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एक बड़े प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ता ब्रिटेन

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शरद सिंगी

ब्रिटेन अभी मुश्किल से अपने टुकड़े होने के संकट से उबर ही पाया था, जब स्कॉटलैंड अलग होने की कगार पर खड़ा था, कि अब दूसरे संकट में फंस गया है। इंग्लैंड का एक वर्ग मानता है कि यूरोपीय संघ ( जो 28 देशों का संगठन है ) का सदस्य बने रहना ब्रिटेन के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। उनके अनुसार इसकी वजह से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त भार पड़ने के साथ ही बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप ले रही है।

यूरोप के प्रत्येक देश के नागरिकों को लगभग ब्रिटेन के नागरिकों की तरह ही रोजगार के अधिकार मिल जाने से ब्रिटेन में यूरोपीय संघ के अन्य देशों से लोगों का आव्रजन आरम्भ हो गया है और चूँकि वे लोग  सस्ते दर पर काम करने को तैयार हो जाते है इसलिए  ब्रिटिश नागरिकों के लिए नौकरियां ढूंढना मुश्किल हो रहा है। उसी तरह यूरोप के अन्य देशों में जहाँ ब्रिटेन की अपेक्षा उत्पादन लागत कम है, वहां के उत्पादों को  बिना किसी आयात कर के ब्रिटेन में प्रवेश मिलने से ब्रिटेन के उत्पाद यूरोप के अन्य देशों के उत्पादों से स्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं।
 
दूसरे वर्ग का मानना है कि ब्रिटेन को यूरोप में बने रहने में ही भलाई है।  ब्रिटेन एक छोटा देश होने से उसकी अर्थव्यवस्था की सीमाएं है और यूरोपीय संघ में बने रहने से उसे 28 देशों की अर्थव्यवस्था में भागीदारी मिलती है जिनमे जर्मनी और फ्रांस जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं। वहीं वर्तमान सुरक्षा कारणों से जरुरी है कि सभी देश संगठित रहें  और विश्व में इस समय जो चुनौतीपूर्ण वातावरण है उससे संगठित होकर निपटें। 
 
ब्रिटेन का यूरोपीय संघ में रहना या न रहना सरकार या संसद के निर्णय से संभव नहीं था। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री कैमरून ऐसे राजनेता हैं जो किसी समस्या को लटकाए रखने में विश्वास नहीं करते। स्कॉटलैंड की समस्या को भी उन्होंने सुलझा दिया था उसी तरह यह एक बहुत महत्वपूर्ण और पेचीदा मसला होने से जनता के पास जाकर सीधे  मतसंग्रह कराने का  निर्णय लिया गया। इस वर्ष 23 जून को मतसंग्रह होगा। इस समय इंग्लैंड की जनता दो धड़ों  में बंट चुकी है।  एक का नेतृत्व प्रधानमंत्री  केमरुन कर रहे हैं जो यूरोपीय संघ के साथ बने रहना चाहते हैं तो दूसरे का नेतृत्व लंदन के लोकप्रिय मेयर बोरिस जॉनसन कर रहे हैं जो ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करना चाहते हैं। अभी तक बोरिस जॉनसन को कैमरून का उत्तराधिकारी माना जाता रहा है किन्तु इस विवाद में कैमरून और बोरिस दोनों का भविष्य दांव पर लगा हुआ माना जा रहा है। 
 
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भी इस विवाद में कूद पड़े हैं। यद्यपि यह इंग्लैंड की जनता का अपना फैसला है और इंग्लैंड जैसे परिपक्व प्रजातंत्र में अमेरिकी सलाह की कई लोगो ने आलोचना भी की विशेषकर उन लोगों ने जो इंग्लैंड को यूरोपीय संघ से बाहर देखना चाहते हैं।
 
अमेरिका व इंग्लैंड के बीच  मित्रता बहुत पुरानी एवं गहरी है। इसलिए ओबामा जब पिछले सप्ताह इंग्लैंड आये तो उन्होंने आलोचनाओं की परवाह न करते हुए इंग्लैंड के यूरोपीय संघ में बने रहने के पक्ष में कई दलीलें दे डालीं।  उनका कहना था कि अमेरिका और इंग्लैंड अंतर्राष्ट्रीय मामलों में बड़े तालमेल के साथ काम करते हैं और इंग्लैंड यूरोपीय संघ का प्रभावी सदस्य होने से सहयोग का दायरा बहुत बड़ा हो चुका है अतः यह अमेरिका के हित में नहीं है कि ब्रिटेन किन्ही भी कारणों से कमजोर हो।
 
आज यूरोप एक होने से किसी भी चुनौती का सामना सहजता से कर लेता हैं विशेषकर रूस की विस्तारवादी नीतियों के विरुद्ध। इंग्लैंड के अलग होने से यूरोप में वह अकेला राष्ट्र हो जायेगा इसके विपरीत आज संगठित रहने की अधिक आवश्यकता है। ओबामा के तर्कों से न केवल आलोचनाएँ कमजोर पड़ी अपितु कैमरून के पक्ष में हवा बनाने में भी मदद मिली। 
 
संगठन में ही शक्ति है इसे इंग्लैंड के नागरिकों को समझाने की आवश्यकता नहीं। स्कॉटलैंड के अलगावादियों ने स्कॉटलैंड को इंग्लैंड से  अलग करने की कोशिश की किन्तु उन्हें मुंह की खानी पड़ी। संगठन में त्याग भी सभी को करना होता है।  यहाँ अच्छा  अच्छा मेरा, ख़राब खराब तुम्हारा वाली नीति नहीं चल सकती। कहीं पर लाभ तो कहीं पर हानि। निर्णय लेने से पहले समग्र आकलन की आवश्यकता है। यूरोप के सभी देशों की नज़रें इंग्लैंड की जनता पर टिकी है कि इंग्लैंड की जनता क्या निर्णय देती हैं। वैश्विक राजनीति और भारतीय हितों के अनुकूल तो यही रहेगा कि यह  संगठन बना रहे ताकि विश्वशक्तियों में आपसी संतुलन बना रहे ठीक उसी तरह जिस तरह ये शक्तियाँ भारत और पाकिस्तान के बीच अथवा भारत और चीन के बीच के संतुलन को  बनाए रखना चाहती है।  किसी राष्ट्र के जीवन में ऐसे निर्णयकारी प्रसंग कभी कभी आते हैं। 

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