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राजनीति में सभी 'नंगे'

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उमेश त्रिवेद
सरकार रहे या जाए, लेफ्ट सफल हो या असफल, सरकार को 272 मत मिलें या 250, विश्वास हासिल हो या टूटे, यह तय है कि सौ करोड़ जनता के आगे सभी राजनीतिक दल विश्वास का मत हार चुके हैं। इसका अहसास शायद नेताओं को नहीं है। भ्रष्टाचार, बेईमानी जैसे मामलों में एक कहावत अक्सर सुनने में आती रही है कि 'हमाम में सभी नंगे हैं', अब हम कह सकते हैं कि राजनीति में सभी नंगे हैं, वह भी सरेआम।

  साठ साल पहले जिस प्रजातांत्रिक प्रणाली की भावभूमि पर देश की आजादी की बुनियाद रखी गई थी, उसी लोकतंत्र को नोचने-खसोटने के लिए राजनेताओं ने जैसे बघनख पहन लिए हैं या लोहे के नुकीले नाखून लगा लिए हैं      
साठ साल पहले जिस प्रजातांत्रिक प्रणाली की भावभूमि पर देश की आजादी की बुनियाद रखी गई थी, उसी लोकतंत्र को नोचने-खसोटने के लिए राजनेताओं ने जैसे बघनख पहन लिए हैं या लोहे के नुकीले नाखून लगा लिए हैं। इतिहास में छत्रपति शिवाजी ने अपने दुश्मन अफजल खाँ को मारने के लिए बघनख का प्रयोग किया था।

प्रतापगढ़ के युद्ध में अफजल खाँ दोस्ती के बहाने शिवाजी को मारना चाहता था। साजिश की भनक मिलने के बाद शिवाजी ने गले मिलते वक्त बघनख का इस्तेमाल राज्य की रक्षा के लिए दुश्मन को मारकर किया था।

  नेताओं के कृत्यों से देश आहत है, लहूलुहान है, लेकिन उन्हें चिंता नहीं है। किसी भी कीमत पर, किसी भी तरीके से वे सत्ता पर काबिज रहना चाहते हैं। उनके लिए देश, समाज या जनता के कोई मायने नहीं रह गए हैं। विश्वास के विध्वंस का खेल निर्दयतापूर्वक जारी है      
लेकिन मौजूदा राजनेता प्रजातंत्र की दुहाई देते हुए प्रजातंत्र का पेट फाड़ रहे हैं। नेताओं के कृत्यों से देश आहत है, लहूलुहान है, लेकिन उन्हें चिंता नहीं है। किसी भी कीमत पर, किसी भी तरीके से वे सत्ता पर काबिज रहना चाहते हैं। उनके लिए देश, समाज या जनता के कोई मायने नहीं रह गए हैं। विश्वास के विध्वंस का खेल निर्दयतापूर्वक जारी है। प्रजातंत्र के साथ इतने निर्मम व्यवहार के उदाहरण बिरले ही सामने आएँगे।

प्रजातंत्र की तकलीफें इतनी बढ़ चुकी हैं कि लोगों को अब दर्द भी महसूस नहीं हो पा रहा है। 22 जुलाई, मंगलवार को लोकसभा में मनमोहनसिंह सरकार सदन के विश्वास का मत हासिल करने की कोशिश करेगी। सरकार के नियमित एजेंडे से अलग, यह थोपा हुआ एजेंडा है जिसे पूरा करना मजबूरी है। प्रजातांत्रिक देश में सरकार के लिए विश्वास मत का प्रस्ताव या सरकार के खिलाफ 'अविश्वास का प्रस्ताव' महत्वपूर्ण घटना होती है।

  'हाई-पॉवर' पोलिटिकल ड्रामे की इबारतों में संवेदनशीलता, प्रतिबद्धता, राष्ट्रीयता जैसे तत्व नदारद हैं। लोग ऊब चुके हैं, थक चुके हैं, परेशान हो चुके हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश में मनमोहनसिंह सरकार हारे या जीते, रहे या चली जाए      
इनमें लोगों की दिलचस्पी के विषय अंतर्निहित होते हैं। सरकार गिरेगी या बदलेगी, कैसे समर्थन जुटाएगी, कैसे नीतियों का तानाबाना बुनेगी, लोगों के सामने पेश करेगी, जैसे अनेक मुद्दे विश्वास-अविश्वास की पृष्ठभूमि में चर्चा के केंद्र में बने रहते हैं। इनमें नए कथानक बनते हैं, पुराने कथानक बिगड़ते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से 22 जुलाई को लोकसभा में होने वाले शक्ति परीक्षण का कथानक बुरी तरह पिट चुका है। आम लोगों ने कथानक के कर्ताधर्ताओं से मुँह फेर लिया है, क्योंकि इस ड्रामे में न कोई 'ट्रेजेडी' है, जो लोगों को पिघला सके, न ही 'कॉमेडी' है, जो आकर्षित कर सके।

'हाई-पॉवर' पोलिटिकल ड्रामे की इबारतों में संवेदनशीलता, प्रतिबद्धता, राष्ट्रीयता जैसे तत्व नदारद हैं। लोग ऊब चुके हैं, थक चुके हैं, परेशान हो चुके हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश में मनमोहनसिंह सरकार हारे या जीते, रहे या चली जाए, क्योंकि न सरकार की साख बची है, न ही विश्वास बचा है। 'विश्वास मत' को लेकर पिछले एक पखवाड़े में जो कुछ घटा, उसने प्रजातांत्रिक नैतिकता, सैद्धांतिकता, प्रतिबद्धता और राष्ट्रीयता के निर्धारित सभी मापदंडों के तटबंध तोड़ दिए हैं।

