भारतीय संविधान के अनुसार कावेरी एक अंतरराज्यीय नदी है। कर्नाटक और तमिलनाडु इस कावेरी घाटी में पड़ने वाले प्रमुख राज्य हैं। इस घाटी का एक हिस्सा केरल में भी पड़ता है और समुद्र में मिलने से पहले ये नदी कराइकाल से होकर गुजरती है, जो पुडुचेरी का हिस्सा है। इसलिए इस नदी के जल के बंटवारे को लेकर इन चारों राज्यों में विवाद का एक लंबा इतिहास रहा है, जो कि 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ था।
उस समय ब्रिटिश राज के तहत ये विवाद मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर राज के बीच था। 1924 में इन दोनों के बीच एक समझौता हुआ लेकिन बाद में इस विवाद में केरल और पुडुचेरी भी शामिल हो गए। कहना गलत न होगा कि तब से यह विवाद और भी जटिल होता गया है। भारत सरकार द्वारा 1972 में बनाई गई एक कमेटी की रिपोर्ट और विशेषज्ञों की सिफारिशों के बाद अगस्त 1976 में कावेरी जल विवाद के सभी 4 दावेदारों के बीच एक समझौता हुआ था।
इस समझौते की घोषणा संसद में भी की गई लेकिन इस समझौते का पालन नहीं हुआ और यह विवाद चलता आ रहा है और अब तो इसने दो राज्यों के बीच गृहयुद्ध का रूप ले लिया है। विदित हो कि जुलाई 1986 में तमिलनाडु ने अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956) के तहत इस मामले को सुलझाने के लिए आधिकारिक तौर पर केंद्र सरकार से एक न्यायाधिकरण के गठन किए जाने का निवेदन किया था। हालांकि केंद्र सरकार इस विवाद का हल बातचीत के जरिए ही निकाले जाने के पक्ष में रही लेकिन तमिलनाडु के कुछ किसानों की याचिका की सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को इस मामले में न्यायाधिकरण गठित करने का निर्देश देना पड़ा था।
केंद्र सरकार ने 2 जून 1990 को न्यायाधिकरण का गठन किया और अब तक इस विवाद को सुलझाने की कोशिश चल रही है लेकिन इसका हल अब तक नहीं निकल सका है। इस बीच न्यायाधिकरण के एक अंतरिम आदेश ने मामले को और जटिल बना दिया है। 1991 में न्यायाधिकरण ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें कहा गया था कि कर्नाटक कावेरी जल का एक तय हिस्सा तमिलनाडु को देगा। हर महीने कितना पानी छोड़ा जाएगा, यह भी तय किया गया लेकिन इस पर कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ। इस बीच तमिलनाडु इस अंतरिम आदेश को लागू करने के लिए जोर देने लगा। इस आदेश को लागू करने के लिए एक याचिका भी उसने उच्चतम न्यायालय में दाखिल की पर तबसे मामला और पेचीदा ही होता गया।
इस मामले को लेकर दोनों ही राज्य (कर्नाटक और तमिलनाडु) दोनों ही पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते रहे हैं। कर्नाटक मानता है कि अंग्रेजों के शासन के दौरान वह एक रियासत था जबकि तमिलनाडु सीधे ब्रिटिश राज के अधीन था इसलिए 1924 में कावेरी जल विवाद पर हुए समझौते में उसके साथ न्याय नहीं हुआ। कर्नाटक का यह भी मानता है कि वहां कृषि का विकास तमिलनाडु की तुलना में देर से हुआ और इसलिए भी क्योंकि वह नदी के बहाव के रास्ते में पहले पड़ता है, उसे उस जल पर पूरा अधिकार बनता है। दूसरी ओर तमिलनाडु का मानना है कि 1924 के समझौते के तहत तय किया गया कावेरी जल का जो हिस्सा उसे मिलता था, वह अब भी जारी रखा जाना चाहिए और इस मामले में हुए सभी पुराने समझौतों का स्वागत किया जाना चाहिए।
कोई समाधान क्यों नहीं निकल सका?
