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कांग्रेस नेतृत्व के लिए चिंतन का वक्त

हमें फॉलो करें कांग्रेस नेतृत्व के लिए चिंतन का वक्त

उमेश चतुर्वेदी

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रतिनिधि पार्टी, जिसने दशकों तक देश ही नहीं, तमाम सूबों में राज किया, उसके बुरे दिन दूर होते ही नजर नहीं आ रहे...असम में जहां उसने भारतीय जनता पार्टी के हाथों अपनी सत्ता गंवा दी है, वहीं केरल में उसे वाममोर्चे ने कड़ी शिकस्त दी है, जिसके साथ उसने पश्चिम बंगाल की चुनावी रणभूमि में अपनी ही पुरानी कार्यकर्ता ममता बनर्जी को चुनौती दी थी। 
पूर्व केंद्रीय मंत्री और केरल से कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने नतीजों के आते ही खुले तौर पर मान लिया कि कांग्रेस के अच्छे दिन नहीं आए। इंदिरा गांधी के हाथों कांग्रेस की कमान आने के बाद से ही कांग्रेस में चाटुकारिता की जो परिपाटी विकसित हुई, उसमें गांधी-नेहरू परिवार की पवित्रता पर सवाल उठाना अक्षम्य गुनाह माना जाने लगा। ऐसे कांग्रेसी माहौल में अगर शशि थरूर ने अपनी पार्टी की दुर्गति को खुले तौर पर स्वीकार किया है, तो उनके साहस को दाद दी ही जानी चाहिए।
 
इन चुनावों ने साबित किया है कि कांग्रेस कम से कम अभी तक गांधी-नेहरू खानदान के चिराग के राहुल गांधी की अगुआई में कामयाबी पाने लायक नहीं बन पाई है। दुर्भाग्यवश कांग्रेस के नेता भी इस तथ्य को खुले तौर पर मानने को तैयार नहीं हैं। दो दिन पहले दिल्ली के नगर निगम चुनावों में कांग्रेस की चार सीटों पर जीत के लिए राहुल गांधी को श्रेय देने वाले कांग्रेस नेतृत्व ने इस तथ्य को खारिज कर दिया है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बुरी गत के लिए राहुल गांधी जिम्मेदार हैं। 
 
दिल्ली की तरह आधे सूबे पु्ड्डुचेरी की तीस सदस्यीय विधानसभा में बेशक कांग्रेस ने निर्णायक जीत हासिल कर ली है। इस जीत के जरिए कांग्रेस नेतृत्व अपना गम गलत कर सकता है, लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर इस जीत के कोई खास मायने नहीं हैं। लिहाजा कांग्रेस के लिए वक्त चिंतन का है। अगर इसी तरह राजनीतिक दुनिया की कठोर सच्चाइयों को नकारती रही तो निश्चित मानिए कि राष्ट्रपिता गांधी की इच्छा ही पूरी होगी। आजादी के बाद गांधी चाहते थे कि कांग्रेस का काम आजादी की लड़ाई की अगुआई करना था, चूंकि उसका काम पूरा हो गया है, लिहाजा उसे भंग कर दिया जाना चाहिए। तब कांग्रेस नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया था। लेकिन अब उसकी नीतियों के चलते ऐसा होता नजर आ रहा है। 
 
विधानसभा चुनावों के नतीजों ने एक बात सिरे से साफ कर दी है कि कांग्रेस नेतृत्व जमीनी हकीकत से लगातार दूर है। उसे राजनीति की जमीनी जरूरतों से वाकिफ ना होने के चलते वह लगातार गलतियां कर रहा है। पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों से दोस्ती और केरल में उन्हीं के खिलाफ मोर्चेबंदी जनता को पचा नहीं है। आज का युवा वोटर अतीत के वोटरों की तुलना में कहीं ज्यादा सूचनाओं से लैस है, वह वोटिंग के दौरान पार्टियों का चुनाव अपनी पारिवारिक परिपाटी को खारिज करने से भी नहीं हिचकता है। उसे अब ऐसे जनप्रतिनिधि चाहिए, ऐसी पार्टी सत्ता में चाहिए, जो काम करे और जिसमें दोहरापन ना हो। फिर उसे अब ऐसा नेतृत्व भी चाहिए, जिसकी कथनी और करनी में विभेद नहीं हो। 
 
इन चुनावों में भाजपा को बड़ी जीत इस मायने में मिली है, क्योंकि उसका कहीं कुछ भी दांव पर नहीं था। ऐसा नहीं कि वह बिलकुल पाकसाफ पार्टी है। लेकिन उसके नेतृत्व की स्पष्टवादिता अब वोटरों को कुछ ज्यादा ही लुभा रही है। उसके नेतृत्व की तुलना में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जमीनी हकीकतों से दूर नजर आते हैं। इसलिए तुलनात्मक तौर पर युवा होने के बावजूद मतदाताओं का भरोसा उन पर नहीं बन रहा है। रही-सही कसर उनके सलाहकार पूरे कर रहे हैं। यह सलाहकारों की ही देन है कि असम में कांग्रेस के दिग्गज हेमंत विश्वसर्मा कांग्रेस का हाथ छोड़कर भारतीय जनता पार्टी का साथ देने चले गए। लेकिन कांग्रेस के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। आज नतीजा सामने है। अच्छा रहे कि कांग्रेस नेतृत्‍व और उसके उपाध्यक्ष हार के जमीनी कारणों पर गौर करें और वक्त-जरूरत पर हवा-हवाई नेताओं की बजाए जमीनी नेताओं पर भरोसा करें। तभी शायद कांग्रेस के अच्छे दिन लौट पाएं।
 

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