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पचास साल में पत्नियों की जगह लेंगी मशीनें

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-मधुसूदन आनंद

जबसे मैंने पढ़ा है कि अगले 50 वर्षों में पुरुष कृत्रिम पत्नी के साथ रहने लगेंगे, मैं स्तब्ध हूँ। यह बात कृत्रिम मेधा के लिए 2009 का लोएबनर पुरस्कार जीतने वाले डेविड लेवी ने कही है जिसे 'वॉशिंगटन पोस्ट' ने प्रकाशित किया है।

लेवी का कहना है कि इस दौरान कम्प्यूटर मॉडलों के जरिए ऐसी कृत्रिम बुद्धि का विकास कर लिया जाएगा कि सब कुछ वास्तविक-सा लगने लगेगा और पुरुष कृत्रिम पत्नी से शादी रचाने लगेंगे। लेकिन सोनी के रोबोट-कुत्ते 'एबो' के लिए कृत्रिम मस्तिष्क बनाने वाले वैज्ञानिक फ्रेडरिक काप्लान लेवी के विचार से सहमत नहीं हैं।

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वे कहते हैं कि बेहद नफीस सेक्स-रोबोट जरूर निकट भविष्य में उपलब्ध होंगे, लेकिन वे सचमुच के आदमियों या औरतों की जगह नहीं ले सकते। मनुष्य और मशीन का आपस में इस तरह का मेल-मिलाप बेशक अपने आपमें एक दिलचस्प घटना होगी, लेकिन इसमें मानवीय-ऊष्मा नहीं होगी। हो ही नहीं सकती।

मैं अब भी स्तब्ध हूँ और सोच रहा हूँ कि हजारों वर्षों के घात-प्रतिघातों के बाद बने मनुष्य के दिमाग में इतना कूड़ा, गंदगी और विकृति कैसे पैदा हो गई है, जो इस तरह की बातें न केवल सोची जा रही हैं बल्कि उन्हें संभव और साकार भी बनाया जा रहा है।

यह एक ऐसे खतरनाक दिमाग की कल्पना है, जिसके लिए स्त्री या पत्नी का अर्थ है-चाय-कॉफी बनाने वाली, सिगरेट सुलगाकर देने वाली, शराब परोसने वाली, कपड़े धोने और स्त्री करने वाली, बूट पॉलिश करने वाली, पौधों में पानी देने वाली, झाड़पोंछ करने वाली, बर्तन साफ करने वाली, खाना बनाने और उसे मेज पर सजाने वाली और बिस्तर बनाने और उसे गर्म करने वाली एक चलती-फिरती मशीन।

एक ऐसी मशीन जो आदमी का हर सही, गलत, अच्छा-बुरा हुक्म बजा लाए। आदमी की सोच पहले भी ऐसी थी। योरप और अमेरिका में स्त्री-मुक्ति के लंबे आंदोलन के बाद किसी तरह औरतों में जागरुकता आई।

चीन में एक ऐसा राजा भी हुआ है जिसके शयन कक्ष में हर रात एक नई और वस्त्रहीन स्त्री को भेजा जाता था। राजा के लिए उस स्त्री का न कोई नाम था, न वंश, न परिवार और न पता-ठिकाना। राजा को रोजाना आमोद-प्रमोद के लिए एक शरीर चाहिए था। शरीर नहीं, एक मशीन!
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उन्होंने आदमी से बराबर का हक माँगा और जब नहीं मिला तो जबर्दस्ती छीन लिया। फिर भी असुरक्षा, भय और प्रलोभन के जरिए मर्द, औरत के शरीर पर राज करता रहा, उसे हर पल मनुष्य से वस्तु बनाता रहा और 'तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त' कहकर उसकी गरिमा को मिटाता रहा।

कुछ रोशनखयाल लोगों ने स्त्री को बेशक बराबरी और आदर का दर्जा दिया, लेकिन ज्यादातर समाजों में स्त्री का दर्जा आदमी से नीचे ही रहा है। जब हम छोटी-छोटी बच्चियों ही नहीं, बुजुर्ग औरतों के साथ भी बलात्कार के समाचार पढ़ते हैं तो मन गहरी जुगुप्सा से भर उठता है।

मनुष्य ने पाप करने के लिए ही स्त्री को वेश्या बनाया और कोई भी समाज इस वेश्यावृत्ति को आज तक रोक नहीं पाया है। स्त्री के पक्ष में नैतिक आवाज उठाते हुए हमारे सुप्रीम कोर्ट को भी सरकार से कहना पड़ा है कि अगर वेश्यावृत्ति को रोक नहीं सकते तो उसे वैध ही घोषित कर दो ताकि नरक में रह रही वेश्याओं के कुछ तो मानवाधिकार हों!

