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अमेरिका में आतंकवाद का एक आयाम यह भी

हमें फॉलो करें अमेरिका में आतंकवाद का एक आयाम यह भी
, बुधवार, 10 सितम्बर 2014 (19:51 IST)
-अनिल जैन 
 
वैश्विक आतंकवाद के संदर्भ में तमाम उपलब्ध तथ्य गवाही देते हैं कि दुनिया में आज जितने भी आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं उनमें से ज्यादातर को विभिन्न ताकतवर देशों खासकर अमेरिका ने अतीत में समय-समय पर अपने रणनीतिक और सामरिक हित साधने के लिए औजार के तौर पर इस्तेमाल किया है। इस वैश्विक आतंकवाद का एक और आयाम है, जिसे प्रचलित अर्थ में भले ही आतंकवाद न माना जाए लेकिन उसका वजूद इस आतंकवाद से पुराना है और जिसे हम नस्लवाद और रंगभेद के नाम से जानते हैं।
आतंकवाद के इस आयाम का प्रस्फुटन भी पश्चिम की धरती से ही हुआ है और आज अमेरिका जैसे देश में ही वह खूब फल-फूल रहा है। खासकर न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के हमले के बाद वहां नस्ल और रंगभेद के आधार पर होने वाली हिंसक घटनाओं में तेजी आई है जिसके शिकार वहां की विभिन्न नस्लों के अश्वेत ही नहीं बल्कि वहां रहने वाले या वहां आने-जाने वाले भारत समेत दक्षिण और मध्य एशियाई मूल के लोग भी हो रहे हैं। 
 
लगभग छह वर्ष पूर्व जब बराक ओबामा पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तो दुनिया भर में यह माना गया था कि यह मुल्क अपने इतिहास की खाई (नस्लभेद और रंगभेद) को पाट चुका है। दरअसल ओबामा के रूप में एक अश्वेत व्यक्ति का दुनिया के इस सबसे ताकतवर मुल्क का राष्ट्रपति बनना ऐसी युगांतरकारी घटना थी जिसका सपना मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में देखा था और जिसको हकीकत में बदलने के लिए उन्होंने जीवनभर अहिंसक संघर्ष किया था। 
 
28 मार्च, 1963 को ऐतिहासिक वाशिंगटन रैली में मार्टिन लूथर ने कहा था- 'मेरा एक सपना है कि एक दिन ऐसा आएगा जब अमेरिका की धरती पर नस्लवाद और रंगभेद की सारी खाइयां पाट दी जाएंगी, मुश्किलों के पहाड़ मिट जाएंगे, ऊबड़-खाबड़ रास्ते समतल हो जाएंगे और इस दिव्य दृश्य को अमेरिका का हर बाशिंदा, चाहे वह किसी भी रंग या नस्ल का हो, साथ-साथ देखेगा।' बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना एक तरह से मार्टिन लूथर किंग के अहिंसक संघर्ष की ही तार्किक परिणति थी। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ओबामा के कार्यकाल में ही वहां नस्लवादी और रंगभेदी नफरत बार-बार फन उठा रही है। 
 
कभी वहां किसी गुरुद्वारे पर हमला कर दिया जाता है तो कभी किसी सिख अथवा दक्षिण-पश्चिमी एशियाई मूल के किसी दाढ़ीधारी मुसलमान को आतंकवादी मानकर उस पर हमला कर दिया जाता है। कभी कोई गोरा पादरी किसी नीग्रो या किसी और मूल के अश्वेत जोड़े की शादी कराने से इनकार कर देता है तो कभी किसी भारतीय अथवा एशियाई मूल के व्यक्ति को रेलगाड़ी के आगे धक्का देकर मार दिया जाता है। हाल के वर्षों में वहां इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं।
 
पिछले साल यानी 2013 के सितंबर महीने में वहां एक सिख प्रोफेसर इसी तरह की नस्लभेदी हिंसा का शिकार हुए थे। अमेरिका के प्रतिष्ठित कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स के प्रोफेसर प्रभजोत सिंह रात को न्यूयॉर्क के निकट हर्लेम में अपने घर के बाहर टहल रहे थे, तभी 25-30 युवकों की भीड़ ने उन्हें ओसामा और आतंकवादी कहते हुए उनकी बुरी तरह पिटाई कर दी थी, जिससे प्रभजोत सिंह का जबड़ा और कई दांत टूट गए थे। वहां से गुजर रहे कुछ लोगों ने किसी तरह प्रभजोत सिंह को बचाया था। 
 
