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मृत्यु एक मनोभाव अनेक

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

इस जगत में जन्म और मृत्यु का सनातन प्राकृतिक क्रम है। जो जन्मा है, वह जाएगा ही यह बात अटल सत्य होने के बाद भी मृत्यु के रूप-रंग और तरीके को लेकर दुनियाभर में तरह-तरह के सवाल-जवाब चलते ही रहते हैं। मृत्यु से विदाई या चिर बिछोह का भाव ही प्रायः मन में उपजता है। जो लंबे समय से हमारे साथ था या जिसे हम जानते, पहचानते या मानते थे वह अब हमारे बीच जीवित रूप में कभी नहीं होगा यह भाव प्रायः मन में दुख या शोक उत्पन्न करता है।

पर हमारा मन और उसके भाव बड़े विचित्र हैं वे कब किस रूप में वैसा भाव उत्पन्न करेंगे इसका कोई ओर-छोर नहीं होता। फिर भी हमारी दुनिया कभी किसी की मौत से दबे-छुपे खुश होती है तो कभी-कभी खुलेआम जश्न का भाव भी उत्पन्न करती है। दुनिया में एक ही व्यक्ति की मौत से अलग-अलग भाव उत्पन्न होते हैं। मृत्यु का तरीका कोई भी हो, उसकी निष्पति जीवन के अंत से ही होती है। मृत्यु को हम साकार से निराकार होने का एक प्राकृतिक क्रम भी मान सकते हैं। जैसे जीवन के कई रूप रंग और शैलियां हैं, वैसा ही मृत्यु के साथ भी है।
हमारे राज्य और समाज ने जीवन और मृत्यु की मर्यादाओं को लेकर कुछ अवधारणाएं बनाई हैं। जीवन जीने का हक संविधान के अनुसार मूल अधिकार है इसी कारण विधि-विधान के शासन में जीवन को खत्म करने को लेकर वैसी सहज अनुकूलताएं नागरिक को उपलब्ध नहीं हैं, जैसी जीवन जीने के अधिकार को संवैधानिक रूप से उपलब्ध है। शायद दुनिया के किसी भी संविधान, विधान या विधि में मृत्यु को नागरिक का मूलभूत अधिकार न तो माना गया है, न ही मनुष्य समाज के किसी तबके या व्यक्ति ने मृत्यु को मनुष्य का मूलभूत अधिकार माना है। यही कारण है कि कहीं भी, किसी भी रूप में कोई सामूहिक या व्यक्तिगत मृत्यु होती है तो मन में सहज ही एक क्षण के लिए ही चाहे उपजे, पर विषाद का भाव ही उपजता है।

शायद यह इस कारण हो कि समूची मनुष्यता में मृत्यु के बजाय जीवन को जीने की चाहना ही प्राकृतिक रूप से होती है। पूर्ण आयु के जीवन का अंत होने पर मन में मृत्यु को लेकर प्रायः संतोष का ही भाव होता है, पर अकाल मृत्यु से जीवन का अंत होने पर घर-परिवार के मन में मृत्यु को लेकर उपजे असंतोष को संभालना संभव नहीं होता। ईश्वर से लेकर मृत्यु की क्रूरता तक की भरपूर आलोचना या व्याख्या होती है। ईश्वर के न्याय पर भी हल्ला होता है, इसे क्यों ले गए से लेकर इसके बजाय मुझे ले जाते तो अच्छा होता। इसका विपरीत दृश्य भी होता है। कोई गंभीर अपराध होने पर फांसी की सजा देने की खुलेआम मांग होती है। फांसी पर दुनिया की सोच बंटी हुई है। एक मत है कि कानून जन्म नहीं दे सकता तो उसे किसी को फांसी देने का हक भी नहीं है। कानून जीवन बचाने के लिए जन्मा है, जीवन खत्म करने के लिए नहीं। इसी तरह दूसरा मत इसके विपरीत है कि मृत्यु के भय से ही राज्य समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रख सकता है। फांसी का डर या भय नृशंस घटनाक्रम को रोकने में समर्थ हो सकता है।
 
