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बसपा में कांशीराम युग की हो रही विदाई

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विवेक त्रिपाठी

साथ छोड़ने वालों के प्रति मायावती चाहे जितनी बेरुखी दिखाने का प्रयास करें, लेकिन हकीकत यह है कि इससे उनका जनाधार प्रभावित होगा। इतना ही नहीं, यह बसपा में कांशीराम युग की विदाई भी हो रही है।
 
मायावती के एक-एक करके सारे वफादार सिपहसालारों ने पार्टी को छोड़ना शुरू कर दिया है। यह कोई छोटी घटना नहीं है। जिस बीएसपी मूवमेंट को लेकर कांशीराम ने अलग प्रकार की राजनीति शुरू की थी, शायद वे विचार अब पार्टी में बचे नहीं हैं इसलिए ऐसा हो रहा है।
 
बसपा का गठन उच्च प्रोफाइल वाले करिश्माई दलित नेता कांशीराम द्वारा 14 अप्रैल 1984 में किया गया था। उनका उद्देश्य अनुसूचित, पिछड़ों, दलितों को बराबरी का हक दिलाना था। इस काम के लिए उन्होंने मायावती को चुना। पार्टी की स्थापना के समय से ही वे उनकी कोर टीम का हिस्सा थीं।
 
माया ने अपने करियर का पहला चुनाव मुजफ्फरनगर की कैराना सीट से लड़ा और सांसद बनीं। 1995 में वे प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं। 1997 में वे दोबारा मुख्यमंत्री बनीं। हालांकि यह कार्यकाल उनका ज्यादा नहीं रह सका। 2002 में वे फिर मुख्यमंत्री बनीं। 2007 में वे प्रदेश की चौथी बार वे फिर से मुख्यमंत्री बनीं। इसमें उन्होंने पूरे 5 साल तक सरकार चलाई। इतनी सारी उपलब्धियां उन्हें सिर्फ पार्टी की मूवमेंट को आगे बढ़ाने की वजह से ही मिलीं। 
 
लेकिन धीरे-धीरे में इनमें काडर बेस नेताओं का खात्मा होता चला गया। पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से रहे राजबहादुर 1973 में वामसेफ के माध्यम से कांशीराम से जुड़े थे। 1993 में बसपा की सरकार में समाज कल्याण मंत्री तक रहे। बाद में हटा दिए गए। उन्होंने अपनी पार्टी भी बनाई लेकिन कामयाब नहीं हो सके। इस समय वे कांग्रेस में हैं, लेकिन इस दौरान वे कोई चुनाव नहीं जीत सके।
 
टांडा के मसूद अहमद भी कांशीराम के जमाने से बसपा में थे। 1985 से 1993 तक पूर्वी उत्तरप्रदेश के प्रभारी तक रहे हैं। सपा बसपा की साझा सरकार में मंत्री भी रहे। इन्हें भी कुछ मतभेद के चलते पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया। कुछ दिनों तक इन्होंने अपनी पार्टी चलाई फिर सपा व कांग्रेस में रहे। आजकल रालोद में हैं।
 
ऐसा ही कुछ हाल आरके चौधरी का भी है। वे बसपा के संस्थापक सदस्यों में से थे। बसपा की सरकार बनी तो उन्हें परिवहन मंत्री का पद दिया गया। 2001 में मायावती से इनकी खटपट हो गई। इन्हें भी बाहर कर दिया गया। 2004 में इन्होंने अपनी पार्टी राष्ट्रीय स्वाभिमान बनाई, लेकिन इन्हें सफलता नहीं मिली। 2012 में खुद चुनाव हार गए। फिर अपने पुराने घर बसपा में लौट आए। 
 
दीनानाथ भास्कर भी पार्टी में शुरुआती दिनों के साथी रहे। बसपा-सपा सरकार में वे स्वास्थ्य मंत्री रहे। 1996 में मायावती के खिलाफ बगावत कर ये सपा में चले गए फिर बसपा में आए, लेकिन वर्तमान में भाजपा का झंडा थामे हुए हैं। 
 
बसपा सरकार में बाबूसिंह कुशवाहा भी खासमखास हुआ करते थे। एनएचआर घोटाले में फंसे बाबूसिंह को बसपा ने बाहर का रास्ता दिखाया। ये अपनी विरासत को बचाने के लिए भाजपा में गए लेकिन वहां इनकी दाल नहीं गल सकी। 2014 के लोकसभा चुनाव में पत्नी को सपा से टिकट देकर चुनाव भी लड़वाया, पर सफलता नहीं मिल सकी। अब फिलहाल वे जनाधिकार मंच बनाकर अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। 
 
बसपा सरकार में ग्राम विकास मंत्री रहे दद्दू प्रसाद भी माया के खास सिपाही हुआ करते थे। वे बुंदेलखंड में सबसे बड़े नेता माने जाते थे। 2007 में मंत्री के साथ उन्हें जोनल को-ऑर्डिनेटर की भी जिम्मेदारी थी। अब वे अपने राजनीतिक भविष्य की तलाश में घूम रहे हैं। 
 