इस घटना से एक साल पहले ही विस्कॉन्सिन प्रांत के ओकक्रीक शहर में एक गुरुद्वारे पर भी इसी तरह नस्लीय नफरत के चलते हमला हुआ था जिसमें सात सिख मारे गए थे। इसके कुछ ही दिनों बाद खबर आई थी कि एक गोरे पादरी ने एक अश्वेत जोड़े की शादी कराने से इनकार कर दिया। इसी तरह गत जनवरी महीने में एक प्रवासी भारतीय कारोबारी सुनंदो सेन को न्यूयॉर्क के क्वींस जिले में एक भूमिगत रेलवे स्टेशन पर नस्लवादी कुंठा से ग्रस्त एक अमेरिकी गौरांग महिला ने तेजी से आती ट्रेन के सामने धक्का देकर मार डाला था। नस्लवादी नफरत और हिंसा की इन सभी घटनाओं के मूल में गौरांग अमेरिकी हमलावरों की यह धारणा रही है कि न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के हमले के कसूरवार एशियाई मूल के अश्वेत ही थे। 
 
नस्लीय नफरत से उपजी हिंसा की इन घटनाओं के अलावा भी अमेरिकी और गैर अमेरिकी मूल के अश्वेतों, खासकर एशियाई मूल के हर सांवले या गेहुंए रंग के व्यक्तियों को हिकारत और शक की निगाह से देखने की प्रवृत्ति वहां हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी है। इस सिलसिले में इसी वर्ष भारतीय मूल की नीना दावुलुरी के 'मिस अमेरिका' चुने पर वहां जो विवाद छिड़ा, वह एक खतरनाक संकेत है। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान जो कुछ बोलता है, उससे वहां के समाज को लेकर एक अलग छवि उभरती है, लेकिन उस जन्नत की हकीकत का पता नीना दावुलुरी के मामले से चलता है। 
 
सोशल वेबसाइट्‌स पर नीना को लेकर नस्लवादी टिप्पणियां की गईं, उसका मजाक उड़ाया गया। टि्‌वटर पर एक शख्स ने लिखा कि उसकी शक्ल आतंकवादियों जैसी है। दूसरे ने लिखा- मुबारक हो अल कायदा। कई अमेरिकी गौरांग महाप्रभु नीना को अरबी समझ बैठे। दुनिया को बड़ी शान से एक ग्लोबल विलेज बताने वालों से पूछा जाना चाहिए कि इतनी अजनबियत और नफरत से भरा यह कैसा विश्व गांव है? पूंजीवाद के आराधकों का दावा रहा है कि पूंजी राष्ट्रों की दीवारों को गिराने के साथ ही लोगों के जेहन में बनी धर्म, जाति, नस्ल और संप्रदाय और रंगभेद की गांठों को भी खत्म कर देगी। लेकिन वह दावा बार-बार लगातार बोगस साबित होता जा रहा है। 
 
वैसे तो दुनियाभर में होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन ही अपने-आप में विवादास्पद हैं। इन प्रतियोगिताओं में सुंदरता के दैहिक और कथित मानसिक मापदंडों पर सवाल खड़े किए जाते हैं। बहरहाल यह एक अलग व्यापक बहस का मुद्दा है। ताजा संदर्भ में तो नीना के 'मिस अमेरिका' चुने जाने पर कायदे से अमेरिकी गोरों को गर्व होना चाहिए था कि उनका मुल्क एक व्यापक सोच वाला देश है जो अपने नागरिकों के बीच उनके मूल, जाति और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। लेकिन नीना पर नस्लीय कटाक्ष करने वाले अमेरिकियों ने साबित कर दिया कि उनका समाज उदारता, सहिष्णुता और सर्वसमावेशिता के मूल्यों को अभी भी पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाया है। अगर अमेरिका की युवा पीढ़ी भारतीय और अरबी में फर्क नहीं कर सकती और हर एशियाई को, दाढ़ी-पगड़ी वाले को और सांवले-गेहुंआ रंग के व्यक्ति को आतंकवादी मानती है तो इससे बड़ा उसका मानसिक दिवालियापन और क्या हो सकता है! वैसे इस स्थिति के लिए वहां का राजनीतिक तबका भी कम जिम्मेदार नहीं है जो अपने देश के बाहर तो अपने को खूब उदार बताता है और दूसरों को भी उदार बनने का उपदेश देता है लेकिन अपने देश के भीतर व्यवहार के स्तर पर वह कठमुल्लेपन को पालने-पोषने का ही काम करता है।
 