मर्द और औरत के बीच का संबंध कुदरती है। मनुष्य चूँकि सभ्य है, उसे चूँकि संस्कार और समझ मिली है, अच्छे-बुरे का विवेक मिला है, इसलिए उसने विवाह संस्था के जरिए इस संबंध को संस्थागत स्वरूप दिया लेकिन इसके बावजूद परस्त्रीगमन नहीं रुका। वेश्यावृत्ति नहीं रुकी, बहुविवाह प्रथा नहीं रुकी। क्यों? शायद इसलिए कि मनुष्य की नजर में स्त्री मजा देने वाली चीज बनी रही।

हमारे राजाओं के रनवास में इतनी रानियाँ और बादशाहों के हरम में इतनी औरतें आखिर क्यों होती थीं? राजा जब चढ़ाई करते थे तो उसके सैनिक निरीह औरतों पर क्यों टूट पड़ते थे? हमारा मानवीय इतिहास हर काल में औरतों पर हुए अत्याचार से भरा पड़ा है।

चीन में एक ऐसा राजा भी हुआ है जिसके शयन कक्ष में हर रात एक नई और वस्त्रहीन स्त्री को भेजा जाता था। ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि कोई स्त्री अस्त्र छुपाकर न ले जाए और राजा को मार न डाले।

आज कौन ऐसी स्त्री होगी जो ऐसे क्रूर राजा को मारना न चाहे? राजा के लिए उस स्त्री का न कोई नाम था, न वंश, न परिवार और न पता-ठिकाना। राजा को रोजाना आमोद-प्रमोद के लिए एक शरीर चाहिए था। शरीर नहीं, एक मशीन!

मनुष्य चूँकि सभ्य है, इसलिए उसने विवाह संस्था के जरिए इस संबंध को संस्थागत स्वरूप दिया लेकिन इसके बावजूद परस्त्रीगमन नहीं रुका। वेश्यावृत्ति नहीं रुकी, बहुविवाह प्रथा नहीं रुकी। क्यों? शायद इसलिए कि मनुष्य की नजर में स्त्री मजा देने वाली चीज बनी रही।
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फ्रांसीसी नृतत्वशास्त्री और समाजशास्त्री लेवी स्त्राउस ने अपनी 'एलायंस थ्योरी' में बताया है कि पिता-पुत्री या भाई-बहन के बीच संबंधों को लेकर विश्वभर के समाजों में वर्जना है और इसीलिए एक पुरुष किसी दूसरे पुरुष को अपनी बहन या बेटी देकर दूसरे की बहन या बेटी अपने लिए लेता है।

इसी वर्जना के कारण पुरुष परिवार के बाहर स्त्री को ढूँढता है और सामंजस्य और सद्भाव की वैसी ही भावना पैदा होती है, जैसी अपने परिवार के साथ। यानी यह वर्जना एक सकारात्मक चीज है और यह इसीलिए है कि मनुष्य के पास विवेक है।

आज तक हम समझते थे कि हम चिंपांजियों के सबसे करीब हैं, लेकिन जापान और कनाडा के वैज्ञानिकों ने केन्या में गुरिल्ला जैसी ऐसी काले बंदरों की प्रजाति की खोज की है जो मनुष्यों की तरह दूसरे के दुःख में दर्द महसूस करती है। उनके परिवार में मादा प्रमुख होती है और सबसे बड़ी बूढ़ी परिवार की मुखिया होती है। ऐसा समझिए जैसे कोई नानी, मौसियों और माँ के साथ बच्चों समेत रह रही हो।

