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ये हैं आपातकाल के 'खलनायक'

हमें फॉलो करें ये हैं आपातकाल के 'खलनायक'
चालीस वर्ष पहले देश में लगे आपात काल के लिए केवल इन्दिरा गांधी को ही दोषी ठहराया जाता है, लेकिन आपातकाल के दौरान देश में जो कुछ हुआ, उसके लिए मात्र वे ही जिम्मेदार नहीं थीं। श्रीमती गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी के आसपास ऐसे लोगों का जमावड़ा था जो कि सभी व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने में यकीन रखते थे। 
आपातकाल लगाने के लिए अगर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर की जरूरत पड़ी थी तो इंदिराजी के पास सिद्धार्थ शंकर रे जैसा विधिवेत्ता और संवैधानिक मामलों का जानकार भी था, जिनसे वे सलाह लिया करती थीं। रे ने ही उन्हें आपातकाल लगाने का विचार सुझाया और क्रियान्वित किया था। 
आपातकाल से पहले इंदिराजी ने पाकिस्तान के खिलाफ एक लड़ाई जीती थी और इसके लिए उन्हें बहुत वाहवाही मिली थी। जो हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था, वह आज का बांग्लादेश बन गया। लड़ाई के दौरान पाक सेना के 93 हजार फौजियों ने आत्मसमर्पण किया था हालांकि बाद में इन्हें 'शिमला समझौते' के नाम रिहा कर दिया गया था, जबकि उनसे कहा गया था कि वे इस तरह का एकतरफा फैसला न लें। इस कारण से आम चुनावों में उन्हें प्रचंड बहुमत मिला था और उनके बारे में कहा जाता था कि अपने मंत्रिमंडल में वे ही एक मात्र 'मर्द' थीं और कोई दूसरा नहीं था जो कि उन्हें चुनौती देने का साहस कर सकता था। 
अब तत्कालीन पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के अतीत में झांकें और पता करें कि वे ऐसे राष्ट्रपति क्यों हुए जिन्होंने इंदिरा गांधी के रबर स्टाम्प की तरह काम किया? कहा जाता है कि वे देश विभाजन से पहले एक मुस्लिम लीगी नेता थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना के सचिव रहे मुइन उल हक चौधरी के साथ मिलकर असम में 20 लाख से अधिक बांग्लाभाषी मुस्लिमों को बसाया था।
 
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उनका यह काम देश के विभाजन से पहले का है और उनकी इस कृपा के परिणामस्वरूप असम में न केवल बांग्लादेशियों का स्थायी निवास बना वरन वे क्षेत्र का बड़े पैमाने पर इस्लामीकरण करने में भी सफल हुए। जब देश का विभाजन हुआ तो बहुत से मुस्लिम लीगियों की तरह वे भी खद्दर की शेरवानी पहनकर रातोंरात कांग्रेसी बन गए। इंदिरा गांधी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में मंत्री बनाया था। कांग्रेस का मुस्लिम प्रेम तो बहुत पुराने समय से रहा है सो मुस्लिमों और तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों को खुश करने के लिए उन्हें महत्वपूर्ण पद दिए गए। 
 
उनके बारे में कहा जाता है कि वर्ष 1974 में एक अरब देश मोरक्को की राजधानी रबात में इस्लामी देशों का सम्मेलन हुआ और तब भारत के प्रतिनिधि के तौर पर उन्हें इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए भेजा गया था। लेकिन इस सम्मेलन में उन्हें घुसने तक नहीं दिया गया और वे जैसे गए थे, वैसे वापस लौटकर दिल्ली आ गए थे।
 
इंदिराजी का यह काम भी मुस्लिमों को रिझाने के लिए था। वे असम में सेना के एक डॉक्टर के बेटे थे, जिन्होंने कैम्ब्रिज से कानून की पढ़ाई की थी। 1935 में वे असम की विधानसभा के लिए चुने गए थे और बाद में श्रीमती गांधी ने उन्हें अपनी कैबिनेट में सिंचाई व ऊर्जा मंत्री, शिक्षा, औद्योगिक विकास और कृषि मंत्री बनाया था। 1974 में वे देश के पांचवें राष्ट्रपति बने थे और यह उन पर श्रीमती गांधी की कृपा थी। इसलिए वे श्रीमती गांधी की बात का विरोध करने का साहस ही नहीं रखते थे।   
 
इन्होंने ड्राफ्ट की थी आपातकाल की अधिसूचना... पढ़ें अगले पेज पर....

