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कल्याणकारी राज्य संविधान का मूल तत्व

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

, शनिवार, 23 मई 2020 (12:04 IST)
भारत का संविधान भारत के नागरिकों के कल्याण के लिए वचनबद्ध है। राज्य के सारे कार्यकलाप और नीतियां नागरिकों के लिए लोकमैत्रीपूर्ण और सभी नागरिकों के प्रति समभावपूर्ण होना संवैधानिक बाध्यता है। भारतीय लोकतंत्र, भारतीय समाज और राज्य व्यवस्था तीनों ने वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था को स्वीकारने की हड़बड़ी में कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक बाध्यता को जानते-बूझते भुला देने का लोक कल्याण के विपरीत कार्य किया है जिससे भारत के अधिकांश नागरिक कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक सुरक्षा पाने से वंचित हुए हैं।
वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था ने राजकाज में वैश्विक बाजार की ताकत से राजकाज की नीतियों की दिशा को वैश्विक बाजार अभिमुख बना दिया है। इस कारण लोकाभिमुख और कल्याणकारी कार्यक्रमों को घाटे का काम मानते हुए राज्य की प्राथमिकता वाले लोक महत्व के जीवन को गरिमापूर्ण बनाने वाले मूल कार्यों को उपेक्षा का दर्जा मिलने लगा और लोक कल्याणकारी कार्यों को घाटे की अर्थव्यवस्था का कारक मान लिया गया।
 
बहुदलीय लोकतंत्र के बाद भी राज्य के कल्याणकारी स्वरूप के कमजोर होने को लेकर एक भी राजनीतिक जमात ने न तो इसे मुद्दा बनाया और न ही इसे मुद्दा बनाना चाहती है। यह भारतीय राजनीति के मूल स्वरूप और दिशा पर ही गहरा सवाल है।
 
भारत की राजनीति देश के सारे लोगों को ताकतवर और विचारवान बनाने की राह को पूरी तरह से छोड़ चुकी है। देश के हर नागरिक के सपनों को पूरा करना, रोटी-रोजी, खाने और पाने के अवसरों को देश के हर हिस्से में उपलब्ध कराना देश की किसी भी राजनीतिक जमात का सपना ही नहीं है। देश की जनता ही देश की गतिशील दौलत है जिसका विनिमय देश के हर नागरिक को उत्तरदायी बनाकर किया जा सकता है।
 
आज हम सब जहां आ खड़े हुए हैं, उसमें सारे देश की सारी राजनीतिक जमातों को इतने बड़े देश के सारे लोगों की जीवन सुरक्षा और रहने, खाने, आजीविका के अवसरों को देश की राजनीति के मूलभूत कार्यक्रम मानते हुए देश के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने को राजनीति का मुख्य एजेंडा बनाना होगा। हमारा एक भी नागरिक सामान्यत: और आपातकालीन स्थिति में भी अपने आपको अकेला, असहाय और असुरक्षित न समझे। यह हमारे, राज्य, समाज और सभी राजनीतिक जमातों सहित सभी नागरिकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदारी है।
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हमारे संविधान ने प्रत्येक नागरिक को गरिमापूर्ण तरीके से जीवन जीने के मूल अधिकार का प्रावधान किया है। जीवन की गरिमा क्या है? कोई इसे हासिल कैसे करेगा? इसे भारत में हर जगह रहने वाले नागरिक तक पहुंचाने के लिए भारत की सारी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जमातें क्या और कैसे कार्य करेंगी?
 
भारत की राजनीति, समाज, अर्थतंत्र और धार्मिक कार्यक्रमों को भारत के हर हिस्से में किस तरह संचालित करेंगे कि भारत के हर नागरिक के लिए गरिमामय सुरक्षित जीवन साकार हो सके। जाहिर है यह संविधान में प्रावधान करने मात्र से जमीन पर साकार होने वाला नहीं है। न ही यह अपने आप होने वाला है। हम और हमारी राजनीतिक व्यवस्था भारत के लोगों की बड़ी जनसंख्या को देखकर ही पस्तहिम्मत हो जाते हैं।
 