बच्चे आपस में खेलते और झगड़ते हैं। ऐसे ही खेलते हुए एक बच्चे की दूसरे बच्चे से लड़ाई हो गई। उसकी माँ तत्काल दौड़ी-दौड़ी आई और उसने अपने बच्चे से लड़ने वाले बच्चे को काट खाया। बच्चा रोने-चिल्लाने लगा तो क्या देखते हैं कि बूढ़ी नानी झट दौड़कर आती है और बीच-बचाव कर उस बच्चे को छुड़ाती है।

दूसरी मौसियाँ भी जमा हो जाती हैं, वे बच्चे के जख्म को देखती हैं जैसे सांत्वना दे रही हों। तभी वह बच्चा जिसकी माँ ने काटा था, बच्चे की बाँह को पकड़कर उसका जख्म देखता है, जैसे उसके दर्द को महसूस कर रहा हो। जब वैज्ञानिक इन काले बंदरों का अध्ययन कर रहे थे, तभी केन्या में लड़ाई छिड़ गई।

आदमी चाहता है कि एक मानवीय ऊष्मा से हीन औरत हरदम तैयार मिले तो आप समझ सकते हैं कि यह विचार उलटकर वार करने वाला साबित होगा। तब जीता-जागता आदमी भी मशीन बन चुका होगा जिसका कोई मन नहीं होगा और जो कभी किसी से प्रेम नहीं कर सकेगा।
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खाने के लाले पड़ गए। तब ऐसे सैकड़ों बंदरों का शिकार कर लिया गया और वैज्ञानिकों को लगा कि सारे जंगल से मनुष्य के इस निकटतम रिश्तेदार बंदर का सफाया हो चुका है। कुछ बरस बाद कनाडा की वैज्ञानिक को कुछ बचे हुए बंदर मिल गए तो उन्होने शोध आगे बढ़ाई।

अपने लोगों के साथ सहयोग करने, उनके साथ सहानुभूति और एकजुटता दिखाने का गुण शायद मनुष्य को इन्हीं बंदरों से मिला हो। वैज्ञानिक कहते हैं कि इन मादा बंदरों के साथ नर बंदर बार-बार संबंध बनाते हैं तो क्या यह लंपटता और अपनों के साथ सहयोग और एकजुटता की यह अच्छी आदत भी हमें इन्हीं बंदरों से मिली?

अगर ऐसा है तो मानवीय विवेक, जो हजारों सालों में हमारे विकास के साथ परिपक्व होना चाहिए था, आदिम इच्छाओं के सामने क्यों ढेर हो जाता है? क्यों आदमी मर्यादित आचरण नहीं कर पाता? क्यों वह भूल जाता है कि यह स्त्री है कोई मशीन नहीं, उसकी भी एक आत्मा है, मन है, इच्छाएँ हैं, सपने हैं जो मशीन के नहीं होते। क्यों सिर्फ पुरुष को ही स्त्री के विकल्प के लिए स्त्री जैसी दिखने वाली मशीन चाहिए? क्या इतने सारे विकास के बावजूद मनुष्य आज भी अंदर से जंगली है?

इस तरह का रोबोट बनाने की क्या जरूरत है? क्या स्त्रियों की संख्या भविष्य में कम हो जाएगी? या जिस तरह हमारा समाज पुरुष प्रधान और लड़कियों को गर्भ में ही मार देता है, उस कमी को पूरा करने के लिए ऐसे विचार सामने आ रहे हैं?

यह विचार स्त्री विरोधी है, उसका अमानवीयकरण करने वाला और उसके प्रति अवमानना से भरा है। आदमी चाहता है कि एक मानवीय ऊष्मा से हीन औरत हरदम तैयार मिले तो आप समझ सकते हैं कि यह विचार उलटकर वार करने वाला साबित होगा। तब जीता-जागता आदमी भी मशीन बन चुका होगा जिसका कोई मन नहीं होगा और जो कभी किसी से प्रेम नहीं कर सकेगा। जिसकी यह चाह नहीं होगी कि उसके संतान। सोचकर काँप उठता हूँ। (नईदुनिया)

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