कांग्रेस सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री रहे अखिलेश दासगुप्ता बसपा से राज्यसभा सांसद भी रहे। उन्हें दोबारा बसपा से राज्यसभा नहीं भेजा गया। 
 
महासचिव पद पर तैनात जुगुल किशोर भी पार्टी के खास माने जाते रहे हैं। उन्हें राज्यसभा भी भेजा गया। चुनावों में टिकट वितरण से लेकर अहम फैसले लेने में उनका अच्छा-खासा दखल था। बसपा से बगावत कर वे भाजपा में शामिल हो गए हैं। 
 
स्वामी प्रसाद मौर्य भी बसपा में 2 नंबर की हैसियत रखते थे। 1996 में बसपा में शामिल हुए मौर्य ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1996 में ही रायबरेली डलमऊ से चुनाव लड़े और विधायक बने। 1997 में भाजपा-बसपा गठबंधन सरकार में खादी एवं ग्रामोद्योग मंत्री भी रहे। 2001 में वे नेता विपक्ष रहे।
 
2002 में फिर डलमऊ से विधायक बने। 2002-03 में फिर भाजपा-बसपा सरकार में खादी एवं ग्रामोद्योग मंत्री रहे। 2003 में नेता विरोधी दल फिर 2007 में चुनाव हारने के बावजूद राजस्व मंत्री बने। 2007-09 तक विधान परिषद सदन के नेता भी रहे। 2008 में बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। 2009 के पडरौना के उपचुनाव में विधायक बने। 
 
2009 में 5वीं बार कैबिनेट मंत्री बने। 2011 में उन्हें भूमि विकास जल संसाधन और डॉ. अम्बेडकर विकास की जिम्मेदारी मिली। 2012 में फिर कुशीनगर के पडरौना से विधायक चुने गए। 2012 में ही तीसरी बार विधानसभा में नेता विरोधी दल बने। 
 
20 साल से बसपा में रहे मौर्य ने अपना राजनीतिक जनाधार तो बढ़ाया ही, साथ उनकी हैसियत भी पार्टी में अच्छी मानी जाती रही है। वे पिछड़े वर्ग के बड़े नेता माने जाते थे। उनके जाने से पार्टी का नफा-नुकसान भविष्य के गर्त में है। 
 
लेकिन कुछ भी कहो, माया के खास सिपहसालार धीरे-धीरे करके बिखर गए। ऐसा नहीं कि संगठन ही माया का गड़बड़ हुआ है। 2007 में दूसरे दलों से टूटकर आए रंगनाथ मिश्रा, बादशाह सिंह, अवधपाल सिंह, रघुनाथ संखवार, मित्रसेन, विद्याधर राजभर, राकेशधर त्रिपाठी, नंदगोपाल नंदी, शफीकुर रहमान जैसे मंत्री नेताओं ने भी पार्टी को किसी न किसी वजह से विवादों में घिरवाया है। इन नेताओं ने पार्टी की साख भी खराब की है।
 
राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे मल्टीनेशनल कंपनी घोषित कर दिया है। उनका कहना है कि वह मूल एजेंडे से भटककर अब एक कंपनी की तरह काम करती है। उसमें शामिल नेता उसके कर्मचारी होते हैं। इसी कारण बसपा का अन्य राज्यों में भी सफाया हो गया है और मूल वोटर भी कट रहे हैं। 
 
इसका परिणाम 2014 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका। अब पार्टी में विचारों का कोई महत्व बचा नहीं, सिर्फ सत्ता ही लक्ष्य है। इस समय पार्टी को एक व्यक्ति विशेष की पार्टी कहा जाए तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
 
अभी तक बसपा में कोई ऐसा दूसरा नेता तैयार नहीं हुआ, जो आगे की बागडोर को संभाल सके। जो हैं, वे सिर्फ पार्टी मुखिया ही हैं। यह विषय बसपा के लिए सोचनीय है। बसपा में अभी तक न तो कोई मास लीडर बन पाया, न ही कोई बड़ा चेहरा पनप पा रहा है। इसीलिए कभी राष्ट्रीय स्तर तक पहुंची पार्टी आज क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह गई है। 
 
इस पर बसपा मुखिया को विचार करना होगा। काम के आधार पर हर चीज में हिस्सेदारी देनी होगी। व्यक्ति विशेष की छवि हटाकर सभी के हित वाली पार्टी बनाने का प्रयास करना चाहिए तभी इनकी पार्टी पनप सकती है, वरना सत्ता के लालच में कुछ भी नहीं मिलेगा।
 
मायावती को विचार करना होगा कि निरंकुश ढंग से पार्टी चलाने की उनकी नीति कब तक चलेगी? क्यों उनके विश्वासपात्र रहे लोग गंभीर आरोप लगाकर पार्टी छोड़ देते हैं। मायावती खुद किसी को उभरने का मौका नहीं देतीं। यह नीति पार्टी पर भारी पड़ रही है।

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