Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

हस्तिनापुर में बीजेपी की करारी हार की हकीकत

हमें फॉलो करें हस्तिनापुर में बीजेपी की करारी हार की हकीकत

उमेश चतुर्वेदी

भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी कमी यह मानी जाती रही है कि यहां की बहुदलीय व्यवस्था में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला दल या व्यक्ति ही जीता मान लिया जाता है। भले ही जमीनी स्तर पर उसे कुल वोटरों का तिहाई ही समर्थन हासिल हुआ हो। नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारी बहुमत वाली केंद्र सरकार भी महज कुछ मतदान के तीस फीसदी वोटरों के समर्थन से ही जीत हासिल कर पाई है।

इन अर्थों में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की जीत दरअसल लोकतांत्रिक व्यवस्था की सर्वोच्च मान्यताओं की जीत है। केजरीवाल की अगुआई में मिली जीत में दिल्ली के 54 फीसदी वोटरों का समर्थन हासिल है। आधे से ज्यादा वोट हासिल करने वाली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 90 फीसदी से ज्यादा सीट हासिल की है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह बड़ी और साफ जीत है। जाहिर है कि उनकी जीत के गुण गाए जा रहे हैं और गाए जाएंगे भी। दुनियाभर की संस्कृतियों में चढ़ते सूरज को सलाम करने और उसकी पूजा करने की एकरूप परंपरा रही है। इन अर्थों में केजरीवाल की ताजपोशी की बलैया लिया जाना कोई अनहोनी नहीं है। इस पूरी सफलता की गाथा के बीच किसी की नाकामी भी छुपी हुई है। निश्चित तौर पर यह हार उस भारतीय जनता पार्टी की है, जिसके नेता नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय उभार के बाद से ही पार्टी लगातार चुनाव-दर-चुनाव कामयाबियां हासिल करती जा रही थी।
 
लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट् और जम्मू-कश्मीर में जीत का तकरीबन अजेय सिलसिला जारी रहा। इसके पहले भी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी ने अजेय बढ़त हासिल की। उसी दौरान हुए दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी का प्रदर्शन भले ही उसे बहुमत के करीब नहीं पहुंचा पाया, लेकिन संतोष की बात यह थी कि 33 फीसदी मतों और 32 सीटों के साथ पार्टी दिल्ली में नंबर वन जरूर रही। ऐसी पृष्ठभूमि के बाद अगर दिल्ली के चुनावों में पार्टी को जनसंघ के गठन के दौर से लेकर अब तक की करारी हार मिलती तो उस पर सवाल उठेंगे ही और उसकी मीमांसा भी की जाएगी। 
 
बेशक भारतीय जनता पार्टी का गठन दिल्ली में नहीं हुआ, लेकिन उसके पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ का गठन दिल्ली में ही हुआ था। और तो और इसी भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली के तीनों नगर निगमों में कब्जा है। ऐसे में उसे 70 सदस्यों वाली विधानसभा की महज तीन सीटों पर सिमटना पड़े तो सवाल उठेंगे ही। भारत में राजनीतिक हारों की मीमांसा के वक्त राजनीतिक आग्रह और पूर्वाग्रह दोनों आधारों का सहारा लेकर वैचारिक बदला लेने की परंपरा रही है। 
 
चूंकि भारतीय जनता पार्टी को गैर सेक्युलर माना जाता है, लिहाजा उसके ठीक विपरीत ध्रुवों पर खड़ी विचारधाराएं और उसके आधार पर चलने वाली पत्रकारिता के लिए दिल्ली की हार वैचारिक बदला चुकाएंगी ही। लालू यादव का यह बयान कि दिल्ली में केजरीवाल के जरिए सेक्युलर ताकतों की जीत हुई है, इसका उदाहरण मात्र है। सोशल मीडिया पर मौजूद बीजेपी विरोधी हरावल दस्ते ने भी ऐसे ही हमले बोल रखें हैं। किंचित सच्चाई इसमें हो सकती है, लेकिन इस हार के पीछे हकीकत का एक बड़ा हिस्सा पार्टी के खुद के अंदर भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो हार के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का एक वर्ग यह कहने से जरूर बाज आता कि ऐसे झटके लगने भी चाहिए। ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर पार्टी कार्यकर्ता किसे झटके देने की बात कर रहा है।
 
रामचरित मानस में पांच सदी पहले गोस्वामी तुलसीदास कह गए हैं, प्रभुता पाइ काहु मद नाहीं। कहना नहीं होगा कि सत्ता तंत्र में पैर जमाने के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा इसी प्रभुता ग्रंथि से पीड़ित होने लगा था। अहंकार भाव पार्टी नेतृत्व में भरने लगा था। अगर ऐसा नहीं होता तो किरण बेदी को आनन-फानन में भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर उतार नहीं देती। 
 
दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की हार की पटकथा उसी दिन लिखी जानी शुरू हो गई, जब किरण बेदी को पार्टी नेतृत्व ने अपने कैडरों के विचारों की उपेक्षा करके मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया। रही-सही कसर किरण बेदी के पुलिसिया व्यवहार ने पूरी कर दी। उन्होंने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनते ही दिल्ली के सभी सात सांसदों को कुछ उसी अंदाज में तलब किया, जिस अंदाज में वे एडिशनल सीपी रहते वक्त अपने मातहत पुलिस अफसरों को तलब करती रही होंगी। 
 
