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मानव सभ्यता के विकास के ये अंधेरे पहलू

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शरद सिंगी

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नए वर्ष में प्रवेश के साथ मानव सभ्यता भी एक वर्ष और पुरानी हो गई। समय के साथ परिवेश बदले, परिभाषाएं बदली, प्रसंग बदले। दर्शन बदला, दिशा बदली। विज्ञान विकसित हुआ, विचार बदले। चहुंओर विकास हुआ और मनुष्य ने डींग मारी कि हमारी मानव सभ्यता अब विकसित हो चुकी है। हर विकास को नापने के पैमाने हैं किंतु सभ्यता को नापने के पैमाने क्या हैं?

जिस तरह गति को हम कार में लगे गति मीटर में नाप सकते हैं, तापमान को थर्मामीटर से या आर्थिक विकास की दर को विभिन्न निर्देशांकों और विश्लेषणों से किंतु सभ्यता के विकास को नापने का हमारे पास कोई यंत्र या पैमाना नहीं है।
अपने आपको विकसित सभ्यता बताने से पहले हम थोड़ा सोचें कि क्या वास्तव में हमारी सभ्यता विकसित हो चुकी है? जिस प्रकार शरीर का कोई एक अंग भी यदि अविकसित रह जाता है तो पूरा शरीर ही विकसित नहीं माना जाता। और हमारी सभ्यता में तो एक नहीं कई अंग अविकसित पड़े हैं। पृथ्वी पर लगभग चालीस राष्ट्र ऐसे हैं, जिनमें तानाशाहों का शासन है। इनमें से लगभग आधे में हैवानियत के पैरों तले मानव समाज कुचला जा रहा है। कई साम्यवादी देशों में मनुष्य के मौलिक अधिकारों का गला घोंट दिया गया है। कई राष्ट्रों में गृहयुद्ध चल रहे हैं। अकेले सीरिया में मरने वालों की संख्या साठ हजार तक पहुंच गई है।

समूचे आध्यात्मिक और धार्मिक साहित्य की चेतावनियों को अनदेखा कर अपने मद में चूर यह समाज सभ्यता के विकास की ओर बढ़ रहा है या विकृति की ओर। समस्या जटिल है, हल असका आसान नहीं
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अफगानिस्तान, इराक, सोमालिया, सूडान, बर्मा आदि देशों के आंकड़े और जोड़ दें तो संख्या कई हजार से और बढ़ जाएगी। क्या इन राष्ट्रों की सभ्यता को विकसित सभ्यता कहें या फिर पश्चिमी देशों की अश्लील, फूहड़ और लिव-इन रिलेशनशिप वाली सभ्यता को विकसित सभ्यता कहें? क्या हम अपने देश की सभ्यता को विकसित सभ्यता कहें जिसकी वीभत्सता को हमने पिछले तीन हफ्तों से भोगा है। प्रश्न फिर वहीं हैं कि मानव सभ्यता के सहस्त्रों वर्षों के इतिहास के बाद हम कहां खड़े हैं?

जिन मानवीय गुण जिनका नाप संभव नहीं होता उनका तुलनात्मक विश्लेषण किया जाता रहा है जैसे सत्य-असत्य, सदाचार-अनाचार, नैतिक-अनैतिक इत्यादि। इन परस्पर विरोधी गुणों को विभाजित करने वाली दीवार को मनुष्य ने बहुत झीना और लचीला बना रखा है। अपनी तर्कशक्ति से सुविधानुसार इस दीवार को वह दाएं या बाएं सरका देता है। किंतु सभ्यता की तुलना करने के लिए हमारे पास कोई विरोधी गुणदंड भी नहीं।

यदि दूसरे ग्रह की कोई सभ्यता होती तो हम उस सभ्यता के सापेक्ष अपनी सभ्यता की तुलना कर लेते पर यह अभी संभव नहीं। हां, एक सभ्यता इस पृथ्वी पर हमारी सभ्यता के समानांतर चल रही है तो वह है जंगल के प्राणियों की सभ्यता। हम उसे हीन समझकर उसके साथ अपनी सभ्यता की तुलना नहीं करना चाहते किंतु क्या कभी आपने सोचा है कि इस सभ्यता में न सत्य है, न असत्य। न चोर है न सिपाही। पेट भरा होने पर कोई प्राणी दूसरे प्राणी को क्षति नहीं पहुंचाता फिर वह जंगल का राजा ही क्यों न हो। न कुछ पाने की चाह, न कुछ खोने का डर। न धर्म भेद, न रंग भेद। सब निरपेक्ष है, सापेक्ष कुछ भी नहीं। कौनसी सभ्यता विकसित है जंगल की या मनुष्य की?

विज्ञान के अनुसार मनुष्य के पास केवल तर्कशक्ति ही ऐसा गुण है, जो इस पृथ्वी के अन्य प्राणियों से उसे अलग करता है। यह शक्ति मनुष्य के लिए वरदान भी है और अभिशाप भी। शायद यही तर्कशक्ति सभ्यता के विकास में अवरोध है। मानव सभ्यता को दिशा-निर्देशित करने के लिए समय-समय पर अवतार आए, पैगम्बर आए।

मनुष्य ने उनके सरल और स्पष्ट उपदेशों के अर्थ का अनर्थ कर लिया अपनी तर्कशक्ति की बुनियाद पर। जंगल की सभ्यता को दिशा-निर्देशित करने के लिए कभी किसी अवतार या पैगम्बर को आना नहीं पड़ा। उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि प्रकृति के नियमों की कभी उन्होंने अवहेलना की ही नहीं। लिंग, वर्ण, धर्म और सीमाओं में बंटी इस धरती पर सभ्यता के विकास की यह कैसी कल्पना? प्रकृति के नियमों को बार-बार भंग कर अपनी उद्दंडता के लिए दंड पाता रहा है मनुष्य।

समूचे आध्यात्मिक और धार्मिक साहित्य की चेतावनियों को अनदेखा कर अपने मद में चूर यह समाज सभ्यता के विकास की ओर बढ़ रहा है या विकृति की ओर। समस्या जटिल है, हल इसका आसान नहीं क्योंकि पूरी मानव सभ्यता ऐसे चंद हाथों की गुलाम है जो खुद असभ्य (छद्म सभ्य) है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि राग, द्वेष, अहम, स्वार्थ, संकीर्णता और सत्ता की बुनियाद पर सभ्यता की इमारत खड़ी नहीं की जा सकती। समय है स्लेट को साफ करने का और नए सिरे से इबारत लिखने का। 'सबको सन्मति दे भगवान।'

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