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नक्सली हमला और जमीनी सच्चाइयां

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अरूण कुमार जैन

छत्तीसगढ़ में विगत दिनों हुए नक्सली हमले ने कई परिवार उजाड़ दिए। पार्टी विशेष के नेता और उनके सहायक मौत के घाट उतार दिए गए। राजनीतिक रूप से सभी पार्टियों ने अपने-अपने मत और मंतव्य प्रकट कर दिए। फौरी तौर पर समस्या से निपटने और निदान के संकल्प प्रकट कर दिए गए। मीडिया ने लगातार जन आक्रोश के तेवर दिखा दिए।

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कुल मिलाकर पूर्व के जख्म हरे हो गए और पहली बार यह भी उजागर हुआ कि पहले भी वर्दीधारी चाहे वह पुलिस के हों या सीआरपीएफ जैसे अर्धसैनिक बलों के जवान हों, नक्सलियों के निशाने पर सदा से रहे हैं और उन्होंने अपने बहुतेरे जांबाज सेवारत रहते खोए हैं।

फर्क यह है कि तब इतना आक्रोश देखने में नहीं आया, चूंकि वे लोग एक शासकीय तंत्र का हिस्सा थे। शासकीय तंत्र की अपनी सीमाएं होती हैं। दूसरे मारे गए जवान अधिकांशत: स्थानीय नहीं थे, जबकि वर्तमान हमले में मारे गए लोग गैरसरकारी और स्थानीय थे। शासकीय सेवकों जिनकी पोस्टिंग या स्तानांतरण बस्तर के नक्सली इलाकों में होता है, इन्हीं कारणों के चलते वहां जाना पसंद नहीं करते अन्यथा नौकरी छोड़ देते हैं। बाहरी व्यक्तियों से ज्यादा सुरक्षित स्थानीय व्यक्ति होते हैं। और यह पहली बार हुआ है कि स्थानीय व्यक्तियों पर इतना बड़ा हमला नक्सलियों द्वारा किया गया है।

राज्य शासन और उसके खुफिया तंत्र की नाकामी प्रथम दृष्टया सही है, मगर पार्टी विशेष और स्थानीय नेताओं तथा कार्यकर्ताओं का सैलाब जिनके अपने सूचना तंत्र रहते हैं उन तक यह खबर या आक्रमण की तैयारी के आसार न पहचान पाना और अधिक आश्चर्यजनक और सनसनीखेज मामला है। यह सही है कि कांग्रेस के नेता स्व. महेन्द्र कर्मा नक्सलियों के निशाने पर लंबे समय से थे।

नक्सली कार्रवाइयों के खिलाफ उन्होंने सलवा जुडूम जैसा जन आंदोलन चलाया था और उसके बाद नक्सलवाद को फैलने से रोकने में मदद देने वाले और खुलकर सामने आए लोगों की आत्मरक्षार्थ हथियारों के लाइसेंस दिया जाना शासन की मदद से संभव हुआ था, मगर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार शासन पोषित इस कार्यक्रम पर रोक लगा दी गई। दरअसल, मानवाधि‍कारों के नाम पर कई बार एंटीनक्सल कार्रवाइयां या तो रोक दी गईं अथवा उन्हें अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सका।

यह भी कि कई बार नक्सली नेता लचर व्यवस्था के चलते अथवा न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया के तहत मानव ‍अधिकार उल्लंघन या गवाहों के अभाव में छूट गए। ऐसा भी नहीं कि नक्सली कमांडरों या नक्सलियों का सच मीडिया, पुलिस, जनता आदि से छुपा हुआ हो या कि हमारे राजनेता उस सच से वाकिफ नहीं हों।

दरअसल, न्यायालय के समक्ष इन बातों को सप्रमाण रखना कोई नहीं चाहता। यह हकीकत है कि छत्तीसगढ़ में चलने वाले विभिन्न उद्योग और औद्योगिक घराने नक्सलियों को बाकायदा माहवारी रुपया देते हैं ताकि उनकी औद्योगिक गतिविधियां और उनके लोग सुरक्षित रूप से अपनी कार्यक्षमता का पूरा उपयोग कर सकें।