कानूनी जानकार मानते हैं कि इस समस्या के समाधान के कानूनी आधार तो मौजूद हैं लेकिन जब तक इन चारों संबद्ध राज्यों के बीच जल को लेकर चल रही राजनीति खत्म नहीं होती, इस मसले को सुलझाना असंभव होगा। यह दो प्रमुख राज्यों के बीच राजनीतिक वर्चस्व को लेकर भी जोर-आजमाइश का विषय बना हुआ है। एक ओर जहां कर्नाटक और तमिलनाडु में इसको लेकर हिंसा हो रही है, हंगामा चल रहा था, वहीं दूसरी ओर दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट में ईद की छुट्टी के दिन भी कर्नाटक की याचिका पर विशेष सुनवाई चल रही थी। कर्नाटक की दलील रही कि पानी के मुद्दे पर कानून व्यवस्था बिगड़ रही है जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती से कहा था कि कानून व्यवस्था संभालना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 5 सितंबर के दिए आदेश में कुछ बदलाव किया था। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि कर्नाटक अगले 10 दिन तक तमिलनाडु के लिए प्रतिदिन कावेरी नदी का 15 हजार क्यूसेक पानी जारी करे। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने पानी की मात्रा कम कर दी और कहा कि कर्नाटक अब 15 हजार क्यूसेक की जगह हर रोज 12 हजार क्यूसेक पानी दे लेकिन 16 तारीख की बजाय 20 तारीख तक यह पानी दिया जाए। इस फैसले से कर्नाटक और ठगा महसूस कर रहा है, क्योंकि पहले के आदेश के मुताबिक उसे 10 दिन में डेढ़ लाख क्यूसेक पानी देना था लेकिन अब उसे 1 लाख 86 हजार क्यूसेक पानी देना पड़ेगा। अब कर्नाटक सरकार के सामने इस फैसले को लागू करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
इस नदी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच सबसे अधिक विवाद रहा है। इसी को हल करने के लिए 1990 में कावेरी नदी जल ट्रिब्यूनल बनाया गया। 1991 में ट्रिब्यूनल ने एक अंतरिम अवॉर्ड दिया। इसके तहत तमिलनाडु को 205 टीएमसी फीट पानी दिया गया। 2007 में अंतिम निर्णय सुनाया जिसमें तमिलनाडु को फाइनल अवॉर्ड में 419 टीएमसी फीट पानी देने का फैसला किया गया लेकिन कर्नाटक ने इस पर लगातार आपत्ति की है। उसका कहना है कि वह तमिलनाडु के लिए इतना पानी नहीं छोड़ सकता।
कावेरी नदी जल ट्रिब्यूनल के सामने पहली चुनौती यह देखना था कि कावेरी में पानी है कितना और कहां-कहां से आता है? जानकारों ने लंबी गणनाओं के बाद ये निष्कर्ष निकाला कि मॉनसून पर आधी निर्भरता के लिहाज से कावेरी का 740 टीएमसी फीट पानी इस्तेमाल के लिए उपलब्ध होता है। ट्रिब्यूनल के सामने अगली चुनौती थी इस 740 टीएमसी फीट पानी को चार राज्यों के बीच कैसे बांटा जाए? कई साल की दलीलों और विशेषज्ञों के विचारों को जानने के बाद ट्रिब्यूनल ने 419 टीएमसी फीट पानी तमिलनाडु को देने का फैसला किया, 270 टीएमसी फीट पानी कर्नाटक को, 30 टीएमसी फीट पानी केरल को और 7 टीएमसी फीट पानी पुडुचेरी को देने का फैसला किया। इसके अलावा 14 टीएमसी फीट पानी को पर्यावरण के लिहाज से खाली छोड़ दिया गया।
इस फैसले के बाद ट्रिब्यूनल ने कर्नाटक को निर्देश दिया था कि वह यह सुनिश्चित करे कि 192 टीएमसी फीट पानी सालाना तमिलनाडु को मिले लेकिन यहीं पर एक बड़ी भ्रामक स्थिति पैदा हुई।
दरअसल, कावेरी नदी में कर्नाटक के अंदर के कैचमेंट इलाके में 462 टीएमसी फीट पानी आता है, यह इसकी सहायक नदियों से भरता है इसलिए अगर कर्नाटक को 270 टीएमसी पानी ही दिया गया तो बाकी बचा 192 टीएमसी फीट उसे तमिलनाडु के लिए छोड़ना होगा। कर्नाटक इसके लिए तैयार नहीं है।
तमिलनाडु को अगर ये 192 टीएमसी फीट कर्नाटक से मिलता है तो अवॉर्ड के मुताबिक 419 टीएमसी फीट पानी पूरा कैसे होगा? यह 227 टीएमसी फीट पानी दरअसल तमिलनाडु खुद अपने कैचमेंट एरिया में जनरेट करता है। 227 प्लस 192 मिलकर होता है 419 टीएमसी फीट। इस तरह कावेरी नदी में कर्नाटक और तमिलनाडु के कैचमेंट एरिया से कुल मिलाकर 462 और 227 टीएमसी फीट पानी आता है। कावेरी नदी जब केरल से होकर बहती है तो वहां के कैचमेंट एरिया से उसमें 51 टीएमसी फीट पानी आता है लेकिन केरल इसमें से 30 टीएमसी ही इस्तेमाल कर पाता है। बचे हुए 21 टीएमसी पानी को पुडुचेरी (7 टीएमसी) और पर्यावरण के लिहाज से (14 टीएमसी) रखा गया है।