जिस कैडर आधारित भारतीय जनता पार्टी में कम से कम कार्यकर्ताओं से भी रुखे व्यवहार की परंपरा नहीं रही, वहां किरण के इस व्यवहार ने कार्यकर्ताओं को पार्टी और उसके निर्णयों को मानने से दूर कर दिया। उन्होंने अपनी पहली बैठक दिल्ली राज्य पार्टी मुख्यालय में जिस दिन ली, उसके तत्काल बाद एक राज्यस्तरीय नेता ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि किरण के साथ निभा पाना लंबे वक्त तक के लिए संभव नहीं होगा। 
 
फिर जिस धीर, विनोद कुमार बिन्नी और शाजिया इल्मी के खिलाफ कुछ महीनों पहले तक पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जी-जान लगाकर चुनाव लड़ा और उनसे दो-दो हाथ किया, वे तीनों आनन-फानन में आम आदमी पार्टी से लाकर भारतीय जनता पार्टी में शामिल कर लिए गए। ऐसे में बीस-तीस साल से काम कर रहे कार्यकर्ताओं में गुस्सा और निराशा दोनों बढ़ने लगी। कार्यकर्ता यह पूछने लगे कि उनकी हैसियत पार्टी में सिर्फ जाजिम और दरी बिछाने की ही है और जब सत्ता का स्वाद चखने का मौका आए तो उन्हें किनारे लगा दिया जाए। 
 
दिल्ली के लोगों ने हर्षवर्धन का पद छोटा करना और दिल्ली के मैदान से उन्हें दूर कर देना भी नहीं पचा। जब किसी ने इसका विरोध करने या अपनी आवाज उठाने की कोशिश की, उसे समझाने की बजाय तानाशाही अंदाज में डांट-डपटकर चुप करा दिया गया। इससे कार्यकर्ताओं में क्षोभ बढ़ता गया। यहां यह बताना जरूरी है कि 2008 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी कार्यकर्ताओं की पहली पसंद हर्षवर्धन थे। लेकिन ऐन चुनाव के पहले उनकी जगह विजय कुमार मल्होत्रा को पार्टी ने आगे कर दिया और 2015 में तो उन्हें सिरे से ही गायब कर दिया। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर बीजेपी में कौनसी ताकत है, जिसे हर्षवर्धन के आगे बढ़ना गवारा नहीं। सवाल यह भी है कि आखिर किसने कैडर आधारित पार्टी में भी किरण बेदी जैसी अक्‍खड़ शख्सियत को सर्वोच्च पद पर बैठाने की सलाह मोदी और अमित शाह को दी।
 
करीब छह दशक पहले जिस दिल्ली में जनसंघ का जन्म हुआ था, तब दिल्ली की राजनीति पर पंजाबी, पाक से आए लोगों और बनिया वर्ग का प्रभुत्व था। तब दिल्ली के गांवों की जाट और गूजर बहुल जनसंख्या पर पहले कांग्रेस और बाद के दौर में समाजवादियों का असर रहा। बहरहाल, दिल्ली भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व पंजाबी-बनिया मानसिकता से ही अब तक ग्रस्त रहा है। यह बात और है कि साहब सिंह वर्मा के चलते दिल्ली के गांवों की जाट और गूजर जनसंख्या को तवज्जो जरूर मिलने लगी, लेकिन पिछले दो दशकों में दिल्ली की जनसांख्यिकी बदल चुकी है। 
 
दिल्ली की करीब एक करोड़ 67 लाख की जनसंख्या में करीब 55 लाख लोग अब पूर्वांचल यानी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मूल के हैं। दिल्ली की 12 विधानसभा सीटों पर उनकी ताकत 26 से 39 फीसदी तक की है, जबकि सात पर तो वे 40 से लेकर 55 फीसदी तक हैं। पूर्वांचली मतदाताओं की इस ताकत को पहली बार शीला दीक्षित ने पहचाना और दिल्ली में छठ पूजा का आयोजन, भोजपुरी-मैथिली अकादमी का गठन जैसे कदम उठाए। उन्होंने पूर्वांचली वोटरों को ध्यान में रखते हुए पूर्वांचली उम्मीदवारों पर भरोसा जताया, लेकिन दिल्ली की भारतीय जनता पार्टी पंजाबी-बनिया वर्चस्व वाली ग्रंथि से भी मुक्त नहीं हो पाई। उसने सिर्फ तीन पूर्वांचली लोगों को टिकट दिया। 
 
हैरत की बात यह है कि दिल्ली बीजेपी के प्रभारी प्रभात झा भले मध्य प्रदेश से जुड़े हों, लेकिन उनका भी मूल बिहार ही है। आम चुनाव में इन पूर्वांचली वोटरों ने मोदी में भरोसा जताया था, लेकिन नौ महीने के मोदी के शासनकाल में उन्हें कम से कम दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी में अपनापा नजर नहीं आया। लिहाजा उन्होंने थोक के भाव आम आदमी पार्टी को समर्थन दिया। जिन अच्छे दिनों की उम्मीद लेकर लोगों ने केंद्र में मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया था, वे अच्छे दिन कम से कम अब तक नहीं आ पाए हैं। 
 
गरीबों को लग रहा है कि उनका पुरसाहाल जानने की फुर्सत भारतीय जनता पार्टी के पास भी नहीं है। फिर एक छवि यह भी बन रही है कि यह सरकार भले जनधन योजना लागू कर रही हो, लेकिन यह भी सच है कि उसकी छवि अमीरों की रखवाली करने वाली पार्टी की बनती जा रही है। महंगाई पर लगाम अब भी नहीं लग पा रही है। उसके बरक्स केजरीवाल ने खुद को गरीबों के हमदर्द के तौर पर पेश किया है। इसलिए एक बात और है कि दस-पंद्रह हजार तक महीने में कमाकर जीने वाले लोगों के बड़े वर्ग ने सिर्फ केजरीवाल को समर्थन दिया है। 
(लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi