विचारों में कुछ परिवर्तन भी किया लेकिन आलोचकों ने गाँधीजी को उनके जीवनकाल में ही नहीं बख्शा। एक विदेशी आलोचक ने लिखा : "गाँधीजी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं, इनसान की बनाई हुई एक अकुदरती-कृत्रिम चीज है। उनके उसूल के मुताबिक तो उसका भी नाश करना होगा।"


एक अन्य आलोचक ने लिखा : 'नाक पर लगाया हुआ चश्मा भी आँख की मदद करने को लगाया हुआ यंत्र ही है। हल भी यंत्र है।' इस पर रामचंद्रन नामक एक व्यक्ति ने गाँधी जी से पूछा 'क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं।' गाँधी जी का उत्तर था : 'वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत-कुरेदनी भी यंत्र है।

मेरा विरोध यंत्रों से नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसको लेकर है। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं।' जाहिर है गाँधी जी का विरोध यंत्रों को लेकर नहीं था, बल्कि उस प्रवृत्ति को लेकर था जिसकी तरफ भारत बढ़ रहा था और वह प्रवृत्ति थी औद्योगिक पूँजीवाद की।

गाँधी जी ने इसे ही उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद को गति देने वाला माना। बहुत समय पहले इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली ने अपने एक शोधपरक लेख में कहा था कि हिंद स्वराज्य से तीन थीम उभरती हैं जिनकी बार-बार चर्चा होती है और ये हैं उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद, औद्योगिक पूँजीवाद और तर्कसंगत भौतिकवाद।

गाँधी जी नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद खत्म हो और देश में भूरे साहबों का अंदरूनी उपनिवेशवाद शुरू हो जाए। इसी तरह वह नहीं चाहते थे कि यंत्रवाद को मानववाद से ज्यादा तरजीह मिले। इसलिए इस पुस्तक की महिमा गायी जाती है लेकिन गाँधी जैसा व्यावहारिक व्यक्ति आज होता तो अपनी कुछ स्थापनाओं में जरूर परिवर्तन करता।

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