Biodata Maker

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

बाबा! नीम के पेड़ को मत काटना

Advertiesment
हमें फॉलो करें नीम पेड़
- विष्णुदत्त नागर

प्यारे बाबा!
मुझे आज अवधी का एक लोकगीत याद आ गया, जिसमें एक लड़की अपने पिता से कहती है- 'बाबा! नीम के पेड़ को मत काटना। नीम का पेड़ पक्षियों को सहारा देता है। बेटियाँ भी पक्षियों की तरह होती हैं।' यह लोकगीत याद आया जब मैं कॉलेज से पढ़कर निकली तब उसके परिसर के परकोटे से सटे पर्यावरणवादियों द्वारा लगाए गए नीम के पे़ड़ों को धड़ों तक कटे देखा। घर तक आते समय शहर से गुजरते राष्ट्रीय मार्गों पर 100-150 वर्ष पुराने बरगद, पीपल तथा नीम के वृक्ष भी जड़ तक काट दिए गए, फिर उखा़ड़ दिए गए। मेरी सहेली ने बताया कि उसके कन्या महाविद्यालय के बाहर सड़क चौ़ड़ी करने के लिए इमली के पुराने विशाल वृक्षों को काट दिया गया।

भला हो नगर की एक शिक्षण संस्था का, जिसने करीब 150 नीम और उखड़े पीपल सहित अन्य वृक्षों का अपने परिसर में प्रत्यारोपण कर डाला। प्रत्यारोपित वृक्षों ने अवश्य ही मौन आशीर्वाद बरसाया होगा। हाल ही में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय परिसर, इंदौर में वृहद पैमाने पर पौधारोपण किया गया जिसमें मैं भी शामिल थी। विद्यार्थियों द्वारा रोपे गए पौधे की मुस्कान देखते ही बनती थी। अन्य शिक्षण और सामाजिक संस्थाओं में भी पौधारोपण हुआ। नीम का वृक्ष देखकर मुझे बचपन याद आ गया, जब मैं उसकी छाया में पाँचा खेला करती थी। आप ही तो मेरी बीमारी के समय नीम की छोटी-सी टहनी दरवाजे पर टाँगकर बीमारियों को प्रवेश करने से रोकते थे।

बाबा! मैंने पढ़ा है कि नीम मनुष्यों और पशुओं की अनेक बीमारियों का वैद्य है। खेतों की मे़ड़ों पर लगे नीम के पेड़ अपनी जड़ों के माध्यम से लघु जल संयंत्र की भूमिका निभाते हैं। पूजा की वेदी सजाने में केले के पत्तों का उपयोग अनिवार्य किया गया है ताकि घर-घर में केले के पेड़ लगाए जाएँ। जब चेचक की बीमारी का प्रकोप होता था और उस समय औषधि विज्ञान उसके उपचार के लिए कोई औषधि नहीं ढूँढ पाया था, तब चेचक के मरीज को कंडे की राख में सुलाकर नीम की पत्तीदार टहनियों से हवा झली जाती थी।

नीम के एंटीसेप्टिक और वायुशोधन गुणों के कारण यह वृक्ष गाँव-गाँव में पाया जाता है एवं शुभ माना जाता है। भोपाल से प्रकाशित पत्रिका 'समर लोक' में कवि चन्द्रकुमार असाटी के नीम के पेड़ की यह काव्योक्ति कितनी मार्मिक है कि 'बेटियों की विदाई, बहुओं के आगमन की खुशी, उत्साह को मूकदर्शक-सा देखा है।' वह हँसा है, रोया है, नीम का पेड़ प्रतीक है परिवार के उतार-चढ़ाव, अद्भुत दर्शक का। नीम के वृक्ष की सहनशीलता, धैर्य के साथ हिलती शाखाओं ने मीठी हँसी अभिव्यक्त की है। एक कवि के शब्दों में-

बदलते मौसम की प्रसव पीड़ा से
क्लान्त नीम के पेड़ ने विश्राम की मुद्रा में
कोपिलों के जन्म की खुशी के उन्माद में
निंबोरियों की मादक गंध से
चहुँओर शीतलता बिखेरती।

बाबा! आपको याद होगा वह निमा़ड़ी लोकगीत जो मेरी माता गुनगुनाया करती थी- 'जेवी नीम़ड़ानी छाया, तेनी माता-पितानी माया।'

मैंने वृक्षों का सीधा-साधा अर्थशास्त्र भी पढ़ा है। हमारे वृक्षों का राष्ट्रीय आय में करीब 3 प्रतिशत योगदान है, जबकि सरकार अपने विकास खर्च का केवल 2 प्रतिशत ही वन संरक्षण पर खर्च करती है। इस 2 प्रतिशत में कितनी धनराशि वृक्षों की जड़ों तक पहुँच पाती होगी, यह संदेहास्पद ही है। आज ही मैंने कॉलेज की लाइब्रेरी में पढ़ा है कि पिछले चालीस वर्षों में चीन की नदियों का जल स्तर तेजी से गिरा है। जलस्तर को गिरने से रोकने और मरुस्थल का क्षेत्रफल सिकोड़ने के लिए चीन प्रतिवर्ष 12 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में हजारों वृक्षों का रोपण करेगा।

