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सुनो, छोटी-सी गुड़िया की लंबी कहानी

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अजातशत्रु

बहुत लिखा जा चुका है गायिका लता मंगेशकर पर। शास्त्रीय संगीत के शलाका-पुरुषों से लेकर छोटे-से अखबार के एक संकोची पत्रकार तक ने... अपने ढंग से लता के गायन और उसके प्रभाव पर, सोचा है और अपनी भाषा गढ़ी है।

मगर विशेषणों की सारी फौज, उक्ति-वैचित्र्यों की तमाम बरसात और फंतासी भाषा की समस्त उड़ान के बावजूद लता-इफेक्ट इससे ज्यादा कुछ नहीं कहने देता कि लता की सुमधुर आवाज... प्रकृति का आश्चर्य है कि लता के गायन की सूक्ष्मता और भारी अपील... हैरानी से गूँगा कर देने वाली है।

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और यह कि कुछ तो है अतिमानवीय और दैवी स्पर्श-सा उनके गायन में, कि उसे महसूस करके हम अपनी आत्मा में उठते हैं, पुलकित होते हैं, लड्डू-सा बिखरते हैं। और फिर उस पावन, मिस्टीकल टच को बखानना हो तो भाषा तंग पड़ने लगती है और हमारा हर विशेषण आजमाइश को फेल कर देता है।

लता को सुनिए, भावविभोर होइए, एक सन्नाटे में कीलित होकर चुपचाप खिड़की के बाहर देखने लगिए। इससे कम और ज्यादा आप कुछ नहीं कर सकते। वे याद दिलाती हैं कि ईश्वर अमूर्त है। पर ईश्वर को ही कभी सूझी होगी कि मैं अपार्थिव माधुर्य, असीम भाव-अपील और गायन के बोलों में विचार की सी कठिन जटिलता और सूक्ष्मता के रूप में मूर्तिमान होऊँ।

वे ईश्वर की याद दिलाने के लिए सिरजी गई 'मिस्ट्री' हैं, जो समझ आती हैं और फिर समझ के पार चली जाती हैं। वे सूक्ष्मता, माधुर्य और घनीभूत भावना के ऐसे (करीब-करीब) जीरो-फाउंडेशन से गाती हैं कि इन कुछ मिसालों पर दिल-दिमाग को पक्षाघात-सा हो जाता है
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और फिर वह लता नामक देह में बदला और नश्वर इंसानों के लिए एक नजीर दे गया कि उसके असीम पावित्र्य, असीम सौंदर्य और असीम आनंदधनता का एक आयाम, कैसा हो सकता है?

लता के मार्फत आस्तिकों के ईश्वर और नास्तिकों की आध्यामिकता का ही एक प्रबल अंश, अनोखे की हद तक गया हुआ विकट अंश, नश्वरों को अपने बीच दैवी प्रसाद-सा उपलब्ध होता है।

लता केवल गायिका नहीं हैं। वे ईश्वर की याद दिलाने के लिए सिरजी गई 'मिस्ट्री' हैं, जो समझ आती हैं और फिर समझ के पार चली जाती हैं। वे सूक्ष्मता, माधुर्य और घनीभूत भावना के ऐसे (करीब-करीब) जीरो-फाउंडेशन से गाती हैं कि इन कुछ मिसालों पर दिल-दिमाग को पक्षाघात-सा हो जाता है।

* 'आज सोचा तो आँसू भर आए' देखिए कि यहाँ आवाज का ठहराव, अनुभूति की डूब और पत्थर की सी एकाग्रता कितनी गजब है। समूचा गीत यूँ पहाड़-सा सरकता चलता है, जैसे वेदना की आग में तपकर एक लाल-भम्म सलाई हमारे सीने को दागती चली जा रही हो। गीत क्या है! वेदना का खिसकता हुआ पाताल है।

* 'साँवरे, साँवरे, काहे मोसे करो जोरा जोरी' (अनुराधा) पर गौर कीजिए' गीत के अंत में रविशंकर का सितार तीव्र द्रुत में चला जाता है। इधर तार का स्वर कोबरा-सा भागता है और उधर लता भी उतनी विलक्षण तेजी से इस बिजली-दौड़ का साथ देती हैं।

