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श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ निर्णायक जंग

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हमें फॉलो करें श्रीलंका में लिट्टे जंग
- प्रदीप कुमार दीक्षित

श्रीलंका में संघर्ष का दौर तेज हो गया है। श्रीलंकाई सेना द्वारा लिट्टे के ठिकानों को ढूँढ-ढूँढ कर ध्वस्त किया जा रहा है। उसके नेताओं को निशाना बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लिट्टे के कब्जे वाले इलाकों को मुक्त करवाया जा रहा है। लिट्टे ने भी आत्मघाती हमलों की संख्या बढ़ा दी है। इसकी चपेट में सुरक्षाकर्मी और आम नागरिक आ रहे हैं।

लिट्टे धन, शस्त्र और बाहुबल बढ़ा रहा है। फिर से संगठित होने का प्रयास
  पड़ोस में अशांति और वहाँ विदेशी ताकतों की उपस्थिति से भारत की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लग सकती है। शरणार्थियों का बोझ वह ढो ही रहा है। इसलिए वह श्रीलंका की जातीय समस्या को सुलझाने की पहल कर चुका है      
कर रहा है। बच्चों को भी शस्त्र उठाने के लिए तैयार कर रहा है। लिट्टे के साथ संघर्ष विराम टूटने के बाद श्रीलंकाई सेना ने निर्णायक जंग छेड़ दी है। सरकार और लिट्टे एक-दूसरे को ठिकाने लगाने के इरादे जाहिर कर रहे हैं।

देश में अराजकता बढ़ गई है। आम आदमी की जान जोखिम में है। जातीय युद्ध के चलते देश में आबादी के बड़े भाग को अपने गाँव-कस्बों से पलायन कर शरणार्थी शिविरों में रहना पड़ रहा है। काफी बड़ी संख्या में लोग अपने ही देश में शिविरों में रहने पर मजबूर हैं। वे जैसे-तैसे परेशानियों से जूझते हुए अपने दिन बिता रहे हैं। हजारों की संख्या में तमिलभाषी श्रीलंका से पलायन करके भारत पहुँचे हैं।

इनमें से अधिकांश तमिलनाडु में रह रहे हैं। जातीय हिंसा का आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ा है। श्रीलंका विश्व में सबसे बड़ा चाय निर्यातक देश है। रबर का निर्यात भी काफी करता है। जातीय हिंसा की वजह से पर्यटन की आय प्रभावित हुई है। यदि देश में गृहयुद्ध की स्थिति नहीं होती तो यह आर्थिक रूप से काफी मजबूत होता। चाय और रबर निर्यात ने ही इसे दरिद्रता की स्थिति में फँसने से बचाया है।

श्रीलंका में अल्पसंख्यक तमिल और बहुसंख्यक सिंहली मिल-जुल कर रहते थे। दोनों के बीच किसी तरह का कोई विवाद नहीं था। सिंहलियों, तमिलों, मुस्लिमों और ईसाइयों को एक-दूसरे से कोई समस्या नहीं थी। अँगरेज 1948 में राज छोड़कर गए तो सिंहलियों और तमिलों के बीच फूट के बीज बो गए। दोनों समुदायों के बीच समस्याएँ सुलझाने की कोशिशें चलती रहीं लेकिन बात नहीं बनी।

तमिलों की स्वतंत्र राष्ट्र या स्वायत्तशासी प्रदेश की माँग सिंहलियों को हजम नहीं हुई। तमिल उग्रवादियों ने 1983 में 13 सिंहली सैनिकों की हत्या कर दी। इसके बाद तो देश गृहयुद्ध की आग में जलने लगा। हमलों और जवाबी हमलों के दौर चलते रहे, समझौता वार्ताएँ होती रहीं, संघर्ष विराम होते-टूटते रहे, सरकार और उग्रवादियों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों के दौर चलते रहे लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है। तमिल और सिंहलियों दोनों के पूर्वज भारत से गए थे। तमिल हिन्दू और सिंहली बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।

