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एक था "कश्मीर"

हमें फॉलो करें एक था
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सुशोभित सक्तावत

"महाभारत" के "वनपर्व" में एक "काश्मीरमंडल" था। वैदिक काल में एक "कश्यपमेरु" था। कश्मीर में कभी "कल्हण" और "क्षेमेन्द्र" भी हुए थे। कश्मीर हमेशा से ही वैसा कश्मीर नहीं था, जैसा कि वह आज है!
 
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कल्हण की "राजतरंगिणी" संस्कृत साहित्य की रत्न-मंजूषा है। "राजतरंगिणी" लिखने की प्रेरणा उन्हें क्षेमेन्द्र की "नृपावली" से मिली थी और इन दोनों ही इतिहास-कृतियों के शीर्षकों में भी साम्य है। कल्हण ने कश्मीर के इतिहास को आठ खंडों में विभाजित करते हुए सन् 1148 से 1150 तक के कालक्रम की विवेचना की है, यानी ऐन आरंभ से लेकर उस काल तक, जब भारतभूमि पर "यवनों" का प्रवेश हो चुका था और कश्मीर की उपत्यकाएं रक्तरंजित होने लगी थीं।
 
लेकिन क्षेमेन्द्र से प्रेरित होने के बावजूद "राजतरंगिणी" में कल्हण यह लिखना नहीं भूले कि जहां क्षेमेन्द्र की वर्णनक्षमता अद्भुत है, वहीं उनके इतिहास में अनेक काव्यगत भूलें हैं, जिनका तथ्यों के आधार पर समाहार किया जाना आवश्यक है!
 
ये वही कल्हण हैं, जिन्होंने "राजत‍रंगिणी" के प्रारंभ में ही एक रचनाकार के लिए यह निकष निर्धारित किया है : "श्लाध्य: स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता।" यानी एक सच्चे कवि को किसी न्यायाधीश के समान राग-द्वेष से मुक्त होना चाहिए।
 
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इधर मैं आदित्य नारायण धैर्यशील हकसर द्वारा संस्कृत से अंग्रेज़ी में अनूदित क्षेमेन्द्र की "समय मातृका" और "देशोपदेश" के कुछ अंश पढ़ रहा था और मेरा ध्यान क्षेमेन्द्र की विलक्षण परिहास-क्षमता ने खींचा, जो अपने समकाल को एक ऐसे पर्यवेक्षण-सामर्थ्य और सहज उत्फुल्लता के साथ देख रही थी, जो ईसा के बाद दूसरी सहस्राब्दी के आरंभ में कश्मीर तो क्या समूचे भारत में ही अन्यत्र दुर्लभ थी।
 
किसी काल में इस प्रांत में आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त ने काव्यशास्त्रीय निरूपणों को एक दूसरे स्तर पर पहुंचा दिया था, किंतु उनके उद्यमों से कितना पृथक, कितना वस्तुनिष्ठ और आधुनिक भावबोध से कितना ओतप्रोत था कल्हण और क्षेमेन्द्र का रचनालोक! एक इतिहासकार, दूसरा व्यंग्यकार, और दोनों ही आत्मालोचन की क्षमता से परिपूर्ण।
 
कल्हण और क्षेमेन्द्र दोनों ही कश्मीरी ब्राह्मण थे! कश्मीरी ब्राह्मण नामक यह जाति इन दिनों दुर्लभ हो चली है, कम से कम अपने मूलस्थान में तो निश्चय ही, और उसके निरंतर लोप के पक्ष में अनेक तर्क इधर महाकवियों द्वारा नितांत निर्लज्जता के साथ दिए जाते रहे हैं।
 
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कर्कोटक, उत्पल और लोहार, तीनों राजवंशों में नृपश्रेष्ठ ललितादित्य जहां का यशस्वी नरेश रहा। मार्तण्ड सूर्य मंदिर जहां अनंतनाग की भोरवेला में भुवन भास्कर का आराधन करता रहा। जहां से बौद्ध धर्म मध्येशिया, चीन और तिब्बत पहुंचा। और जहां तमिलों का शैवमत मानो एक भौगोलिक और दार्शनिक ऊर्ध्वयात्रा करते हुए अपने अद्वैतवादी उत्कर्ष तक पहुंचा। वह कश्मीर आज कहां खो गया है? और उसके स्थान पर यह कैसा नर्क हम आज वहां देख रहे हैं?
 
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जाने कैसा इतिहास हमें पढ़ाया गया है कि कश्मीर को आज हम किन्हीं लड़ाइयों और ऐतिहासिक भूलों और विवादों और आक्रमणों और दुरभिसंधियों के लिए याद रखते हैं, जैसे कि कश्मीर का इतिहास 1947 से शुरू होता हो, वहां तक से नहीं, जहां पर कल्हण ने उसे ले जाकर अपनी कलम तोड़ दी थी!

और जाने कैसी तो हमारी अतीतदृष्ट‍ि है कि कश्मीर के नाम पर हमें अशोक का "श्रीनगर" याद नहीं आता, अनवरत आत्मध्वंस में लिप्त वह वादी याद आती है, जो लहू से लथपथ है! फिर "कश्यपमेरु" का ही क्या रोना रोएं, फिर उससे आगे "पुरुषपुर", उससे भी आगे "गांधार" और उससे और आगे "कम्बोज महाजनपद" का शोक क्यों ना करें?
 
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जब मैं आज से पूरे एक हज़ार साल पहले लिखी गई "राजतरंगिणी" और "देशोपदेश" में दर्शाई गई अद्भुत आत्मालोचनात्मक दृष्ट‍ि देख रहा था तो सहसा मुझे इमरे कर्तेश याद आया, जिसने डार्विन के "सर्वायवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट" के सिद्धांत को सिर के बल खड़ा करते हुए कहा था कि जो श्रेष्ठ है वह नहीं बल्‍कि जो निकृष्ट है वही अंत में बचेगा! और सभ्यताओं के संघर्ष में पराजय हमेशा श्रेष्ठ जातियों की होगी!
 
यवनों को जीतना है, आर्यों को परास्त होना है, यह नियत है! बशर्ते आर्य यवनों की अनुकृति बनकर स्वयं को स्वयं ही पराजित ना कर दें!
 
श्रेष्ठता निष्कवच होती है। दुर्बल होती है। और इतिहास की बागडोर उन नृशंस शक्त‍ियों के हाथों में होती है, जो रौंदने और कुचलने से पहले पलभर विचार नहीं करतीं। ऐसे में, कल्हण के "श्लाध्य: स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता" का भला क्या मोल?
 
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इधर मैंने पिछले कुछ दिनों में यह जघन्य तर्क बारम्बार सुना है कि भारत आक्रांताओं के हाथों इसलिए हार गया क्योंकि भारत इसी योग्य था।
 
हां, निश्च‍ित ही, भारत इस योग्य था। वह निष्कवच था, निरापद था। भारत श्रेष्ठ था, इसलिए क्षतविक्षत हो गया।
विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल ने अकारण ही भारत को एक "रक्तरंजित सभ्यता" नहीं कहा था।
 
आज जब मैं भारत-देश की आत्महंता वृत्त‍ि का प्रदर्शन अहोरात्र और अहर्निश देखता हूं, आत्मालोचन में रत, आत्मद्रोह से पूर्ण, आत्मक्षोभ तक से ग्रस्त, तो यह पूरे का पूरा इतिहास मेरी आंखों के सामने दोहरा जाता है!
 
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मेरे प्यारे देश, तुम टूट जाओ, तुम बिखर जाओ, तुम नष्ट हो जाओ, तुम इसी के योग्य हो। तुम्हें शेष रह जाने का अधिकार भला क्यों हो? मेरे प्यारे भारत, एक आसन्न सर्वनाश ही तुम्हारा भवितव्य है!

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