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सत्ता और संगठन में संतुलन की चुनौती

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आलोक मेहता

'मैं समझता हूँ कि कांगेस संगठन को सावधानीपूर्वक एकनिष्ठा से चलाने की आवश्यकता है। प्रांतों में न केवल कांग्रेसजनों के मध्य बल्कि कांग्रेस कमेटी और कांग्रेस सरकार के बीच भी परस्पर विरोध और गुटबाजी देखने को मिलती है। कुछ मामलों में इस विरोध का समाधान या तो कांग्रेस कमेटी का प्रभुत्व हासिल करने और सरकार बदलने से होता है या मंत्रिमंडल के शक्तिशाली नेता कांग्रेस संगठन को चलाने लगते हैं। मैं नहीं समझता कि इन दोनों में से कोई भी स्थिति संतोषजनक है। यदि कांग्रेस संगठन को सरकार से अभिन्न समझा जाता है या सरकार की पहचान कांग्रेस संगठन के रूप में होती है तो भविष्य के लिए खतरा हो सकता है।'

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ये बातें कांग्रेस के किसी शीर्ष नेता ने आज नहीं कही हैं। कांग्रेस की आंतरिक खींचातानी पर आजादी के लगभग एक साल बाद 22 सितंबर, 1948 को वरिष्ठ नेता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सरदार वल्लभभाई पटेल को पत्र लिखकर अपनी चिंता व्यक्त की थी।

कांग्रेस इस 28 दिसंबर को अपनी स्थापना की 125वीं वर्षगाँठ मनाने जा रही है और अब राजेंद्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल जैसे नेता नहीं हैं तथा चुनौतियाँ उस समय से भी अधिक हैं लेकिन इस बात पर हायतौबा नहीं होनी चाहिए कि कांग्रेस की हालत ऐसी कभी नहीं थी। नेताओं के बीच टकराव, प्रदेशों में वर्चस्व की लड़ाई पहले भी रही है।

यह अवश्य कहा जा सकता है कि तब वैचारिक मतभिन्नाता रहते हुए व्यक्तिगत कटुता अधिक नहीं होती थी। सबको कांग्रेस पार्टी के साथ अपनी सरकार की सफलता, घोषणाओं और वादों के क्रियान्वयन की चिंता, सांप्रदायिक तत्वों से संघर्ष तथा गाँवों और गरीबों के उत्थान की चिंता अधिक रहती थी। कांग्रेस संगठन के किसी दायित्व को कमतर नहीं आँका जाता था और सरकार में बैठे मंत्री पार्टी पदाधिकारी की राय, सलाह, सिफारिश को गंभीरता से लेकर यथासंभव अनुपालन का प्रयास करते थे।

पं. नेहरू ने 1952 के पहले चुनाव में लालबहादुर शास्त्री को चुनाव प्रबंधक के रूप में चुना तथा उन्हें कांग्रेस महासचिव नियुक्त किया। शास्त्रीजी ने संगठनात्मक क्षमता साबित की और फिर सांसद, मंत्री तथा प्रधानमंत्री के रूप में आदर्श स्थापित किए। सत्ता और संगठन को समान महत्व देने का प्रमाण इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आंतरिक कलह के कारण कांग्रेस के कमजोर होने का खतरा बढ़ने पर 1963 में कामराज योजना के तहत शास्त्रीजी ने सबसे पहले मंत्री पद से त्यागपत्र दिया और संगठन का काम करने लगे।

पं. नेहरू के आकस्मिक निधन के बाद प्रधानमंत्री का दायित्व मिलने पर शास्त्रीजी ने गाँवों और गरीबों की दशा सुधारने के अभियान को ही अधिक महत्वपूर्ण माना। शास्त्रीजी ने कहा कि यह सत्य है कि मैं पूर्णतः शत-प्रतिशत आधुनिक व्यक्ति नहीं हूँ। मैं कुछ हद तक कई मामलों में रूढ़िवादी हूँ। चूँकि मुझे ग्रामीण क्षेत्रों में एक मामूली कार्यकर्ता के रूप में लगभग 50 वर्षों तक कार्य करना पड़ा है इसलिए मेरा ध्यान स्वतः ही उन लोगों तथा उन क्षेत्रों की हालत पर चला जाता है। मेरे दिमाग में यही बात आती है कि सबसे पहले उन लोगों को राहत दी जाए। हर रोज, हर समय मैं यही सोचता हूँ कि उन्हें कैसे राहत मिले।

नेहरू-शास्त्री की राह पर ही इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी ने ग्रामीण क्षेत्रों की हालत समझने और सुधारने पर अधिक ध्यान दिया। इस दृष्टि से राहुल गाँधी का लगातार गाँवों में जाना, गरीबों की बात सुनना-समझना, झोपड़ी में रात बिताना निश्चित रूप से उनके तथा संगठन के लिए बहुत उपयोगी है। अन्यथा 1991 से अपनाई गई उदारवादी अर्थव्यवस्था और बदली राजनीतिक परिस्थितियों में जमीन से कटे अफसरनुमा थोपे गए नेताओं के कारण विभिन्न राज्यों में कांग्रेस कमजोर हुई है।