कहाँ भागते सितार की 'अमानवीय' चपल ध्वनि और कहाँ एक इंसान-गायिका का इंसानी गला! मगर सितार की कोबरा-दौड़ के साथ लता अपनी आवाज मिला देती हैं और वैसी ही सर्पीली मुरकियाँ लेती चली जाती हैं यानी गले का माँस जैसे पिघलकर सितार का सेन्सेटिव स्वर हो गया। इसे महसूस करके अवाक्‌ ही रहा जा सकता है।

* 'हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल का' वाले गीत को सुनिए। और यह सोचकर सुनिए कि आप 49-50 के दौर में हैं और अब तक नूरजहाँ, जोहराबाई अंबालेवाली, अमीरबाई कर्नाटकी, शमशाद बेगम और सुरैया वगैरह को सुनते रहे हैं।

एक लंबा अतीत टूटता है और एक अलहदा फूल खिलता है। ताजे, निर्मल झरने सी बहती यह खलखल आवाज। एक शाश्वत, अक्षत यौवन से भरपूर यह स्वर। एक चटक, एक रंग, एक फैलाव, जैसे आसमान से गुलाब जामुन का तारा टूट पड़ा
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एक नई आवाज, जो किसी लता मंगेशकर की हो सकती है, का आपको अता-पता नहीं है। तभी उन दिनों यह आवाज आपके कानों पर पड़ती है। एक लंबा अतीत टूटता है और एक अलहदा फूल खिलता है। ताजे, निर्मल झरने सी बहती यह खलखल आवाज। एक शाश्वत, अक्षत यौवन से भरपूर यह स्वर। एक चटक, एक रंग, एक फैलाव, जैसे आसमान से गुलाब जामुन का तारा टूट पड़ा। यह आवाज सिर्फ एव्हरफ्रेश और मधुर नहीं थी, बल्कि उसमें एक अछूतापन था।

ऐसा अछूतापन, जैसे संसार की तमाम बदबू और खुशबू के बीच एक आवाज है, जिसे बदबू और खुशबू दोनों नहीं छूते, क्योंकि वह एक न्यूट्रल, निरपेक्ष, तीसरी आवाज है, जो इंसान और देवता की नहीं, बेदाग आसमान से टपका बेदागनूर है, जो चमककर वापस अपने स्रोत में समा जाएगा। धरती उसने छू नहीं। बस धरती से गुजर गया।

मैं लताजी से दो बार मिला हूँ। टीवी के परदे पर उन्हें देखा है। उनकी भिन्न-भिन्न मुद्राओं वाली तस्वीरों का अध्ययन किया है। इसी के साथ उनका घर-परिवार देखा है और घर में उनकी उपस्थिति कैसी होती है, इसका बहुत बारीकी से नोट लिया है
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खुद लता इस बात को जानती थीं, और यही वजह है कि जब वे सिनेमा में आईं, तो पूरी तरह आश्वस्त थीं। उनके प्रखर स्वाभिमान का आधार यही आत्म-विश्वास था। इसी के दम पर उन्होंने खेमचंद प्रकाश से कहा था कि 'महल' वाला 'डल' गाना- 'आएगा, आएगा,' -फिल्म में रहने दीजिए। वह सुपरहिट साबित होगा। वैसा हुआ भी। बस लता को लता के अलावा सबने देर से जाना।

पलटकर नहीं देखा : ईश्वर में लता की श्रद्धा शुरू से प्रगाढ़ रही! ईश्वरीय विश्वास ईश्वरीय कृपा का ही दूसरा नाम है! लता को ठीक-ठीक समझना तभी संभव है, जब आप रामकृष्ण परमहंस या रमण महर्षि जैसे संतों को समझ जाएँ! कोरा तर्क अभागा होता है- दर्प वह चाहे जितना कर ले।

विशुद्ध भारतीय नारी : इतना सब लिख गया न चाहते भी। कल इंदौर के दोस्तों में बातचीत हुई थी कि इस बार लता के गानों पर या लता के गायिका-रूप की चर्चा न करते हुए लता को महज एक नारी के रूप में समझा जाए।

मैं लताजी से दो बार मिला हूँ। टीवी के परदे पर उन्हें देखा है। उनकी भिन्न-भिन्न मुद्राओं वाली तस्वीरों का अध्ययन किया है। इसी के साथ उनका घर-परिवार देखा है और घर में उनकी उपस्थिति कैसी होती है, इसका बहुत बारीकी से नोट लिया है।

