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समाज के लिए क्यों घातक है लिव इन रिलेशनशिप

-प्रो. डॉ. एनआर लबाना

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लिव-इन रिलेशनशिप अनैतिक और अमानवीय है इसलिए हमारी संस्कृति के विरुद्ध है। यदि विवाह जैसे रहना ही है, तो फिर विवाह ही क्यों नहीं कर लेते हैं।

लड़के-लड़कियों को एक-दूसरे को देखने और बात करने का अवसर रहता है, उसके बाद ही विवाह होते हैं तो साथ रहने की क्या आवश्यकता है।

फिर इसकी क्या गारंटी है कि साथ रहने के बाद धोखा नहीं होगा। आजकल वैध विवाह के बाद भी कई युवतियां दहेज यातना, प्रताड़ना, क्रूरता और घरेलू हिंसा का शिकार ही नहीं हैं, बल्कि उनको जला भी दिया जाता है, मार दिया जाता है, विभिन्न कानूनों के बावजूद लोगों में भय नहीं है।

ऐसे नैतिक पतन के वातावरण में लिव-इन रिलेशनशिप (साथ-साथ) में रहने वाली युवती के प्रति क्या नहीं हो सकता है? इनमें से अक्सर युवतियां धोखा ही खाती हैं, उनके प्रति होने वाले दुराचार, बलात्कार, ठगी, लूट और धोखा देने के कई उदाहरण मिलते हैं। इस विदेशी अंधानुकरण के उच्छृंखल आचरण से कई पाप पननेंगे।

यदि लिव-इन रिलेशनशिप ने प्रथा का रूप ले लिया तो यह हमारी संस्कृति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इस आचरण से निपटने के लिए कोई कानून भी नहीं है। कई उदाहरण हैं, जिनमें साथ-साथ रहने के कारण महिलाएं गर्भवती हो जाती हैं और फिर उनको भगा दिया जाता है। वे दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाती हैं। कोई उनको अपनाता नहीं, कलंक की शिकार हो जाती हैं। उनके बच्चों की पैतृकता, उत्तराधिकार और क्षतिपूर्ति की समस्या पैदा हो जाती है। भरण-पोषण और रोजगार की मोहताज हो जाती है। इस प्रथा से भविष्य में कई विकट समस्याएं पैदा होंगी।

सर्वोच्च न्यायालय का अभिमत- एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशन पर 29 नवंबर 2013 को अपने निर्णय में कहा कि लिव-इन रिलेशन को न तो अपराध माना जा सकता है और न पाप माना जा सकता है। किंतु इसको वैधानिक भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि कोई कानून नहीं है और न इसे नैतिक माना जा सकता है। इसके कई दुष्परिणाम हुए हैं और भविष्य में कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं इसलिए इसको प्रथा नहीं बन जाना चाहिए।

लिव-इन रिलेशन में धोखा खाने का एक इंदिरा नाम की महिला का मामला न्यायालय के सामने आया। इस मामले में 18 साल तक साथ-साथ रहने के बाद उसे त्याग दिया। महिला का सब कुछ खत्म हो गया, घर टूट गया।

इंदिरा ने बेंगलुरु की अदालत में घरेलू हिंसा कानून में वाद दायर किया और क्षति‍पूर्ति मांगी। न्यायालय ने 18 हजार रु. महीना भत्ता मंजूर किया था। तब इस निर्णय के विरुद्ध पुरुष ने सत्र न्यायालय में अपील की, सत्र न्यायालय ने अपील खारिज कर दी, तब मामला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में गया, तब वहां भी कोई राहत नहीं मिली। अधीनस्‍थ न्यायालय का फैसला रद्द कर दिया। पुरुष के पूर्व से विवाहित होने और वैध विवाह नहीं होने के कारण महिला को सिसकियां ही हाथ लगीं।

लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता नहीं होने से महिला दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश हो गई। समाज ने भी स्वीकार नहीं किया। उसके बच्चे का भविष्य अंधकारमय हो गया। अनुच्छेद 21 के जीवन के अधिकार ने भी भरण-पोषण की राहत नहीं दी।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश- उपर्युक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप की प्रथा के दुष्परिणामों के कारण यह निर्देश दिया कि 'लिव-इन रिलेशन' में रहने वाली महिलाओं का संरक्षण करने के लिए संसद को कानून बना देना चाहिए। लिव-इन रिलेशनशिप को वैध विवाह की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, किंतु साथ-साथ रहने के कारण ऐसी मह‍िलाओं और उनके बच्चों को भरण-पोषण का अधिकार देने का कानून बना देना चाहिए।

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