झारखंड विधानसभा के ताजे चुनाव परिणाम पर कांगे्रस थोड़ा संतोष भले ही व्यक्त कर ले लेकिन असली कारण सीमित विकल्प और प्रतिपक्ष का कमजोर होना...
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कांग्रेस संगठन और सत्ता में अनुभवी और जमीन से जुड़े नेताओं का वर्चस्व रहने पर प्राथमिकताएँ सही तय होती हैं। आज देश में महँगाई और वितरण व्यवस्था को लेकर कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को तीखी आलोचना झेलनी पड़ रही है इसीलिए कांग्रेस संगठन का एक वर्ग खुलकर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है।

1965 में सचमुच देश में अनाज का संकट था। पं. नेहरू के बिना कांगे्रस संगठन और सरकार के समक्ष गंभीर चुनौती थी। फिर भी 1965 के दुर्गापुर अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के. कामराज के नेतृत्व में सार्वजनिक रूप से सरकार की कमियों को रेखांकित करते हुए प्रस्ताव पारित कर कहा गया कि देश में अनाज वितरण की समेकित योजना बनाई जाए। केंद्र तथा राज्य सरकारों को अनाज के वितरण की समस्या को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।

इसी तरह 1967 में श्रीमती इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते हुए जयपुर के कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर सलाह दी गई कि सरकार उर्वरक, कीटनाशक दवाओं, अच्छे किस्म के बीज तथा तकनीकी सेवाएँ किसानों को उपलब्ध कराए। ग्रामीण विकास के व्यापक कार्यक्रम प्रारंभ किए जाने चाहिए ताकि गाँवों में रहने वाले बेरोजगारों को रोजगार के अधिकाधिक अवसर मिल सकें। यह प्राथमिकता आज भी बरकरार है।

सोनिया गाँधी और मनमोहनसिंह की सरकार ने ग्रामीण विकास के व्यापक कार्यक्रम बना दिए हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन, व्यावहारिक कठिनाइयों अथवा गड़बड़ियों को बता सकने वाला संगठनात्मक ढाँचा बहुत कमजोर है। पिछले वर्षों के दौरान संगठन को मजबूत रखने के कारण आंध्रप्रदेश में कांग्रेस के लिए पुनः सत्ता पाना आसान हुआ, वहीं बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस कमजोर होती चली गई।

झारखंड विधानसभा के ताजे चुनाव परिणाम पर कांग्रेस थोड़ा संतोष भले ही व्यक्त कर ले लेकिन असली कारण सीमित विकल्प और प्रतिपक्ष का कमजोर होना रहा है। कांग्रेस पार्टी के सुलझे हुए नेता बंद कमरे में कमजोरियों को स्वीकारते हैं लेकिन प्रदेश और राष्ट्रीय स्तरों पर कार्यकर्ता अधिवेशन आयोजित कर आलोचना के अवसर नहीं दिए जाते।

यदि पार्टी के वरिष्ठ नेता, प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री इत्यादी मंच के सामने कार्यकर्ताओं की पंक्ति में बैठकर संगठन, समाज, सरकार और देश की कमजोरियों को सुनने-समझने का प्रयास करें तो सही अर्थों में संगठन और सत्ता का संतुलन बन सकता है। आखिरकार नेहरू, शास्त्री और इंदिरा गाँधी जैसे प्रभावशाली प्रधानमंत्री कांग्रेस अधिवेशनों में हर तरह की खरी-खोटी सुन लेते थे।

राजीव गाँधी ने पार्टी की दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेताओं-कार्यकर्ताओं का एक तंत्र 'विकास केंद्र' के नाम से विकसित किया और हर जिले से गड़बड़ियों और सफलताओं का विवरण नियमित रूप से इकट्ठा करवाया। इससे संगठन और सरकार दोनों को लाभ हुआ। बाद के वर्षों में सरकार की आलोचना को विरोधी पक्ष का साथ देना समझा जाने लगा।

इसी तरह राज्यों में संगठन भी सरकार आश्रित रहने लगे। इससे विभिन्न राज्यों में सुशिक्षित-अनुभवी मुख्यमंत्री और सही कार्यक्रमों के बावजूद क्रियान्वयन की गड़बड़ियों तथा चरमराए संगठन के कारण कांग्रेस कुछ ही राज्यों में अपनी सरकारें कायम रख सकी तथा केंद्र में चाहे-अनचाहे गठबंधन करने पड़े। शायद सोनिया-राहुल अब उसी संगठनात्मक ढाँचे को नए सिरे से खड़ा करने का ताना-बाना बुन रहे हैं। पार्टी 125 वर्ष पुरानी भले ही हो गई हो, नए खून और नए संकल्पों के बल पर ही उसका भविष्य बन सकेगा।

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