ठेकेदारों, खदान मा‍‍लिकों, बड़े ट्रांसपोर्टर्स, बड़े व्यापारी, बड़े हॉ‍स्पिटल आदि सभी से यहां तक कि बड़े बिल्डर्स और कॉलोनाइजर्स से भी नक्सली माहवारी वसूलते हैं। कई सिक्यूरिटी एजेंसियों में नक्सली बतौर गार्ड काम कर रहे हैं, जो कि फुर्सत के समय और खबरें इकट्ठी करने के लिए यह कार्य करते हैं, असल में वे नक्सली मूवमेंट से जुड़े हैं।

नक्सलवाद के नाम से एक अघोषित आर्थिक तंत्र पूरे देश में फैला हुआ है जिसे बड़े पढ़े-लिखे लोग इस समय चला रहे हैं। दरअसल, इस ढंग से इकट्ठा किया गया पैसा हथियार खरीद और नक्सली प्रशिक्षण शिविरों को चलाने, संगठन की गतिविधियां बढ़ाने, ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर संगठन से जोड़ने और ग्रामीणों को छोटी-बड़ी मदद इस रूप में देने के काम में लिया जाता है ता‍कि वे भावनात्मक रूप से नक्सलियों को अपना हितैषी मानने लगें और उस पर इनके द्वारा प्रशासन और शासन के खिलाफ भड़काए जाने वाला प्रचार सीधे-सादे ग्रामीणों को नक्सलवाद से जोड़ देता है।



आज भी कई ग्रामीण परिवार ऐसे हैं, जो इनको मसीहा नहीं मानते, मगर इनकी बंदूकों के डर से वे चुप्पी साधे हैं। अव्वल, पुलिस ग्रामीणों की सुनती नहीं और दूसरे ग्रामीण अच्छी तरह जानते हैं कि नक्सलियों के विरोध में खड़े होना यानी गाहे-बगाहे दुश्मनी मोल लेना और नक्सली गोली खाना है, क्योंकि जब नक्सली गांव में आकर हमला करते हैं तब पुलिस वहां नहीं होती।

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PTI


लगातार नक्सली हमलों से यह असर हुआ है कि नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में भेजे गए अर्द्धसैनिक बल केवल वहीं पर गश्त करते हैं, जहां तक गाड़ियां जा पाती हैं। सड़कों के भीतर हमले के डर से जवान भीतर नहीं घुसते। समस्त प्रमुख सड़कों की इंच-दर-इंच जमीन में नक्सलियों द्वारा भूमिगत लैंड माइंस बिछाई जा चुकी हैं जिसे मीलों दूर से रिमोट से संचालित किया जाता है।

सरकारी योजनाओं के तहत भीतर के क्षेत्रों में काम किए जाने वाले मजदूर भी क्षेत्रीय या स्थानीय नक्सली कमांडर से पूछे बिना मजदूरी नहीं कर सकते, तब ढांचागत विकास कैसे संभव हो सकेगा? दरअसल, किसी भी सरकार ने इस समस्या के सही हल की ओर ध्यान नहीं दिया। अब जब पानी सर से ऊपर जा चुका है और यह हादसा हो गया, तब हर कोई हाय-तौबा मचा रहा है।

देश की आम जनता से आज भी यह सच्चाई छुपाई जा रही है कि नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ के मुख्य लगभग 625 वर्ग किलोमीटर के नक्शे आज भी भारत सरकार या प्रदेश सरकार के पास उपलब्ध नहीं हैं। इन वर्षों में नक्सलियों ने 1 इंच भी जंगल की कटाई इन इलाकों में नहीं होने दी। सघन वन का फायदा उठाकर बाकायदा छुपने के स्थानों का विकास किया गया। सारा जंगल दूसरे छोर पर उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमाओं से लगा हुआ है, जो नक्सलियों के खिलाफ चले किसी भी सघन अभियान के वक्त उन्हें आसानी से दूसरे राज्यों में पलायन का मौका दे देता है।

