मध्यप्रदेश के मतदाता बहुत चतुर सुजान निकले। उन्होंने रतलाम-झाबुआ लोकसभा और देवास विधानसभा के ताजा उपचुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों को ‘लड्डू’ दे दिया। कांग्रेस कह सकती है कि उसके हाथ में बड़ा लड्डू आया है, लेकिन भाजपा का मुंह भी कड़वा नहीं हुआ है। उसके पास मुंह मीठा करने के लिए छोटा लड्डू है। मतदाता ने दोनों दलों के लिए संभावना के दरवाजे खुले रखे हैं। उसने दोनों को भविष्य में सुधरने का मौका देते हुए एक के हाथ में पुंगी थमाई है तो दूसरे के हाथ में झुनझुना।
भाजपा झाबुआ की हार से थोड़ी निराश जरूर महसूस कर सकती है, लेकिन देवास से ज्यादा झाबुआ के परिणाम भाजपा की सेहत के लिए फायदेमंद हैं। ऐसा इसलिए कि झाबुआ का झटका उसके लिए 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव तक संभलने की संजीवनी के रूप में काम करेगा। झाबुआ में भाजपा ने कमोबेश वही रणनीति अपनाई थी, जो अब तक सफल रही थी और जिसके बूते उसने अधिकांश उपचुनाव और बाकी चुनाव जीते थे। वही शिवराज थे, वही मंत्रियों की फौज, वही संगठन के लोग, लेकिन झाबुआ ने बता दिया है कि यह रणनीति आगे कारगर होगी, इसकी गारंटी नहीं है।
झाबुआ में कौन जीता और कौन हारा? कांग्रेस की बात करें तो पहले नंबर पर कांतिलाल भूरिया जीते, दूसरे नंबर पर कांग्रेस की एकजुटता जीती और तीसरे नंबर पर वो जमीनी वास्ताविकताएं जीतीं जिनकी भाजपा ने अनदेखी की। उधर भाजपा की कहें तो पहले नंबर पर गवर्नेंस की मैदानी असफलता हारी, दूसरे नंबर पर निर्मला भूरिया की कमजोर उम्मीदवारी हारी और तीसरे नंबर पर हर मोर्चे पर सिर्फ और सिर्फ शिवराज के भरोसे बैठ जाने की रणनीति हारी।
एक और महत्वपूर्ण संकेत इन उपचुनावों ने दिया वो ये कि भाजपा शहरी क्षेत्र में भले ही थोड़ी बहुत सुविधाजनक हो लेकिन ग्रामीण क्षेत्र उसके लिए आने वाले दिनों में राजनीतिक मुश्किलें पैदा करेगा। झाबुआ संसदीय क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों में से केवल रतलाम शहर ही ऐसा रहा जहां भाजपा को बढ़त मिली वरना बाकी सभी ग्रामीण क्षेत्रों में उसे मुंह की खानी पड़ी है। देवास विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की जीत भी इसी बात की ओर संकेत करती है, क्योंकि वह भी शहरी इलाका है।
ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश में विकास नहीं हुआ है। यह भी सही है कि प्रदेश की राजनीति में भाजपा ने ज्यादातर चुनावों में अपने विकास के एजेंडे के इर्द-गिर्द ही बात की है। लेकिन, जो फीडबैक आ रहा है वो यह है कि विकास की इस धारा का लाभ वास्तविक अर्थों में लोगों तक पहुंचने में सरकारी मशीनरी ही बाधक बन रही है।
चुनाव परिणाम आने से एक दिन पहले खुद मुख्यमंत्री ने एक सरकारी समारोह में कहा था कि उन्हें अपने विधानसभा क्षेत्र के ही एक गांव में बिजली पहुंचाने के लिए फील्ड अफसरों की अड़ंगेबाजी के कारण पांच साल लगे। प्रदेश में सरकारी मशीनरी किस ढर्रे पर काम कर रही है इसका मुख्यमंत्री के इस बयान से ज्यादा अच्छा कोई उदाहरण नहीं हो सकता।
जाहिर है भाजपा को राजनीतिक व प्रशासनिक दोनों रणनीतियां बदलने पर काम करना होगा। उधर कांग्रेस के लिए झाबुआ की जीत में यह संदेश छिपा है कि वह अपने परंपरागत आदिवासी और दलित वोट बैंक के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान दे। स्थानीय लोगों को आगे करे और स्थानीय समस्याओं को उठाकर लोगों को जोड़े। उसे समझना होगा कि उसकी असली ताकत ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्र ही हैं, व्यापमं जैसे मुद्दे उठाकर वह विधानसभा, संसद और मीडिया में हल्ला तो मचवा सकती है, लेकिन उसके बूते चुनाव नहीं जीत सकती। याद रहे, इस बार व्यापमं न तो झाबुआ में मुद्दा था और न देवास में...