एक सैनिक की गोली से हुई मृत्यु से मनुष्य जब मरता है तो उसकी व्याख्या देश, काल और परिस्थिति अनुसार होती है। आतंकी और अपराधी की गोली से होने वाली मौतों का भी ऐसा ही हाल है। आतंकी की गोली से सैनिक की मौत हुई तो सैनिक की मौत को शहादत का दर्ज मिलता है और सैनिक की गोली से आतंकी की मौत होने पर आतंकी को मार-गिराया ऐसी उपलब्धि का भाव उत्पन्न होता है। यह मानव मन की सहज एवं सामान्य सोच है कि मौत का रूप-रंग क्या है? उस रूप-रंग में देशकाल परिस्थिति अनुसार अलग-अलग व्याख्याएं मनुष्य समाज में होती रहती हैं।
 
जैसे प्राचीन समय में युद्ध के काल में हमलावर के हाथ आने के बजाय या आपातकाल में अपने को आततायी के अत्याचारों से बचाने हेतु आत्मघात करने का विचार भी उपजा और उसे कुछ काल तक सामाजिक स्वीकृति भी मिली। जौहर उसका ज्वलंत उदाहरण है। पति की मौत के बाद स्त्री की सुरक्षा का एक रूप सती प्रथा के रूप में भी भारतीय समाज में एक जमाने में जड़ जमाने में सफल हुआ था। आज भी कुछ इलाकों में कभी-कभार ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं।

अपने जीवन को देश, विचार, व्यक्ति व समाज के लिए कुर्बान करने के भाव ने मृत्यु के वरण के भाव को जन्म दिया। गुलामी के दौर में या आजादी की लड़ाई के दौर में कई क्रांतिकारी जीवन के अर्पण को अपना ध्येय निरुपित कर हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमकर इस जगत से भौतिक रूप से विदा हो गए, पर देश, काल व परिस्थिति में उनकी चिर बिदाई देश और क्रांति विचार के लिए तेजस्विता का प्रेरणा पुंज बन गई। उनका भौतिक शरीर नहीं है, पर उनकी कुर्बानी में उन्हें अजर-अमर बना दिया। इस तरह मृत्यु का एक भाष्य यह भी है कि वह मारक भी है और प्रेरक भी।
 
दंडस्वरूप और प्रेरणास्पद मृत्यु के अलावा एक रूप मृत्यु का है। वह व्यवस्थागत या व्यक्तिगत लापरवाही के फलस्वरूप हमें देखने को मिलता है। गतिशीलता के युग में रेल या मोटर वाहन दुर्घटनाओं से होने वाली अंतहीन मौतें। इनके प्रति व्यवस्था और व्यक्ति के मन में एक अलग ही भाव होता है। व्यवस्था के लिए ऐसी दुर्घटनाएं मुआवजा घोषणा और जांच घोषणा की प्रशासकीय औपचारिकता होती है और व्यक्ति या समाज के मन में केवल इतनी ही उत्सुकता पैदा होती है कि कहीं इसमें कोई अपना परिजन या परिचित शामिल तो नहीं है?

तेज गति या लापरवाही से वाहन चालन या आवागमन के दौरान होने वाली मौतों की संख्या स्वाभाविक मृत्यु के बाद देश-दुनिया में सर्वाधिक होती है फिर भी देश-समाज का मानस ऐसी मौतों को विकास या गति का स्वाभाविक परिणाम मान कभी तथाकथित विकास और गति के चक्र को रोकने का विचार मानव जीवन की सुरक्षा की दृष्टि से मन में नहीं लाता है। जैसे जल के प्रवाह में लोग अचानक बह जाते हैं, वैसे ही आवागमन के प्रवाह में लोग दुर्घटनाग्रस्त हो दुनिया से बिदा हो जाते हैं। न तो जल का प्रवाह रुकता है और न ही आवागमन का अराजक प्रवाह थमता है। जीवन खत्म होता रहता है और दुनिया अपनी गति से चलती रहती है।
 