कहने का अर्थ है कि कर्नाटक 462 टीएमसी फीट पानी कावेरी में डालता है और उसमें से उसे 270 टीएमसी फीट पानी इस्तेमाल करने की इजाजत है। तमिलनाडु 227 टीएमसी फीट पानी डालता है और 419 टीएमसी फीट पानी पाता है। केरल 51 टीएमसी फीट पानी डालता है लेकिन उसे 30 टीएमसी फीट पानी ही इस्तेमाल करने को मिलता है। इन आंकड़ों को देखने पर लगता है कि कर्नाटक के साथ यह बड़ा अन्याय है। लेकिन यह हुआ कैसे? इसका जवाब इतिहास में है जिसे दोबारा नहीं लिखा जा सकता।
चोल शासकों ने जो 10वीं शताब्दी में तमिलनाडु पर राज करते थे, उन्होंने यह दूरदर्शिता दिखाई कि अपने राज्य में जलाशय और चेकडैम बनवाए ताकि नदी के पानी को सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जा सके। दूसरी ओर कर्नाटक में पहला बड़ा जलाशय केआर सागर 1934 में बना, जब मैसूर के शासकों ने उसे बनवाया। ऐसे में तमिलनाडु के किसानों को शुरुआती फायदा मिला। 1894 और 1924 के समझौतों पर जब हस्ताक्षर हुए तो तमिलनाडु के 15 से 20 लाख एकड़ इलाके से भी अधिक इलाके में सिंचाई होती थी।
कर्नाटक में 1924 तक 6.5 लाख एकड़ में सिंचाई होती थी और अब भी 15 लाख एकड़ में ही खेती होती है। इसका मतलब यह है कि 1974 तक कावेरी के पानी का 80% तमिलनाडु के किसान इस्तेमाल कर रहे थे। 1974 में कर्नाटक ने 1924 में हुए समझौते को खारिज कर दिया तो इस ऐतिहासिक लाभ और दूरदर्शिता की वजह से तमिलनाडु को कावेरी का बड़ा हिस्सा मिलता रहा। लेकिन 1924 के समझौते के बाद तमिलनाडु का जो हिस्सा पहले 80 फीसदी से ज्यादा था वह घटकर 57 फीसदी पर आ गया और कर्नाटक का हिस्सा 16 फीसदी से बढ़कर 37 फीसदी हो गया।
क्या यह अवॉर्ड कर्नाटक के साथ अन्याय है? हां है। लेकिन ऐतिहासिक कारणों से ऐसा हुआ। क्या कर्नाटक बिना विरोध के इसे स्वीकार कर ले? नहीं, इस अवॉर्ड के कुछ पहलुओं पर स्पष्टता और बदलाव की जरूरत है। कर्नाटक ने इसके लिए 2007 में ही सुप्रीम कोर्ट में एक स्पेशल लीव पिटीशन डाल दी थी। तमिलनाडु और केरल ने भी ऐसी ही याचिकाएं डालीं, क्योंकि वे भी अवॉर्ड से खुश नहीं थे। लेकिन अभी तक इन पर फैसला नहीं हुआ है।
कावेरी नदी जल बंटवारे को लेकर लोगों का गुस्सा तभी सामने आता है, जब बारिश कम होती है। अच्छे मॉनसून में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कोई तनाव नहीं दिखता लेकिन अगर बारिश कम हुई तो दोनों ही राज्यों में राजनीतिक दलों से लेकर आम आदमी तक एक-दूसरे के सामने आ जाते हैं। इसलिए जब सुप्रीम कोर्ट ने नया आदेश दे दिया कि कर्नाटक, तमिलनाडु के लिए 15,000 क्यूसेक पानी की बजाय 12,000 क्यूसेक पानी छोड़ेगा तो कर्नाटक के लोगों का गुस्सा शांत हो जाना चाहिए था और तमिलनाडु के लोगों को भी कर्नाटक के व्यवसायियों के कार्यस्थलों पर हमले नहीं करने थे। इसके बावजूद अगर बेंगलुरु में कन्नड़ समर्थकों ने गाड़ियों में आग लगाई और चेन्नई में कन्नड़ लोगों के होटलों पर हमले किए गए तो जाहिर है कि राजनीतिक दलों ने जनता के बीच जरूर गलतफहमी पैदा की है।
लेकिन कर्नाटक के किसानों के दबाव के चलते राज्य सरकार उतना पानी नहीं जारी करती जितना सुप्रीम कोर्ट कहता है और हर साल तमिलनाडु अदालत की अवमानना का मामला दायर करता है। ऐसा ही विवाद उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा के बीच है। इस समस्या का कारण क्षेत्रीयतावाद है, जो कि क्षेत्र के नेताओं के हवा देने से सुलगता है और राजनीतिक दल इससे तात्कालिक लाभ उठाने के लिए तैयार रहते हैं। उनके लिए तो देशहित जैसी कोई भावना होती ही नहीं है।