‘लॉकडाउन’ दो सप्ताह के लिए और बढ़ गया है। खबर से किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। होना भी नहीं था। लोग मानकर ही चल रहे थे कि ऐसा कुछ होने वाला है और ‘शारीरिक रूप’ से तैयार भी थे। प्रतीक्षा केवल इस बात की ही थी कि घोषणा प्रधानमंत्री करेंगे या वैसे ही हो जाएगी।
राष्ट्रीय स्तर पर रेड,ऑरेंज और ग्रीन झोन्स के लिए जारी दिशा-निर्देशों के बाद राज्यों द्वारा भी अपने हिसाब से गुणा-भाग किया जा रहा है। छूट के निर्णय के शहरों और उनके हॉट स्पॉट्स पर लागू होने तक कई और संशोधन स्थानीय स्तरों पर कर दिए जाएंगे। अभी केवल ‘ग्रीन’ जनता को ही मास्क पहनकर खुले में प्राणायाम करने की छूट दी गई है। हो सकता है उसके बाद केवल नाक भर को खुला रखने की छूट भी प्राप्त हो जाए। माना जाना चाहिए कि सबकुछ महामारी से मुक़ाबले की एक निर्धारित प्रक्रिया के तहत ही किया जा रहा है।
सरकारें जो कुछ भी करती हैं, सोच-समझकर करती हैं। अगर लॉकडाउन के प्रारम्भ के साथ ही प्रवासी मज़दूरों, कोटा सहित अन्य स्थानों पर फंसे छात्रों और तीर्थयात्रियों के लिए बसों और रेलगाड़ियों का इंतज़ाम हो जाता तो शायद इतना कोहराम नहीं मचता। पर ऐसा नहीं किया गया। रेलगाड़ियां उपलब्ध कराने से पहले शायद इस चीज़ की पड़ताल ज़रूरी रही होगी कि लोग कितनी दूरी तक भूखे-प्यासे पैदल भी चल सकते हैं। शायद देश के धैर्य का परीक्षण किया जा रहा है जो आगे के संघर्षों में सरकारों के काम आएगा।
देश भी असीमित धैर्य के साथ ही जवाब भी दे रहा है। भारतीयों और अमेरिकियों के बीच फ़र्क़ भी यही है। भारतीय नागरिक अमेरिकियों की तरह जल्दबाज़ी में किसी भी चीज़ को ‘फ़ॉलो’ या ‘अन-फ़ॉलो’ करना शुरू नहीं कर देते। जैसे कि अमेरिका में इस समय ‘लॉकडाउन’ के प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ विद्रोह में कुछ स्थानों पर लोग सड़कों पर उतर आए हैं।
अमेरिका आर्थिक रूप से धनी है, हम संतोष के धनी हैं। हमें न किसी चीज़ की जल्दी रहती है और न ही हड़बड़ी। और फिर हमारे यहां अन्न का भी असीमित भंडार है और फसलें भी तैयार खड़ी हुई हैं। फल और सब्ज़ियां तो किसानों द्वारा फेंकी जा रही हैं, कोई ख़रीदने वाला ही नहीं है। ज़रूरतमंद लोग बस अनाज प्राप्त होने का इंतज़ार ही कर रहे हैं।
फ़्रैक्चर जब बड़ा होता है तो समझदार डॉक्टर मरीज़ को यह कहकर निराश नहीं करता कि पट्टा तो लम्बे समय तक चढ़ा रहेगा, या उसके बाद ट्रैक्शन लेना होगा, उसके बाद बैसाखियों पर चलना होगा और साथ ही फीजियोथैरेपी भी चलेगी। केवल डॉक्टर को ही पता रहता है कि मरीज़ को कब चलाना और कब दौड़ाना है। लॉकडाउन को लेकर भी अभी यही स्थिति है।
जनता जैसे ही घर से बाहर निकलने के लिए कपड़े पहनती है, लंगड़ाते हुए वापस घरों में बंद हो जाती है। रेड झोन्स के भी पूरी तरह से ख़त्म होने की शर्त यही मानी जा सकती है कि कोरोना के संक्रमण की कोई आशंका ही न बचे। अब ऐसा कैसे और कब तक सम्भव हो सकेगा आज तो कोई नहीं कह सकता। हालांकि कुछ भविष्यवक्ताओं ने जून और उसके आगे तक की तारीख़ें बताई हैं। पिछली ‘मन की बात' में तो ईद तक का संकेत प्राप्त हुआ था।
किसने कितना गौर किया या नहीं किया पता नहीं —ऊपर से लगाकर नीचे तक जनता के चुने हुए प्रतिनिधि इस समय अपनी क्या भूमिका निभा रहे हैं, किसी को कुछ भी जानकारी नहीं है। इनमें सांसदों से लेकर विधायकों और पार्षदों तक सभी शामिल हैं। इस वक्त तो ऊपर से लेकर नीचे तक पूरी कमान नौकरशाही के ही हाथों में है। जो दिख रहा है उससे तो लगता है ये प्रतिनिधि एक लम्बे समय के लिए भी ऐसे ही निश्चिंत रहने को तैयार हैं।
ऐसे कठिन समय में कौन किससे पूछ सकता है कि संसद और विधानसभा की बैठकें कब से चालू होंगी? वे कुछ राज्य जो कोरोना मुक्त हो गए हैं वहां भी मुख्यमंत्रियों को इस विषय में ज़्यादा उत्सुकता नहीं है। इस समय तो पूरा देश प्रधानमंत्री की ओर ही देखकर चल रहा है।
राज्यों की सीमाओं पर अभी ‘कच्ची’ दीवारें उठ रही हैं, प्रदेशों को जोड़ने वाली सड़कों पर अभी ‘अस्थायी’ गड्ढे खोदे जा रहे हैं। सब कुछ कोरोना से बचाव के नाम पर हो रहा है। कोई न तो सवाल कर रहा है और न कोई जवाब दे रह है। देश के दुर्गम और बर्फीले इलाक़ों में सीमाओं की हिफ़ाज़त में लगे सैनिक कभी सवाल नहीं करते कि दुश्मन की ओर से घुसपैठ या हमले कि आशंका कब तक समाप्त हो जाएगी।
हम भी एक अज्ञात दुश्मन के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ रहे हैं, हमें भी नहीं पूछना चाहिए कि कोरोना का ख़तरा कब तक समाप्त हो जाएगा और हमें कब तक लॉकडाउन से पूरी मुक्ति मिल जाएगी? प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज़ होता है।