नाइन इलेवन की घटना के बाद से ही पाकिस्तान की लाल मस्जिद अमेरिका की आँख की किरकिरी बनी हुई थी। लाल मस्जिद अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों का एक सुरक्षित केंद्र था। छः महीने पहले शुरू हुए घटनाक्रम के बाद से लग रहा था कि इसका अंत ऐसा ही होगा और हुआ भी।
मौलाना अब्दुल अजीज और मौलाना अब्दुल रशीद की शह पर यहाँ मुशर्रफ का तख्ता पलटने की कवायदें की जा रही थीं। शायद इसीलिए किसी भी बहाने से इस मस्जिद से जुड़ी ताकतों को खत्म करना था, सो कर दिया, लेकिन बुझी हुई आग में दबी चिंगारियाँ कब शोलों का रूप धारण कर लें, इसकी संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
इस घटना के चौबीस घंटे भी नहीं गुजरे कि पूरे मुल्क (पाकिस्तान) में मुशर्रफ के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। कबाइली इलाके तो पहले से ही परवेज मुशर्रफ के खिलाफ थे, लेकिन अब लाहौर, कराची, मुलतान, हैदराबाद में भी इसका अच्छा-खासा असर दिखाई देने लगा है।
पहले लाल मस्जिद से जुड़ा सिर्फ एक मदरसा जामिया हफ्सा-जामिया फरीदिया मुशर्रफ से टक्कर ले रहा था लेकिन लाल मस्जिद की घटना के बाद पूरे पाकिस्तान के मदरसों ने एक साथ ऐलान कर दिया है कि अब और बर्दाश्त नहीं करेंगे।
वहीं पाकिस्तान की सैकड़ों मस्जिदों के इमामों ने भी मम्बरों से मुशर्रफ सरकार के प्रति नाराजगी जाहिर करते हुए 'लाल मस्जिद' घटना की निंदा की है। ऐसे में आने वाले चुनावों में क्या फिर परवेज साहब को पाकिस्तानी अवाम सत्ता में बैठने का मौका देगी? इस तरह के सैकड़ों सवाल लाल मस्जिद ने अपने पीछे छोड़ दिए हैं।
पाकिस्तान के सियासी पंडितों ने इस घटना को इतिहास की सबसे दुखद घटना बताते हुए इजहारे अफसोस करते हुए कहा है कि ये कोई आखिरी विकल्प नहीं था। किसी इस्लामी देश में मस्जिद की फजीहत पहले कभी नहीं हुई। कुछ सियासतदानों ने कश्मीर में हुए हजरत बल की घटना का हवाला देते हुए भारतीय फौजों की तारीफ भी की है।
हजरत बल की पवित्रता को कायम रखते हुए इसे आतंकवादियों से आजाद कर लिया गया था। शायद यही भारत और पाकिस्तान में फर्क है। बहरहाल मुशर्रफ साहब ने साबित कर दिया है कि वह एक तानाशाह हैं।
...तो दूसरी तरफ मौलाना अब्दुल अजीज (जिन्होंने बुर्का पहनकर फरार होने की हिमाकत की थी) और मौलाना अब्दुल रशीद गाजी (जो ऑपरेशन साइलेंस के दौरान हुई फायरिंग में मारे गए) थे। इन्होंने मस्जिद को अपनी जाती मिल्कियत (व्यक्तिगत संपत्ति) समझ लिया था। वे चाहते तो ऐसा नहीं होता।
यहाँ गाजी साहब का थोड़ा-सा जिक्र करते चलें। आखिर यह साहब कौन या क्या हैं? लाल मस्जिद के संस्थापक मौलाना अब्दुल्लाह जिनकी 1998 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, रशीद अब्दुल्लाह के छोटे पुत्र और लाल मस्जिद के नायब खतीब थे। इनका इस्लाम से सिर्फ इतना ही संबंध था कि ये एक मुस्लिम परिवार के सदस्य थे।
मस्जिद मदरसे और दाढ़ी से इन्हें चिढ़ थी। कायदे आजम यूनिवर्सिटी से पढ़कर वे एक आधुनिक जिंदगी जीना चाहते थे। शायद यही वजह थी, उनकी हर शाम शबाब की महफिलों में गुजरती थी।
यहाँ तक कि नाराज पिता ने अपनी वसीयत से भी रशीद को अलग कर दिया था। पिता की मौत के बाद इन्होंने दाढ़ी रख, बड़े भाई अब्दुल अजीज के साथ मुशर्रफ के खिलाफ चलाए अभियान में हिस्सा लेना शुरू किया।
जब 2004 में कबाइली इलाकों में फौजी ऑपरेशन हुए तो यहाँ मरने वाले फौजियों को 'लाल मस्जिद' से जारी फतवे में 'मृतक' और मारे गए कबाइलियों और तालिबान को शहीद कहा गया। बस यहीं से अब्दुल रशीद की मुशर्रफ सरकार से दुश्मनी पुख्ता हो गई।
लाल मस्जिद से मुशर्रफ सरकार को जो खतरे थे, उस पर इस घटनाक्रम से विराम नहीं लगा है, लेकिन अमेरिका जो कल तक मुशर्रफ से नाराज था, वह खुश हो गया है।
आने वाले चुनाव में अगर उन्हें अवाम नहीं भी चुनेगी तो उनके हाथ में तानाशाह का कोड़ा तो है, अमेरिका की मदद से उनकी सत्ता तो चलती रहेगी। रहा सवाल यह कि वे अवामी नाराजगी का बोझा कितनी दूर तक उठाकर चल पाएँगे।
पाक अवाम चीफ जस्टिस मामले में पहले से ही उनसे नाराज है। दूसरी तरफ पाकिस्तानी मीडिया को मुशर्रफ ने अपना जर खरीद गुलाम समझ रखा है। वह सिर्फ मियाऊँ... मियाऊँ ही कर सकता है। लेकिन यह सब कितने दिन, कितने साल तक चलेगा। सियासी पंडित मानते हैं कि मुशर्रफ लाल मस्जिद की घटना के बाद कितनी भी चापलूसी कर लें, उन्हें जनमानस में पैठ बनाने में भारी मुश्किलें पेश आएँगी।