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दीवारों की दुनिया

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शरद सिंगी

अमेरिकी राष्ट्रपति ने पद ग्रहण करते ही मैक्सिको की सीमा के साथ दीवार खड़ी करने की घोषणा कर दी। उनके चुनावी वादों में से एक वादा इस दीवार के निर्माण का भी था। इसमें कोई संदेह नहीं कि हर राष्ट्र को अपनी सीमाएं सुरक्षित करने का अधिकार है और इस बाबत मुख़्तलिफ़ देश विभिन्न उपक्रम करते हैं। भारत ने भी पाकिस्तान से लगी सीमा पर कभी कांटे वाले तार लगाने की बात की तो कभी बिजली वाले तारों की और कभी रात्रि दृष्टि कैमरा लगाने की। 
मूल मुद्दा यह नहीं है कि विभिन्न देश, सीमा सुरक्षित करने के लिए क्या उपक्रम करते हैं। मूल मुद्दा यह है कि आधुनिक विश्व में इस उपक्रम की दरकार क्यों है? दीवार बनाना कोई नई बात नहीं है। 2300 से अधिक वर्षों पूर्व चीन ने अपनी सुरक्षा के लिए जो दीवार बनाई थी जो आज वह विश्व के लिए एक अचंभा है। जब चीन की दीवार बनाई गई थी तब विश्व में सम्राटों को अपनी सीमाएं बढ़ाने की महत्वाकांक्षाएं थीं। सेनाएं असहाय जनता को रौंदते हुए आगे बढ़ती थीं। अपनी जमीन और आक्रमणकारियों से देश को बचाना आवश्यक था। उसी तरह जब बर्लिन की दीवार बनाई गई तब राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने जर्मनी के दो टुकड़े कर दिए। जर्मनी, पूर्वी और पश्चिमी में विभाजित होने के साथ दो विचारधाराओं  में बंट गया था। 25 वर्ष पूर्व जब जर्मनी की दीवार गिरा दी गई और जर्मनी पुनः एकीकृत हुआ तब लगा था कि विश्व के एकीकरण के लिए यह एक शुभ संकेत हैं।  किन्तु एक शोध के अनुसार, बर्लिन की दीवार टूटने के समय विश्व में राष्ट्रों के बीच सोलह दीवारें थीं जो आज 65 से ज्यादा हो गई हैं अर्थात विश्व एकीकृत होने की जगह पुनः पृथक होने के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है।  
 
सऊदी अरब और तुर्की, अपने अपने देशों से इराक और सीरिया के जिहादियों को दूर रखने के लिए बाड़ का निर्माण कर रहे हैं। यूरोप में हंगरी, सर्बिया की ओर से आने वाले इराकी, सीरियाई और अफगानी शरणार्थियों को रोकने के लिए चार मीटर ऊंची फेंस लगा रहा है। इसराइल की फिलिस्तीनी सीमा पर बनी दीवार 'रंगभेदी दीवार' के नाम से कुख्यात है। ऐसे अनेक उदाहरण आज दुनिया के सामने हैं, लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो ये दीवारें केवल सुरक्षा की भावना ही देतीं हैं सुरक्षा नहीं, ठीक उसी तरह जिस तरह हम अपने घरों में ताले लगाकर निश्चिंत होने का झूठा मानस रखते हैं। 
 
सच तो यह है कि आधुनिक विश्व को आज सेनाओं से इतना खतरा नहीं है। यह भी सच है कि यदि विभिन्न देशों की सरकारें आपस में सहयोग करें तो इन दीवारों की नौबत नहीं आएगी, किन्तु आज कुछ प्रश्न खड़े हैं। जब पड़ोसी देश की सरकार अपने देश की कानून व्यवस्था पर नियंत्रण नहीं रख सकती तो उस राष्ट्र की आलोचना क्यों जो समस्या के समाधान के लिए प्रयास करता है? भारत की लाख कोशिशों की बावजूद पाकिस्तान सरकार अपने देश से भेजे जाने वाले आतंकवादियों पर रोक लगाने में असमर्थ है और यदि ऐसे में भारत अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने का प्रयास करता है तो भारत की आलोचना क्यों होना चाहिए? दूसरी बात, पड़ोसी देश की सरकार की नाकामी का वित्तीय बोझ प्रभावित  देश की जनता को  क्यों उठाना चाहिए? 
 
प्रेसिडेंट ट्रंप अपने चुनावी भाषणों में तालियों की गड़गड़हट के बीच घोषणा करते थे कि यदि वे राष्ट्रपति बने तो अमेरिका की दक्षिण सीमा पर एक सुन्दर दीवार बनाएंगे। और जब  वे जनता से पूछते थे कि इस दीवार की लागत कौन चुकाएगा, तब जनता के बीच से जोरदार आवाज़ आती थी मैक्सिको। मैक्सिको की भी अपनी समस्याएं हैं। भ्रष्टाचार ने अपने पैर बुरी तरह जमा रखे हैं। ड्रग माफ़िया के साथ सरकारी मशीनरी की मिलीभगत होने से सरकार ड्रग की तस्करी रोकने में असमर्थ है। वहां की सरकार अलोकप्रिय हो चुकी है। मैक्सिको द्वारा ट्रंप की मांग को मानना यानी अपनी हार को स्वीकार करना जिसे मैक्सिको की जनता कभी पसंद नहीं करेगी और मैक्सिको की राजनीति इतना बड़ा खतरा मोल नहीं ले सकती। दूसरी तरफ यदि मैक्सिको नहीं मानता है तो ट्रंप के पास कई अन्य तरीके हैं जहां से वे इसे दीवार बनाने की लागत को निकाल सकते हैं जैसे आयात कर को बढ़ाना, वीसा की फीस बढ़ाना इत्यादि। 
 
इसमें संदेह नहीं कि इस तरह की दीवारें दुनिया को वापस पीछे ले जाएंगी, किन्तु अब उन देशों को यह समझने की जरुरत है कि आतंकियों, उत्पातियों, ड्रग तस्करों को देश से बाहर जाने से रोकने की जिम्मेदारी उनकी है और इस जिम्मेदारी से वे अपना पीछा नहीं छुड़ा सकते। पाकिस्तान को भी समझना होगा कि ट्रंप के बाद वाली दुनिया इतनी आसान नहीं रहेगी, जब तक आतंक और प्रशिक्षित आतंकवादियों को उनका विदेशों में निर्यात करेगा, तलवार की धार पर चलेगा। अमेरिका ने सात ऐसे देशों पर पाबंदी लगा दी है और अन्य ऐसे संभावित देशों की सूची में पाकिस्तान का नाम सबसे ऊपर है। खुदा खैर करे। 

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