दरअसल, पश्चिमी देशों में अमेरिका एक ऐसा देश है, जहां विभिन्न नस्लों, राष्ट्रीयताओं और  संस्कृतियों के लोग सबसे ज्यादा हैं। इसकी वजह यह है कि अमेरिका परंपरागत रूप से पश्चिमी सभ्यता का देश नहीं है। उसे यूरोप से गए हमलावरों या आप्रवासियों ने बसाया। अमेरिका के आदिवासी रेड इंडियनों को इन आप्रवासियों ने तबाह कर दिया, लेकिन वे अपने साथ अफ्रीकी गुलामों को भी ले आए। उसके बाद आसपास के देशों से लातिन अमेरिकी लोग वहां आने लगे और धीरे-धीरे सारे ही देशों के लोगों के लिए अमेरिका संभावनाओं और अवसरों का देश बन गया। अमेरिका में लातिनी लोगों के अलावा चीनी मूल के लोगों की भी बड़ी आबादी है। भारतीय मूल के लोग भी वहां बहुत हैं। जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका की 72 प्रतिशत आबादी गोरे यूरोपीय मूल के लोगों की है, जबकि 15 प्रतिशत लातिनी लोग व 13 प्रतिशत अफ्रीकी मूल के अश्वेत हैं। भारतीय मूल के आप्रवासी कुल आबादी का एक प्रतिशत (लगभग 32 लाख) हैं, जो वहां प्रशासनिक कामकाज और आर्थिक गतिविधियों में अपनी अहम भूमिका निभाते हुए अमेरिका की मुख्य धारा का हिस्सा बने हुए हैं। 
 
इस तरह अनेक जातीयताओं और नस्लों के लोगों के होते हुए भी बहुसंख्यक अमेरिकियों के लिए अमेरिका अब भी गोरे लोगों का मुल्क है और अन्य लोग बाहरी हैं। अमेरिका के कई हिस्से हैं, जहां अन्य नस्लों या जातीयताओं के लोग बहुत कम हैं और वे सिर्फ गोरे अमेरिकियों को ही पहचानते हैं। इसके अलावा यह भी सच है कि बहुसंख्य अमेरिकियों का बाकी दुनिया के बारे में ज्ञान बहुत कम है, उनके लिए उनके देश की एक खास छवि के अलावा बाकी दुनिया मायने नहीं रखती। अमेरिका एक समृद्ध देश है और दुनिया की एकमात्र महाशक्ति भी, इसलिए वहां के लोगों को बाकी दुनिया के बारे में जानने की फिक्र नहीं है। आतंकवाद क्या होता है, यह भी अमेरिकी जनता को कुछ वर्षों पहले ही मालूम हुआ है। 
 
वैसे तो अमेरिका में नस्लवादी नफरत और हिंसा की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन इस सदी की शुरुआत में अमेरिकी वैभव के प्रतीक माने जाने वाले न्यूयॉर्क के वर्ल्ड सेंटर की जुड़वा इमारतों पर हुए हैरतअंगेज आतंकवादी हमले के बाद ऐसी घटनाओं का सिलसिला कुछ तेज हो गया है, जो अभी भी जारी है। यह सही है कि 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने अपनी सरजमीं पर दूसरा कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं होने दिया और उस हमले के सबसे बड़े सूत्रधार ओसामा बिन लादेन को भी मौत की नींद सुला दिया, जो कि उसकी एक बड़ी कामयाबी है। लेकिन बाहरी खतरों से अपने को महफूज रखने की कोशिशों के चलते उसने अपने यहां के नस्लवादियों और उनकी गतिविधियों को जिस तरह नजरअंदाज किया है वह न सिर्फ उसके लिए बल्कि दुनिया के उन मुल्कों के लिए भी बेहद खतरनाक हैं, जिनके नागरिक बड़ी संख्या में अमेरिका मे बसे हुए हैं तथा बड़ी संख्या में वहां आते-जाते रहते हैं। 

9/11 के हमले के बाद अमेरिका में दूसरे देशों खासकर एशियाई मूल के लोगों को और उनमें भी दाढ़ी रखने और पगड़ी पहनने वालों को या अपने नाम के साथ अली या खान लगाने वालों को संदेह और हिकारत की नजर से देखने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। ऐसे लोगों की पहचान को ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर से जोड़कर देखा जाता है। हालांकि यह बात समूचे अमेरिकी समाज के बारे में नहीं कही जा सकती और न ही समूचे अमेरिका को नस्लवाद की मानसिकता से ग्रस्त माना जा सकता है, लेकिन नस्लवादी कुंठा से ग्रस्त कतिपय अमेरिकी गौरांगों की सनक का शिकार वहां बसे भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों और वहां विशेष अवसरों पर जाने वाले भारत के विशिष्ट व्यक्तियों को भी अक्सर होना पड़ता है।
 
सुरक्षा जांच के नाम पर कभी वहां हमारे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम अपमानित किए जाते हैं तो कभी हमारे यहां के मंत्रियों और दूसरे राजनेताओं के साथ और कभी शाहरुख और सलमान खान जैसे कलाकारों के साथ वहां सुरक्षा जांच के नाम पर बदसलूकी की जाती है। यही नहीं, वहां तैनात हमारे राजदूत, वाणिज्य दूत और भारतीय दूतावास के अन्य अधिकारियों को भी कभी साड़ी तो कभी दाढ़ी-पगड़ी और कभी उनके नाम को लेकर परेशान किया जाता है।
 
अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद वहां बसे भारतीय उपमहाद्वीप के ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे इलाकों के मुसलमानों की दुश्वारियां भी बढ़ी हैं। प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में रह रहे आधे से ज्यादा मुसलमान महसूस करते हैं कि सरकार की आतंकवाद-निरोधक नीतियों की आड़ में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। उन्हें आमतौर पर शक की निगाहों से देखा जाता है। सुरक्षा जांच के दौरान उनसे जरूरत से ज्यादा पूछताछ की जाती है। उन्हें तरह-तरह के उटपंटाग नामों से बुलाया जाता है। प्यू रिसर्च सेंटर अमेरिकी स्थित एक प्रतिष्ठित स्वतंत्र शोध संस्था है। इसकी सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि अमेरिकी मुसलमानों में आतंकवाद या कट्टरपंथ को बढ़ावा दिए जाने के कोई संकेत नहीं मिलते हैं। अमेरिका में मूल निवासी और प्रवासी मिलाकर कुल 27.5 लाख मुसलमान रहते हैं। प्यू के विश्लेषक ग्रेग स्मिथ के मुताबिक दुनियाभर में इस्लाम के नाम पर बढ़ रहे चरमपंथ और कट्टरपंथ के बावजूद अमेरिकी मुस्लिम समुदाय अपने को मुख्यधारा से जोड़े हुए है। 
 
अमेरिका में नस्लभेदी बदसुलूकी के शिकार सिर्फ भारत और भारतीय उपमहाद्वीप के लोग या स्थानीय और प्रवासी मुसलमान ही नहीं होते बल्कि अमेरिका के अश्वेत मूल निवासियों के साथ भी वहां के गोरे भेदभाव और बदसुलूकी करते हैं। पिछले मई 2012 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के विशेष जांचकर्ता जेम्स अनाया ने अपनी रिपोर्ट में अमेरिका के मूल निवासियों के खिलाफ 'व्यवस्थित' ढंग से भेदभाव किए जाने का आरोप लगाया था। जेम्स अनाया दुनियाभर में कबाईली और मूल निवासी लोगों के अधिकारों के बारे में जांच करते हैं। उन्होंने 12 दिनों तक अमेरिका का दौरा करते हुए जगह-जगह मूल निवासियों से मुलाकात करके उनकी मुश्किलों के बारे में तफसील से जानकारी हासिल कर अपनी रिपोर्ट तैयार की थी।
 
उनकी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के मूल निवासी लंबे समय से अपनी वे जमीनें वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जो आक्रमणकारी गोरों ने वर्षों पहले उनसे छीन ली थीं। जेम्स अनाया के मुताबिक अमेरिका में कई पुश्तों से विभिन्न मूल निवासी कबीलें रह रहे हैं। अमेरिकी सरकार ने इन लोगों के संरक्षण के लिए कुछ कदम भी उठाए हैं, लेकिन इसके बावजूद इन अश्वेत मूल निवासियों की जमीनें और खनिज संपदा छीनने, उनके बच्चों को परिवार और समुदाय से अलग करने, उनकी परंपराओं और रीति रिवाजों को तोड़ने, उनके साथ किए गए समझौतों को तोड़ने तथा अमानवीय व्यवहार करने का सिलसिला नस्लभेद के तहत लगातार जारी है। उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य बुनियादी और सामाजिक सेवाएं हासिल करने में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
 
बहुत हैरानी होती है इस विरोधाभास को देखकर कि एक तरफ तो अमेरिकी नागरिक समाज इतना जागरूक, उदार और न्यायप्रिय है कि एक अश्वेत को दो-दो बार अपना राष्ट्रपति चुनता है, वहीं दूसरी ओर उसके भीतर नस्ली दुराग्रह की हिंसक मानसिकता आज भी जड़ें जमाए बैठी हैं। दुनिया भर में नस्लवाद की शह पर चलने वाला साम्राज्यवाद भले ही अतीत के पन्नों में सिमटकर रह गया हो, पर मानसिकता के स्तर पर यह अमानवीय दुराग्रह आज भी जारी है। 
 
भूमंडलीकरण के दौर ने दुनिया में कई तरह की दूरियों और असमानताओं को मिटाया है। मगर नस्लभेद को समाप्त करने की चुनौती उसके सामने आज भी बनी हुई है। अमेरिका अपने को लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और धार्मिक आजादी का सबसे बड़ा हिमायती मानता है। दुनिया के दूसरे मुल्कों को भी इस बारे में सीख देता रहता है। लेकिन उसके यहां जारी नस्लीय नफरत और हिंसा की  घटनाएं उससे अपने गिरेबां में झांकने की मांग करती हैं।

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