चीन ने मरुस्थल के ब़ढ़ने को नहीं रोका, बल्कि उसके क्षेत्रफल को भी घटाया है। फलस्वरूप उत्तरी और पश्चिमी चीन में हजारों हैक्टेयर भूमि में पेड़-पौधों से विस्तारित हरियाली ने रेगिस्तान की चुनौती स्वीकार की है। ज्ञातव्य है कि चीन का 27 प्रतिशत क्षेत्र रेगिस्तान है। 1981 के बाद करीब 2 लाख 19 हजार वर्ग किलोमीटर में 50 अरब वृक्षों को लगाया गया। चीनी सरकार का लक्ष्य है 2050 तक चीन का वनक्षेत्र 26 प्रतिशत हो जाए। लक्ष्य होने के साथ-साथ ऐसी जैविक संपदा भी पैदा की जाए, जो एथेनोल और जैविक डीजल के उत्पादन में सहायक हो।

मैंने चीन का उदाहरण इसलिए प्रस्तुत किया कि भारत जैसे वृक्षपूजक देश में वनों और वृक्षों की अंधाधुँध कटाई के कारण केवल 11 प्रतिशत क्षेत्र ही सुरक्षित रह गया है। अनेक विकसित देशों में भारत की अपेक्षा तीन से पाँच गुना तक वनक्षेत्र सुरक्षित रखा गया है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि पिछले सप्ताह ही भोपाल में मध्यप्रदेश के वनमंत्री ने स्वीकार किया कि इंदिरा सागर परियोजना में गलत सीमांकन के कारण 3,13,000 वृक्ष काटे गए। परियोजना में कुल 40,332 हैक्टेयर वनक्षेत्र डूबा, वृक्षों की भूमिगत जल की शिराएँ एक संघात के रूप में वृक्ष के आसपास सक्रिय रहती थीं।

बाबा! हमारे ऋषियों द्वारा प्रारंभ की गई परंपराएँ हमें विरासत में मिलीं और दैनिक कार्यक्रम का अंग बन गईं और हम उन्हें धर्मतंत्र का अंग समझने लगे। घर-घर में तुलसी का पौधा लगाया जाता है, भगवान भुवन भास्कर के अर्घ्य के रूप में अभिमंत्रित जल तुलसी पर चढ़ाया जाता था इसलिए तुलसी को देवता का स्थान मिला। पीपल के वृक्ष को वासुदेव भी कहा गया है। हिन्दू धर्म के अनुसार पीपल को काटने को पाप समझा जाता है। प्राचीनकाल में पंचायतों की बैठक पीपल के वृक्ष के नीचे ही लगती थी ताकि पीपल के पवित्र वृक्ष के नीचे सत्य और न्याय भी संरक्षित रहें। गौतम बुद्ध को दिव्यज्ञान पीपल के वृक्ष के नीचे ही प्राप्त हुआ था। इसे मानव का अंधविश्वास ही चाहे कहें, लेकिन आज भी महिलाएँ पीपल की परिक्रमा कर उसको डोरे बाँधकर अपना संबंध स्थापित करती हैं और अपने परिवार और मायके में माता-पिता की खुशहाली के लिए प्रार्थना करती हैं।

ऋषियों और मुनियों द्वारा अनेक ग्रंथ पीपल के वृक्ष के नीचे ही लिख गए हैं। सावित्री-सत्यवान की कथा में समाहित आदर्श की पूर्ति तब ही की जा सकती है जब जगह-जगह बरगद के छायादार वृक्ष लगाए जाएँ। कालिदास के 'कुमार संभव' में जब पार्वतीजी हिमालय के गौरी शिखर पर तपस्या करने जाती हैं तब सबसे पहला कार्य पौधारोपण का ही करती हैं।



बिल्व पत्र के बिना भगवान शंकर की पूजा अधूरी रहती है। बेल के औषधिपरक उपयोग से सभी परिचित हैं। आँवले के पे़ड़ के नीचे बैठकर भोजन धार्मिक कृत्य समझा जाता रहा है। भगवान महावीर ने कहा कि वृक्ष और मनुष्य में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने एक दिव्य सूत्र भी दिया कि वनस्पति भी आहार करती है, मनुष्य के शरीर की तरह वनस्पति शरीर भी अनित्य है और मनुष्य की तरह वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त करता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने भी सामान्य प्राणियों की भाँति वनस्पति के मानवीय स्वभावों का विश्लेषण किया था।

बौद्ध धर्म में वृक्षों को काटना उतना ही जघन्य है जितना बछ़ड़ों को मारना। इस्लाम के अनुसार पे़ड़-पौधे अल्लाह की बहुत बड़ी नियामत हैं और ये हमारी जिंदगी में शरीक हैं। इस्लाम के इतिहास से पता चलता है कि सहाबाकरम पौधे लगाने के शौकीन थे और इस काम को बहुत ही शौक से किया करते थे। इतना ही नहीं, हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम की हदीस है कि फलदार वृक्षों को न काटा जाए और न ही जलाए जाएँ। हजरते-जाबिर से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ने बंजर जमीन को आबाद करने की ताकीद फरमाई थी।

बाबा! आपसे फिर आग्रह करती हूँ कि गाँव में नीम, पीपल, बरगद या अन्य वृक्षों पर हो रहे अत्याचार को रोकने की मुहिम चलाएँ। इन वृक्षों के साथ जीवित संवाद स्थापित करना और कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम्‌ की नायिका शकुंतला का वृक्ष वनस्पतियों के साथ वात्सल्य भाव का अर्थ व व्यवहार गाँव वालों को समझाना। ये वृक्ष अवश्य ही जल संयंत्र बनकर हमारे पर्यावरण की रक्षा करेंगे। इससे बड़ी भेंट हमें और क्या चाहिए?
...आपकी लाड़ली बेटी

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi