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राजनीतिक चा‍लबाजियों से कहीं ऊपर है डॉ. अंबेडकर का व्यक्तित्व

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ऋतुपर्ण दवे

* ब्राम्हण अंबेडकर के चहेते दलित भीमराव पर राजनीतिक संघर्ष कब तक?
कबीरपंथी परिवार में जन्मे अंबेडकर अपनी 127वीं जयंती के मौके पर भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि संविधान निर्माण के बाद और दलितों के संघर्ष के दौरान थे। दलितों और पिछड़ों को वोटबैंक समझने वाले सभी दल अंबेडकर को अपना मार्गदर्शक और प्रेरणा पुंज कहते नहीं अघाते हैं।
 
उनके नाम पर कसमें खाई जाती हैं, आंदोलन किए जाते हैं और यह संदेश देने की पुरजोर कोशिशें की जाती है कि दलितों का सबसे बड़ा सिपहसालार कौन है? लेकिन यह भी हकीकत है कि राजनीति के मौजूदा बदले हुए तेवर में अगर वाकई कोई पीछे छूटता जा रहा है तो वह है सिर्फ और सिर्फ भीमराव अंबेडकर।
 
विलक्षण प्रतिभा के धनी भीमराव बेहद निर्भीक थे। वे न चुनौतियों से डरते थे और न झुकते थे। लड़ाकू और हठी अंबेडकर ने अन्याय के आगे झुकना तो जैसे सीखा ही न था। 14 अप्रैल 1891 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के केंद्रीय प्रांत (मध्यप्रदेश) के इंदौर के पास महू नगर की छावनी में एक महार परिवार में माता-पिता की 14वीं संतान के रूप में जन्मे भीमराव के पिता की मृत्यु बालपन में ही हो गई थी।
 
1897 में बॉम्बे के एलफिंसटोन हाईस्कूल में उन्होंने पहले अस्पृश्य के रूप में दाखिला लेकर 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। पढ़ाई के दौरान ही 15 साल की उम्र में 1906 में 9 साल की रमाबाई से इनकी शादी हुई।
 
अंबेडकर ने अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र में डिग्री हासिल की। हिन्दू धर्म में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव और छुआछूत से दु:खी होकर उन्होंने इसके खिलाफ संघर्ष भी किया लेकिन विशेष सफलता नहीं मिलने पर इस धर्म का ही त्याग तक कर दिया। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और यह क्रम निरंतर जारी है।
 
दलित मुद्दों पर अंबेडकर के गांधीजी से मतभेद रहे हैं। 18 जुलाई 1936 के 'हरिजन' में अंबेडकर के 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' की समीक्षा में गांधीजी ने जोर दिया था कि हर किसी को अपना पैतृक पेशा जरूर मानना चाहिए जिससे कि अधिकार नहीं, कर्तव्यों का बोध हो।
 
यह सच्चाई है कि ब्रिटिश राज्य के 150 वर्षों में भी अछूतों पर होने वाले जुल्म में कोई कमी नहीं आई थी जिससे अंबेडकर आहत थे। लेकिन धुन के पक्के अंबेडकर ने गोलमेज कॉन्फ्रेंस में जो तर्क रखे, वे इतने ठोस और अधिकारपूर्ण थे कि ब्रिटिश सरकार तक को उनके सामने झुकना पड़ा और 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैक्डोनल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के लिए एक तात्कालिक योजना की घोषणा की जिसे 'कम्युनल अवॉर्ड' के नाम से जाना गया।
 
इस अवॉर्ड में अछूत कहे जाने वाले समाज को दोहरा अधिकार मिला। पहला यह कि वे सुनिश्चित सीटों की आरक्षित व्यवस्था में अलग चुनकर जाएंगे और दूसरे में 2 वोटों का अधिकार मिला। 1 वोट आरक्षित सीट के लिए और 2रा वोट अनारक्षित सीट के लिए। इसके बाद बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का कद समाज में काफी ऊंचा हो गया। उनकी अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग का गांधीजी ने पुरजोर विरोध कर एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। उनकी दलील थी कि इससे हिन्दू समाज बिखर जाएगा।
 
लेकिन जब अंबेडकर जीत गए तो गांधीजी ने पूना पैक्ट (समझौता) पर दस्तखत के लिए उन्हें मजबूर कर दिया और आमरण अनशन पर चले गए। गांधीजी की बिगड़ती तबीयत और उससे बढ़ते दबाव के चलते अंबेडकर 24 सितंबर 1932 की शाम यरवदा जेल पहुंचे, जहां पर दोनों के बीच समझौता हुआ जिसे 'पूना पैक्ट' के नाम से जाना जाता है। समझौते के तहत डॉ. अंबेडकर ने दलितों को कम्युनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की लेकिन इसी में 78 आरक्षित सीटों को बढ़ाकर 148 करवाया। साथ ही अस्पृश्य लोगों के लिए हर प्रांत में शिक्षा अनुदान के लिए पर्याप्त रकम की व्यवस्था के साथ नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित कराया।
 
हालांकि उन्हें इसके क्रियान्वयन की चिंता थी तभी तो 25 सितंबर 1932 को बंबई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में अंबेडकर ने कहा कि हमारी एक ही चिंता है, क्या हिन्दुओं की भावी पीढ़ियां इस समझौते का अनुपालन करेंगी? इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था कि करेंगी। डॉ. अंबेडकर ने यह भी कहा था कि हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू संप्रदाय एक संघटित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न संप्रदायों का फेडरेशन है। मैं आशा और विश्वास करता हूं कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा सम्मानजनक भावना से काम करेंगे।
 
लेकिन आज जो हो रहा है, क्या इसी भाव से हो रहा है? कहीं अंबेडकर के नाम पर जोड़-तोड़ की कोशिशें, तो कहीं इस कोशिश पर ऐतराज की नई राजनीति शुरू हो गई है। यह सच है कि दलितों के शोषण और अत्याचार का एक सदियों पुराना और लंबा सिलसिला है, जो अब भी किसी न किसी रूप में बरकरार है।
 
गुलाम भारत में अंबेडकर के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष ने दलितों को जहां राह दिखाई वहीं आजाद भारत में दलितों के सम्मानजनक स्थान के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया। लेकिन लगता नहीं है कि आत्मसम्मान और गरिमा की लड़ाई में दलित समुदाय अब भी अकेला है? और अंबेडकर का उपयोग सभी दल करना चाहते हैं?
 
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्कूल में पढ़ते समय भीम की प्रतिभा और लगन को देखकर महादेव अंबेडकर नामक ब्राह्मण अध्यापक अपने बेहद प्रिय इस छात्र को दोपहर की छुट्टी के समय अपने भोजन से चावल, दाल व रोटी देते थे। यह अत्यधिक स्नेह ही था, जो भीमराव का उपनाम सकपाल घराने के अंबेवाड़ी गांव के चलते अंबेवाडेकर से बदलकर अपना ब्राह्मण उपनाम अंबेडकर कर दिया बल्कि स्कूल के रजिस्टर तक में बदल डाला।
 
इस तरह दलित भीम के नाम के साथ ब्राम्हण अंबेडकर का नाम सदैव के लिए जुड़ गया। लेकिन राजनीति की फितरत देखिए कि भीमराव अंबेडकर के नाम पर राजनीति थमने का नाम ही नहीं ले रही है जबकि उनका स्थान शुरू से ही राजनीति से कहीं ऊपर था है और रहेगा।
 

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