जापान में कई लोग संकल्प पूरा न होने पर अपने आपको खत्म कर लेते हैं। उसे हाराकिरी की संज्ञा दी गई है। इसे आत्महत्या नहीं माना जाता, पर हाराकिरी करने वाले के प्रति विरोचित भाव होता है। आत्महत्या को कभी भी अच्छा नहीं माना जाता। आत्महत्या करने वाले के मन में आत्मग्लानि और निराशा का भाव होता है। आत्महत्या करने वाले के मन में इस कृत्य के लिए माफी की चाहना होती है। हाराकिरी और आत्महत्या का स्वरूप एक समान है, पर भाव एकदम भिन्न है। हाराकिरी करने वाले के मन में पश्चाताप नहीं होता जबकि आत्महत्या के साथ आत्मग्लानि जुड़ी होती है।
 
आमरण अनशन भी किसी मांग के समर्थन में जीवन का अंत करने की घोषणा है। पर आमरण अनशन में जीवन खत्म होने की परिस्थिति कभी-कभार ही होती है। फिर भी हमारे देश में ऐसे कई लोग हुए हैं जिन्होंने अपने मुद्दों को मनवाने के लिए अपनी जान दी है। धार्मिक दर्शन या विचारवश भी जीवन को समाप्त कर मुक्ति या मोक्ष की राह चुनने के दृष्टांत आज भी अस्तित्व में हैं। जैन दर्शन में संलेखना और संथारे की परंपरा को जीवन के अंत के बजाय जीवन की साधना या तपस्या की पराकाष्ठा के रूप में माना जाता है। जीवन के लिए आवश्यक अन्न-जल की प्राकृतिक ऊर्जा को त्यागकर जीवनमुक्त होना जन्म के बंधन से मुक्त होना या समाधिस्थ होना माना जाता है। राजस्थान उच्च न्यायालय के एक न्याय निर्णय से वर्तमान में न्याय के क्षेत्राधिकार और धार्मिक मान्यता के बीच एक बहस जन्मी है, जो जीवनरक्षा और मोक्ष, तपस्या या समाधि की परकाष्ठा से उपजे सवालों से जूझ रही है।
 
मृत्यु का एक रूप नई सभ्यता और नई तकनीक से भी उजागर हुआ है। जन्म से पहले ही मृत्यु यानी भ्रूण हत्या। इसको लेकर आज की भीड़भरी दुनिया में एक तटस्थ भाव बन गया है। जन्मने वाले के लिंग को जन्म से पहले ही ज्ञात करने की तकनीकी क्षमता मनुष्य को मिल जाने से जीवन और मृत्यु की प्रक्रिया में मनुष्य के हस्तक्षेप का एक नया आयाम हमारे राज और समाज के सामने प्रगट हुआ है। सामाजिक व आर्थिक कारणों से प्रेरित जन्म से पूर्व ही मृत्यु से साक्षात्कार ने जन्म के अधिकार और मृत्यु की गरिमा को समूल रूप से नष्ट कर दिया है।

आधुनिक विज्ञान की तकनीक और मानव मन की सुविधाजीविता ने जीवन को साकार होने से पहले ही निराकार में विलीन कर दिया है। जीवन और मृत्यु का अनंत चक्र केवल मनुष्य ही नहीं, समूचे प्राणी एवं वनस्पति जगत में एकरूपता से निरंतर श्वास-प्रश्वास की तरह चलता है। पर मनुष्य के जीवन और मृत्यु के रंग और तौर-तरीके से जन्मे मनोभाव इतने अलग-अलग हैं कि मानव मन में जन्म और मृत्यु को लेकर इतने अधिक मत-मतांतर हो गए हैं जिससे जीवन और मृत्यु का प्राकृतिक स्वरूप ही पूरी तरह से मनुष्य मन के अंतहीन हस्तक्षेप से ग्रस्त हो गया है। इस सबका नतीजा यह हो रहा है कि जन्म और मृत्यु प्रकृति का सामान्य क्रम न होकर हमारे मन के राग-द्वेष और हित-अहित के आधार पर व्यक्ति, समाज और देश के मानस पर असर डालने वाला घटनाक्रम बनते जा रहे हैं।

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