प्रजातंत्र के चीरहरण में सभी नेता, सभी राजनीतिक दल कौरव हैं, सिर्फ कौरव हैं, जिसकी कोशिश प्रजातंत्र को शर्मसार, बेआबरू और बेबस करके अपनी ठकुराई कायम करना है। जनता पांडवों की तरह हाथ बाँधे खड़ी है और कोई 'कृष्ण' सामने आकर मदद देने की स्थिति में नहीं है।

  शक्ति परीक्षण के ड्रामे को लेकर देश में एक अजीबोगरीब लाचारी, बेजारी और बेताबी है। सरकार को बचाने और गिराने को लेकर राजनीतिक दलों में जो सौदेबाजी हुई, धोखाधड़ी हुई, छल-प्रपंच हुए, माहौल बना उससे देश हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ है      
शक्ति परीक्षण के ड्रामे को लेकर देश में एक अजीबोगरीब लाचारी, बेजारी और बेताबी है। सरकार को बचाने और गिराने को लेकर राजनीतिक दलों में जो सौदेबाजी हुई, धोखाधड़ी हुई, छल-प्रपंच हुए, माहौल बना उससे देश हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ है।

देश के नाम पर, देश की दुहाई देकर अखबारों ने खूब लिखा, टेलीविजन ने दलीलें रखीं, शोर मचाया, आक्रोश दिखाया, मुट्ठियाँ तानीं, आँखें दिखाईं, सवाल दागे, प्रतिप्रश्न किए, सहलाया, समझाया, दुत्कारा, सब कुछ किया, लेकिन कोई असर नहीं दिखा। लगता है राजनीतिक दलों और राजनेताओं की पीठ कछुए की पीठ हो चली है जिसकी ढाल पर किसी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं होता है।

राजनीति के बदलते समीकरण देखकर समीक्षक परेशान हैं। उनकी आँखें फटी हुई हैं कि इतने बड़े पैमाने पर समीकरणों का बनना-बिगड़ना देश के हितों के मद्देनजर कितना मुनासिब है? विश्वसनीयता का संकट देश कैसे बर्दाश्त कर पाएगा? संसदीय प्रजातंत्र में 'नंबर गेम' महत्वपूर्ण और निर्णायक होता है। 544 सदस्यों वाली हिन्दुस्तान की लोकसभा में 272 का आँकड़ा सत्ता हासिल करने के लिए जरूरी है।

संसदीय लोकतंत्र में ऐसा कभी नहीं होता कि सत्ता के 'नंबर गेम' में जोड़-घटाव निरंक और निष्प्रभावी हो जाए, लेकिन वर्तमान राजनीति का 'एल्जेब्रा' गड़बड़ा रहा है। सारे जोड़-घटाव, गुणा-भाग शून्य पर आकर टिक रहे हैं, क्योंकि विश्वास की शून्यता का गुणा विश्वास के विरोध के आँकड़ों को शून्य बना रहा है। शून्य गुणा कोई भी आँकड़ा शून्य ही होता है। जाहिर है मनमोहनसिंह की सरकार जोड़-तोड़ करके 272 का आँकड़ा छू ले या 'लेफ्ट' के समर्थक सरकार को 260 के अंक तक घसीटकर गिरा दें या मायावती तीसरे मोर्चे की उम्मीदवार बनकर प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए मैदान में कूद पड़ें, जनता के बीच उसकी कीमत शून्य से ज्यादा भी नहीं होगी। भले ही राजनीति की मंडी में एक-एक सांसद पच्चीस-पचास करोड़ रु. में बिक रहा हो, लेकिन जनता के बाजार में उसकी कीमत 'जीरो' हो चुकी है।

सरकार रहे या जाए, लेफ्ट सफल हो या असफल, सरकार को 272 मत मिलें या 250, विश्वास हासिल हो या गँवाए, यह तय है कि सौ करोड़ जनता के आगे सभी राजनीतिक दल विश्वास का मत हार चुके हैं। शायद इस हाल का अहसास नेताओं को नहीं है। इसीलिए लालकृष्ण आडवाणी का चेहरा प्रधानमंत्री की कुर्सी देखकर सुर्ख है, मायावती की 'बॉडी लैंग्वेज' में राष्ट्रीय नेता की लोच-लचक और चमक दिखने लगी है। मनमोहनसिंह के चेहरे पर उदासी के भाव हैं, तो मुलायमसिंह घबराए से दिख रहे हैं। प्रकाश करात चहक रहे हैं तो शिबू सोरेन बहक रहे हैं। कुल जमा नेताओं के हाव-भाव से अलग जनता का चेहरा बुझा हुआ है।

राजनीतिक ड्रामे का हश्र चाहे जो हो, देश परेशान है। अब ऐसे शब्द नहीं बचे हैं, जिनके जरिए हस्तक्षेप करके सरकार, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, लेफ्ट, समाजवादी पार्टी अथवा अन्य किसी भी दल को राजनीतिक कुकृत्यों को अंजाम देने से रोका जा सके। अभी तक भ्रष्टाचार, बेईमानी जैसे मामलों में एक कहावत अक्सर सुनने में आती रही है कि 'हमाम में सभी नंगे हैं', लेकिन अब हम कह सकते हैं कि राजनीति में सभी नंगे हैं, वह भी सरेआम, किसी भी नेता या पार्टी के हाथ धुले नहीं हैं। (लेखक नईदुनिया के समूह संपादक हैं)

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