स्थानीय पुलिस में नक्सलियों की घुसपैठ है, तो बाहरी बल यहां की जमीनी सच्चाइयों, भौगोलिक पृष्ठभूमि और नक्सलियों के बदलते गुरिल्ला युद्ध के तरीकों को नहीं समझ पाते। नए तरीकों में नक्सलियों ने अपने हमले स्कूल जाने वाले बच्चों के माध्यम से करने शुरू कर दिए हैं, क्योंकि बच्चों पर किसी शक भी नहीं होता और न ही कोई बस्तों की चेकिंग करता है।

नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्रों में न तो वर्दी वालों को घुसने देते हैं और न ही शिक्षाकर्मियों को; उन्हें डर है कि शिक्षा का प्रचार उनकी पकड़ को इन क्षेत्रों में कमजोर करेगा। जंगल राज का नंगा नाच तो कभी से चल रहा है, मगर उसका कड़वा सच पहली बार भयावहता के साथ प्रकट हुआ है।

क्षेत्रीय ग्रामीणजन को मुफ्त बिजली, मुफ्त अनाज के बाद सीमित आवश्यकताओं के चलते बाकी जरूरतें जंगल पूरी कर देता है। थोड़ी-बहुत फसल वे ले लेते हैं। साप्ताहिक हाट बाजार में नून-तेल, वनोपज के बदले मिल जाता है, तो वे जंगल में मंगल मना लेते हैं। उनके विकास की योजनाओं का करोड़ों रुपया सरकारी तंत्र, राजनेताओं व ठेकेदारों की झोलियां सदियों से भरता आ रहा है। कोई इन इलाकों में घुस नहीं सकता।

पेपर पर विकास की इबारतें जमीनी सच्चाइयां बयान नहीं करतीं। नक्सली मूवमेंट वास्तविक रूप में कॉर्पोरेट गैंगस्टर्स का रूप ले चुका है, जहां बाकायदा भर्ती, प्रशिक्षण, एरिया का बंटवारा और खुली लूट की छूट दी जा रही है। सरगना अपने पैसों को हैदराबाद से लेकर मुंबई तक व्यवसायों में लगाए हुए हैं।

फौज की तरह नक्सली लोगों को बाकायदा प्रमोशन और सुविधाएं मिल रही हैं। जंगल में मंगल वे भी मना रहे हैं। बस क्षेत्रीय जनता की आने वाली पीढ़ियों का अमंगल हो रहा है।

दिल्ली में बनाई जाने वाली योजनाओं से इस लड़ाई को जीतना संभव नहीं है। स्थानीय स्तर की अलग-अलग योजनाएं और छोटे-छोटे ईमानदार प्रयास सफलता दे सकते हैं, मगर लंबा समय लगेगा, क्योंकि कैंसर को फैलने देकर हमने लंबा समय दिया है।

दूसरा रास्ता इन अमानवीय व्यक्तियों से निपटने का सीधा अर्द्धसैनिक बलों की पूरी फौज द्वारा कॉम्बिंग किया जाना है जिसमें मानवाधिकारों को निलंबित किया जाकर पूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ कार्रवाई किया जाना है, जो कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और आसन्न चुनाव के चलते हमारे आका कभी नहीं स्वीकारेंगे।

बेहतर हो पूर्व पुलिस, सेना के अधिकारियों, उच्च किस्म के योजनाकारों और चिंतकों का एक समूह बनाकर गंभीरता से नए सिरे से योजना बनाई जाए और उसके क्रियान्वयन का जिम्मा नई एजेंसी बनाकर किया जाए वरना बढ़ते हुए अराजक राज का खात्मा मुश्किल होगा

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