घर पर, विचारों में और अन्यथा भी वे हमारी पुरातन, गौरवमयी भारतीय संस्कृति की विशुद्ध भारतीय नारी लगती हैं। उनका एक बहुत पुराना चित्र है, जिसे एचएमवी ने पचास-पचपन के दौर में बतौर विज्ञापन जारी किया था। लता ने तब आग्रह किया था कि वे तस्वीर में माथे पर पल्ला रखकर चित्रित होना चाहती हैं। इसके बाद फिर माथे पर बड़ी-सी गोल बिंदी और हल्का सा पल्ला - इसी रूप को लेकर चित्र जारी हुआ।

एचएमवी ने पचास-पचपन के दौर में बतौर विज्ञापन जारी किया था। लता ने तब आग्रह किया था कि वे तस्वीर में माथे पर पल्ला रखकर चित्रित होना चाहती हैं। इसके बाद फिर माथे पर बड़ी-सी गोल बिंदी और हल्का सा पल्ला - इसी रूप को लेकर चित्र जारी हुआ
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इस तस्वीर को देखकर सुकून मिलता है, सद्भाव जागते हैं और एक सांस्कृतिक आश्वस्ति की अनुभूति होती है। यह भी देखिए कि लता का चेहरा, प्रोफाइल और खड़े होने पर समूचा शरीर सदा फोटोजेनिक रहा है।

संवेदनशील व्यक्तित्व : लताजी के कठिन, ऐतिहासिक गानों के परफेक्शन का राज यह है कि वे खुद के प्रति क्रूर (अन्स्पेयरिंग) होने की हद तक स्वाभिमानिनी हैं। 'आई मस्ट नाट बी रिडिक्यूल्ड' मगर यह सब इस मुख्य तथ्य से हटकर कि गायन की प्रतिभा वे ईश्वर के यहाँ से लेकर चली हैं।

दूसरी अजब बात यह है कि लताजी देखने में एकदम सामान्य हैं। मगर भीतर ही भीतर बेहद संवेदनशील हैं। किसी चीज को समझाती हैं तो उनका चेहरा जीवंत हो पड़ता है। सूक्ष्म को पकड़ने के लिए उनकी आँखें सिकुड़ जाती हैं, चेहरे की त्वचा चमक उठती है, और उनके नासिका-केश (नास्ट्रिल) तक काँपने लगते हैं।

फिराक ने कहीं पर 'सोचता हुआ बदन' शब्द इस्तेमाल किया है। तो, विचार में डूबी लता उसी तरह सोचता हुआ जीवंत बदन होती हैं और उस वक्त उनकी बढ़ी हुई उपस्थिति से कमरा चार्ज्ड हो उठता है। कमरे में जैसे फिर वे अकेली रह जाती हैं और उसके सारे डिटैल्स उनकी बोलती हुई खामोशी में गुम हो जाते हैं।

गरज कि उनके जीवंत और मर्मस्पर्शी गायन का यही राज है कि उनमें भीतर तक उतर जाने का गुण अद्भुत है और उनकी प्रखर संवेदनशीलता फिर शब्द को आग या बर्फ में 'प्रमोट' कर देती है
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यह बात मैंने तब महसूस की थी, जब 'ऐ दिलरुबा नजरें मिला' (फिल्म रुस्तम सोहराब) वाले गाने पर उनसे सघन बातचीत कर रहा था। गहरी बात करते करते उनमें 'गायब हो जाने' की क्षमता अद्भुत है। और इसी से अंदाज लगा कि उनका गाना जीता जागता...विजुवल कैसे हो जाता है। यानी बिना भीतर डूबे अंतरदृष्टि की लौ तेज होती है और न शब्दार्थ चित्र में बदलता है।

गरज कि उनके जीवंत और मर्मस्पर्शी गायन का यही राज है कि उनमें भीतर तक उतर जाने का गुण अद्भुत है और उनकी प्रखर संवेदनशीलता फिर शब्द को आग या बर्फ में 'प्रमोट' कर देती है।

मजा यह है कि देखने-सुनने में लता ऐसा कोई आभास नहीं देतीं। मगर उनके कंठ के नीचे एक बहुत बड़ी गुफा है जहाँ उजाला ही उजाला है और इस आर्च सर्चलाइट में शब्द का रोम-रोम 'टाइट क्लोज-अप' में आकर दमक उठता है।

उनके घर में उन्हें सुनना, उनके पास बैठना, एक परा-ऊर्जा के संपर्क में आना है। वे सोफे पर एक जगह बैठी हुई सारा घर घेर लेती हैं। उस संवेदनशील, गुप्त ऊर्जा तक घर का कोई शख्स नहीं पहुँचता। स्त्री होकर एक अकेली मर्द हैं वह यहाँ।

