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महिलाओं पर एसिड अटैक और लाचार व्यवस्था

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-सोनाली बोस
महिलाओं पर अत्याचार, महिलाओं का शोषण, महिलाओं का क़त्ले आम ये सब बहुत कमतर और छोटे से अलफ़ाज़ नज़र आते हैं, एक तेज़ाब का शिकार महिला के दर्द के आगे। महिलाओं को जिस्मानी और दीमागी तकलीफें देना कुंठित पुरुषवादी सभ्यता के लिए कोई यह नया शगल नहीं हैं बल्कि जबसे किसी शक्तिशाली पुरुष ने पहली बार किसी कबीले, किसी गांव, किसी नगर, किसी शहर, किसी राज्य और किसी देश में सत्ता का सपना देखा होगा उसी दिन शायद उसने अपनी और अपनी नस्लों की शुद्धता बरक़रार रखने के लिए महिलाओं की आज़ादी को सबसे पहले निगला होगा उसके बाद उसने फिर कहीं अपनी सत्ता का आसन और शासन बिछाया होगा।
 
पुरुषवादी मानसिकता ने हज़ारों सालों तक महिलाओं का मन मुताबिक इस्तेमाल किया और जब मन भर गया तो किसी बेकार सी वस्तु समझकर अपने जीवन से निकालने के लाखों तरीकों को भी ईजाद कर लिया! हजारों साल के शोषण के बाद 18वीं सदी के आते-आते दूर कहीं दूसरे देशों में महिलाओं की आज़ादी की आवाजें बुलंद होना शुरू हुईं। 19वीं और 20वीं शताब्दी ने महिलाओं के हकों की लड़ाई को और रफ़्तार दी और 21वीं सदी के आते-आते महिलाओं के लिए किताबों और आदालतों में बहुत कुछ बदला पर नहीं बदली तो लाखों साल पुरानी कुंठित सभ्यता की विचारधारा! इन तीन सौ सालों में जहां महिलाएं अपने हक़ के लिए, अपने वजूद के लिए लड़ाई लड़ रही थीं और सफलता अर्जित कर रहीं थी तो वहीं ये कुंठित मानसिकता से ग्रस्त पुरुषवादी सभ्यता, महिलाओं को तकलीफ देने का नया हथियार खोजती रही। ये कुंठित सभ्यता उस हथियार की तलाश में थी जो बहुत आसानी से उपलब्ध तो हो ही साथ में उसकी चोट इतनी घातक हो की पीड़ित महिला की आत्मा तक हिल जाए तथा क़ानून में कोई भी ऐसी धारा न हो जो इस हथियार के इस्तेमाल पर कोई बड़ी सज़ा का प्रावधान रखती हो। शायद इस कुंठित सभ्यता ने बहुत सोच-विचार कर महिलाओं पर अत्याचार के लिए तेज़ाब को चुना होगा।
 
एसिड हमलों के शुरुआती दौर में तो क़ानून को कभी समझ में नहीं आया होगा कि किस धारा के अंतर्गत इस ज़ालिम को उसके ज़ुल्म की सजा दूं? जब पहला ज़ालिम आसानी से क़ानून की गिरफ़्त से बाहर आया होगा तो बाकी ज़ालिमों ने ज़ोर-शोर से जश्न मनाया होगा। क़ानून बनाने वालों ने कभी नहीं सोचा होगा कि कभी इंसानी समाज में ऐसा वक़्त भी आएगा कि कोई मर्द इतना ज़्यादा कुंठित भावना से ग्रस्त हो जाएगा कि महिलाओं पर एसिड अटैक भी करेगा।
 
शुरुआती दौर में महिलाओं प्रति बहुत सारी कमियाँ और खामियाँ क़ानून में रखी गई थीं, जिसका खामियाज़ा आज की महिलाएं भी भुगत रहीं हैं और कुंठित सभ्यता इस लाचार व्यवस्था का मज़ाक उड़ा रही है। 
 
आज आपको हर रोज़ अखबार, खबरिया चैनल, न्यूज़ पोर्टल, सोशल मीडिया आदि पर एसिड अटैक की तमाम खबरें पढ़ने और देखने को मिल जाएंगी। एसिड अटैक पीड़ित पर दुनिया भर की चर्चा और सेमिनार भी देखने सुनने को मिल जाएंगे पर ये चर्चा किसी नतीजे पर पहुंचे बिना ही समाप्त हो जाती हैं।
 
एसिड अटैक विक्टिम पर लिखकर, टीवी प्रोग्राम करके सिर्फ टीआरपी और स्पोंसरशिप बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं किया है, क्योंकि अगले दिन फिर एसिड अटैक विक्टिम महिला कहीं अपना इलाज कराने के लिए जूझ रही होती हैं, कहीं कोई महिला एक और एसिड अटैक का शिकार बन रही होती है तो कहीं एसिड हमले का शिकार होकर दुनिया को अलविदा कह रही होती है।
 
न्यायपालिका भी कुछ आदेश लाकर और सरकार लाखों कमेटियों की तरह एक और कमेटी बनाकर सुकून की सांस लेती है और फिर एक बार अपने रूटीन ढर्रे पर लौट आती हैं। सामाजिक कार्यकर्ता दो चार लेख, एक दो जंतर-मंतर पर धरने प्रदर्शन और टीवी की चर्चा में शामिल होकर अपने घर आकर चैन से सो जाते हैं और देश में कहीं कोई महिला फिर एक और एसिड अटैक का शिकार बन रही होती हैं।
 
आज इस एसिड अटैक की वजह से बहुत सारी लड़कियों और महिलाओं की जान जा चुकी है, लड़कियों और महिलाओं कि ज़िंदगी बर्बाद हो चुकी है, बहुत सारी लड़कियां और महिलाएं आज बद से बदतर हालात में अपना जीवन यापन करने को मजबूर हैं। एसिड अटैक पर न्यायपालिका के साथ-साथ सरकार को अब ऐसे कुछ सख्त क़ानून बनाने चाहिए जो इस देश के साथ साथ दुनिया के लिए एक ट्रेंड सेटर साबित हो साथ ही ऐसा कोई कानूनी प्रावधान भी होना चाहिए जिसमें एसिड हमलों की शिकार महिला को सभी तरह की सुरक्षा और सुविधाएं सुनिश्चित हो जाएं जैसे कि पीड़िता को मुफ्त इलाज के साथ साथ सरकारी नौकरी और सामजिक सुरक्षा के लिए 'एसिड अटैक विक्टिम डेवलपमेंट फंड' या फिर 'एसिड अटैक विक्टिम डेवलपमेंट सोसाइटी' आदि संस्थाओं का गठन भी होना चाहिए ताकि एसिड अटैक की पीड़ित को कहीं से कुछ तो राहत मिल सके।

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