पड़ोस में अशांति और वहाँ विदेशी ताकतों की उपस्थिति से भारत की सुरक्षा
  लिट्टे के पास तमिलभाषी जवानों की समर्पित फौज है। उसने कुछ छोटे युद्धपोत और कुछ लड़ाकू विमान भी हासिल कर लिए हैं। वह श्रीलंका की नौसेना पर हमला करता रहा है      
व्यवस्था में सेंध लग सकती है। शरणार्थियों का बोझ वह ढो ही रहा है। इसलिए वह श्रीलंका की जातीय समस्या को सुलझाने की पहल कर चुका है। श्रीलंका सरकार से चर्चाओं के दौर समझौते के बाद वहाँ 1987 में भारतीय शांति सेना भेजी गई थी।

उसके हाथों हजारों तमिल उग्रवादी मारे गए। लेकिन उसे अपने उद्देश्य में आंशिक सफलता ही मिली और वह वापस लौट आई। लिट्टे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के खून का प्यासा हो गया। अंततः उसने भारत में राजीव गाँधी की हत्या कर दी। इस तरह भारत ने श्रीलंका में जातीय हिंसा के चलते बड़ी कीमत चुकाई।

लिट्टे का शिकार बने श्रीलंका के नेताओं की तो एक बड़ी सूची है। इनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायके, विदेश मंत्री लक्ष्मण कादिरगमार, राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी विजयकुमार तुंग, मजदूर नेता अमृतलिंगम,विपक्ष के नेता ललित अतुलत मुदाली व गामिनी दिशानायके, सांसद नीलम तिरुचेल्वम, उद्योग एवं विकास मंत्री सीवी गुणरत्ने, ईलम पीपुल्स रिवोल्यूशनरी लिबरेशन फ्रंट के नेता थांबी राजा सुवारतन शामिल हैं। देश में नेताओं पर आत्मघाती हमलों और उनकी हत्या का दौर चलता आ रहा है। इससे उनकी जान जोखिम में बनी रहती है। लिट्टे ने सेना के अधिकारियों और न्यायाधीशों को भी अपना निशाना बनाया है।

श्रीलंका में उग्रवादी संगठनों की संख्या भी अच्छी-खासी है। इनमें लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई या लिट्टे), ईलम पीपुल्स रिवोल्यूशनरी लिबरेशन फ्रंट,तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट, तमिल ईलम लिबरेशन आर्गेनाइजेशन, ईलम नेशनल डेमोक्रेटिक लिबरेशन फ्रंट, पीपुल्स लिबरेशन आर्गेनाइजेशन ऑफ तमिल्स, ईलम रिवोल्यूशनरी आर्गेनाइजेशन ऑफ स्टूडेंट्स, तमिल नेशनल आर्मी आदि शामिल हैं। इन उग्रवादी संगठनों में वर्चस्व के लिए खूनी संघर्ष भी होता रहा है। इसमें लिट्टे ने अपनी बढ़त बना रखी है। सिंहली उग्रवादियों का मुख्य संगठन जनता विमुक्ति पेरामुना है।

लिट्टे के पास तमिलभाषी जवानों की समर्पित फौज है। उसने कुछ छोटे युद्धपोत और कुछ लड़ाकू विमान भी हासिल कर लिए हैं। वह श्रीलंका की नौसेना पर हमला करता रहा है। वह सन्‌ 2001 में सेना के प्रमुख हवाई अड्डे पर हमला करके लगभग आधे लड़ाकू विमानों को बेकार कर चुका है। वह सेना के हवाई अड्डे पर हवाई हमला भी कर चुका है। उसे विदेशों में रहने वाले तमिल भाषियों से आर्थिक और अन्य सहायता मिलती रहती है।

उसे श्रीलंका की तमिलभाषी जनता का समर्थन प्राप्त है। लेकिन एक देश की संगठित सेना से मुकाबला करने की उसकी ताकत नहीं के बराबर है। उसके लड़ाके यहाँ-वहाँ आत्मघाती हमला करके सरकार को चौंका तो सकते हैं, कुछ क्षति पहुँचा सकते हैं लेकिन उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें यह बात समझना होगी वरना उनका अस्तित्व ही संकट में आ जाएगा और वे तमिल जनता की सहानुभूति खो देंगे।

श्रीलंका सरकार को भी उग्रवादियों को तमिल जनता से अलग-थलग करके तमिलों को विश्वास में लेना होगा। उसे तमिल जनता को साथ में लेकर चलना होगा। सैनिक कार्रवाई में सफलता मिलने की स्थिति में भी जब तक उसे तमिल नागरिकों का सहयोग नहीं मिलेगा तब तक जातीय समस्या का हल निकलने की संभावना क्षीण है।

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