दोबारा लता नहीं बनना : लता ने कभी कहा था कि वह दोबारा लता नहीं होनी चाहेंगी। पर ऐसा उन्होंने एक सांसारिक व्यक्ति की सांसारिक पीड़ा से नहीं कहा होगा। ऐसा इसलिए कहा होगा कि भक्त का जीवन भी एक अलौकिक पीड़ा से गुजरता है और दैवी प्रसाद के बोझ का ढो जाना सार्थकता-बोध के आनंद से अधिक सांसारिक तौर पर टूट जाने या अनेक छोटे-छोटे सुखों से महरूम हो जाने की तीखी कसक को भुगतना है।

लता को समझना, एक मीरा को समझना और एक परमात्मा को समझना एक ही बात है। इनमें से किसी का अंत नहीं। अंत है तो हमारे तर्क का, हमारी भाषा का, हमारी जिदभरी आइडियोलॉजियों का और अंत में स्वयं को प्राप्त हो जाने का।

लता भगवान को गाकर परम संगीतमय मौन में बिला जाना चाहती हैं। हम लता को समझकर कुछ हद तक अपने को समझ लें, जो आंशिक तौर पर परमात्मा को समझना है। यह थी...'एक छोटी-सी गुड़िया की लंबी कहानी।'

उनकी जिंदगी में सिर्फ दो पुरूष : लताजी की एक विशेषता मुझे अभिभूत कर गई। वह यह कि उनके पास बैठिए और वे चुप भी हों तो, ऐसा लगता है मानो आप बेहद समझदार इंसान के पास बैठे हैं। इतना समझदार कि आपके पास शब्द न हों, आप हड़बड़ा जाएँ, चाहते न चाहते कुछ का कुछ कह बोल जाएँ, या आप निष्कपट हैं और आपसे कोई बेइरादा गलती हो जाए, तो बड़ी उदारता से उसे समझ लेंगी और इस तरह टाल जाएँगी, जैसे आपको माफ करके छोटा बनाने का दुःख भी नहीं होने दिया।

लता की जिन्दगी में केवल दो पुरुष हैं। उनके दिवंगत पिता दीनानाथ मंगेशकर और भगवान कृष्ण के रूप में परमात्मा, जिनसे वे कभी ऊबर नहीं पाईं और जिनके लिए वे, बालपने से लेकर आज तक, खामोश, डबडबाई आँखों का जीवन जीती रही हैं
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यह सब वे चुपचाप कर जाती हैं और शरीर की किसी हरकत से जाहिर नहीं करती। यह लता का लता होना नहीं है, बल्कि किसी बूढ़े, समझदार योगी का सब कुछ से तटस्थ एक विराट तन्हाई होना है। यहाँ न वे औरत हैं, न मर्द हैं, बल्कि अपने से भी विरक्त, विराट परमात्मा को सौंपा हुआ, अकेलापन है, जो किसी मानव-देह में बसता है।

जैसा मैंने समझा, लता की जिन्दगी में केवल दो पुरुष हैं। उनके दिवंगत पिता दीनानाथ मंगेशकर और भगवान कृष्ण के रूप में परमात्मा, जिनसे वे कभी ऊबर नहीं पाईं और जिनके लिए वे, बालपने से लेकर आज तक, खामोश, डबडबाई आँखों का जीवन जीती रही हैं। विश्वास न कीजिए। और उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जिस लता को मैं जानता हूँ, अब वह जमीन पर नहीं रहती। उसका सब कुछ आसमान में है। वहीं वह बिहर रही हैं।

लताजी यह जानती थीं और जानती हैं कि वे ईश्वर का एक काम लेकर धरती पर आई थी। ईश्वर ने इस काम के लिए उन्हें भरपूर साधन-संपन्न किया था और गायन द्वारा अपने आराध्य की सेवा करने तथा उसके बंदों को राहत सुकून देने के सिवा उसके आने और होने का कोई अर्थ नहीं था।

ऐसा सोच उसे विनम्र से विनम्रतर बना गया और वह स्वयं को एक आध्यात्मिक अकिंचन से अधिक कुछ नहीं मानतीं। इस विचार से हटकर वास्तविक लता को सही-सही नहीं समझा जा सकता...। जिसे समझा जाता है, वह हाड़माँस की लता है और उस हाड़माँस की सीमा है और उसे समझने वाला भी हाड़माँस से अधिक नहीं है।

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