जब तक हम सब अपने लोगों की अनंत शक्ति को पहचानेंगे नहीं, तब तक हम लोगों और लोगों के जीवन के बारे गरिमापूर्ण विचार ही मन में स्थापित नहीं कर पाएंगे। वैश्वीकरण की चकाचौंधपूर्ण राह ने संप्रभुतापूर्ण गणराज्य के नागरिक को महज विश्व बाजार का अदना उपभोक्ता बना दिया।
आर्थिक वैश्विक साम्राज्य के विस्तार की एकमात्र लोभदृष्टि नागरिकों के कल्याण की न होकर नागरिकों को बाजार के लाचार उपभोक्ता बनाने की है। कल्याणकारी राज्य में गरिमापूर्ण सुरक्षित जीवन की संवैधानिक व्यवस्था और वैश्विक बाजार में असहाय, लाचार और बेबस जिंदगी के अंतर को समझने और लोगों को समझाने की राजनीति की प्राण-प्रतिष्ठा आज के भारतीय समाज की तात्कालिक जरूरत है।
 
उदाहरण के लिए रोजमर्रा के भोजन की जरूरत को पूरा करने के लिए कमजोर से कमजोर आर्थिक स्थिति वाला नागरिक 20-30 रुपए में जीने लायक भोजन कर सकता है। यही आदमी बीमार हो जाए तो उसकी जिंदगी भाग्य भरोसे है, क्योंकि स्वास्थ्य राज्य के कल्याणकारी दायित्व से निकलकर बड़ा वैश्विक बाजार बन गया है। गंभीर बीमारी का इलाज करवाना आम भारतीय की आर्थिक पहूंच से बहूत दूर निकल गया है। इसके बाद भी हम सब राजनीतिक, सामाजिक रूप से खामोश होकर अपने नागरिक अधिकार और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व को ही नकार रहे हैं।
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यही हाल शिक्षा को लेकर भी है। राज्य संचालित शिक्षा संस्थानों में नागरिक मजबूरी में जा रहे और शिक्षा के बाजार में अधिकांश नागरिक अपना और अपने बच्चों का भविष्य खोज रहे हैं। राज्य, समाज, राजनीति स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर अपनी भूमिका ही तय नहीं कर पा रहे हैं। नतीजा है विचारवान शिक्षित स्वस्थ युवा नागरिकों की मानव संपदा देश में निरंतर खड़ी नहीं हो पा रही है। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा गरिमामय जीवन-यापन लायक शिक्षा और स्वास्थ्य से दूर होता जा रहा है और यह राजनीति और समाज के लिए बुनियादी मुद्दा भी नहीं है। हम सब इस देश को एक ऐसी विशाल भीड़ में जाने-अनजाने बदल रहे है, जो वैश्विक बाजार की चकाचौंध के परिणामों से बेखबर है।
 
आज जिस कठिन दौर से हम सब गुजर रहे, उससे हम हिल-मिलकर ही मुकाबला कर सकते हैं। हम सब अपने व्यक्तिगत और सामूहिक सोच में आमूलचूल बदलाव लाए बिना हमारे काल की चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना नहीं कर सकते। हमारी राजनीतिक और सामाजिक समझ को व्यापक समतामूलक समझ का हिस्सा बनाएं, तभी हम संविधान को समग्रता से भारत के लोकजीवन में जीवंत कर पाएंगे।
 
व्यापक कल्याणकारी लोकदृष्टि को अपनाए बिना मौजूदा भारत के सामने खड़ीं चुनौतियों का न्यायपूर्ण समाधान हम नहीं खोज सकते। हमें यह अच्छे से समझ लेना चाहिए कि राज्य की मनमानी या भेदभाव से मुकाबला करते समय संविधान हमारे साथ होता है जबकि वैश्विक बाजार से हमें अकेले ही मुकाबला करना हमारी आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक लाचारी होता है।
 
किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिक चेतना और भागीदारी जीवंत लोकतंत्र की आत्मा होती है। लोकचेतना ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाती है। भारत में कल्याणकारी राज्य को संविधान के रहते कमजोर करने में राज्य, राजनीति और नागरिक जागरूकता का अभाव बराबरी के भागीदार है।
 
भारत के लोकजीवन के विराधाभासों को दूर कर ही हम हमारी कल्याणकारी राज्य की संविधानिक बाध्यता को मजबूती से राज, समाज और नागरिकों की पहली प्राथमिकता बनाकर प्रत्येक नागरिक के लिए समतापूर्ण गरिमापूर्ण जीवन जीने की आधारशिला रख सकते हैं।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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