आपातकाल की अधिसूचना को ड्राफ्ट करने वाले सिद्धार्थ शंकर रे बंगाल के मुख्यमंत्री थे। रे प्रसिद्ध देशभक्त देशबंधु चितरंजन दास के नाती थे, जिन्हें नेताजी सुभाषचंद्र बोस का राजनीतिक गुरु माना जाता है। जब विख्यात क्रांतिकारी और बाद में तपस्वी बने अरविंद घोष को अलीपुर बमकांड से ससम्मान बरी कराने की बात आई तो देशबंधु दास ने महर्षि घोष के लिए निशुल्क वकील के तौर पर काम किया था। वे अपने जमाने के दिग्गज बैरिस्टरों में गिने जाते थे।
 
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ऐसे मुख्यमंत्री रे 25 जून, 1975 की सुबह दिल्ली के बंग भवन में अपने बिस्तर पर लेटे थे कि प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रधानमंत्री के विशेष सहायक आरके धवन ने उन्हें फोन कर तलब किया और जल्द ही श्रीमती गांधी से मिलने को कहा। जब रे, 1 सफदरजंग रोड के प्रधानमंत्री आवास पर पहुंचे तो उन्होंने इंदिरा जी को अपने स्टडी कक्ष की बड़ी मेज के सामने बैठा पाया और उनके सामने खुफिया सूचनाओं का अंबार लगा था।
 
उन्होंने दो घंटों तक रे के साथ देश की स्थिति पर चर्चा की और अपनी आशंका जाहिर की थी कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति की 'हेट लिस्ट' में सबसे ऊपर हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे की तरह से उनकी भी सरकार गिरा दें। उन्हें यह भी डर था कि उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों में सीआईए के एजेंट भी शामिल हो सकते हैं।
 
श्रीमती गांधी की चिंता का यह आलम था कि उन्होंने तब उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के बंगले पर भी जासूसी के लिए आईबी का डीएसपी रैंक का अधिकारी नियुक्त कर रखा था। कहने का आशय है कि उन्हें सबसे ज्यादा डर सत्ता जाने से लगता था।        
 
इंदिराजी ने बाद में एक इंटरव्यू में माना कि वे विरोधी दलों के नेताओं की सभी बातें नहीं मान सकती थीं क्योंकि वे उनके इस्तीफे की मांग कर रहे थे। तब बिहार और गुजरात की विधानसभाएं भंग की जा चुकी थीं। रे उनकी नजर में एक बड़े संविधान मर्मज्ञ थे और इसी कारण से उन्होंने अपने तत्कालीन विधि मंत्री एचआर गोखले की बजाय उनसे सलाह ली थी। वे मानती थीं कि वे देश को एक 'शॉक ट्रीटमेंट' देना जरूरी था, इसलिए उन्होंने आपातकाल लगाने का फैसला किया। जब उनसे कहा गया कि इस पर राष्ट्रपति कोई आपत्ति उठा सकते हैं, तो रे ने उन्हें आश्वस्त किया कि वैसे तो मंत्रिमंडल की सहमति जरूरी है, लेकिन वे राष्ट्रपति से कह दें कि उनके पास मंत्रिमंडल की बैठक बुलाने का समय नहीं था। जब यह आदेश राष्ट्रपति के सामने पहुंचा तो वे सो रहे थे इसलिए उन्हें जगाकर हस्ताक्षर लिए गए। और देश सुबह होते ही आपातकाल की गिरफ्त में था। 
 
उस समय सरकारी आतंक का पर्याय था यह चेहरा... पढ़ें अगले पेज पर....

श्रीमती गांधी का भयादोहन करने के लिए उनके छोटे बेटे संजय गांधी की भूमिका बहुत खास रही है। संजय के कार्यक्रमों और नीतियों के कारण इंदिरा गांधी को दुर्दिन देखने पड़े थे। इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र उस समय सरकारी आतंक का पर्याय बन गए थे। उनके 15 सूत्री कार्यक्रम में वृक्षारोपण के साथ ही सबसे अधिक बल परिवार नियोजन पर था। कृत्रिम उपायों से अधिक जोर पुरुषों और स्त्रियों की नसबंदी पर था। जिलाधिकारियों में अधिकाधिक नसबंदी कराने की ऐसी होड़ लगी थी कि पुलिस और पीएसी से रात में गांव घिरवाकर नसबंदी के योग्य-अयोग्य जो मिला, उसकी बलात नसबंदी करा दी गई। 
 
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इसके परिणामस्वरूप अविवाहित युवकों, विधुर गृहस्थों और बूढ़ों तक की नसबंदी करके आंकड़े बढ़ाए गए। लाखों के वारे-न्यारे हो गए, लेकिन अधीनस्थ कर्मचारियों की विवशता देखते बनती थी। अपनी या अपनी पत्नी की नसबंदी कराने के बाद भी नसबंदी के कम से कम दो 'केस' देना अनिवार्य था अन्यथा अर्जित अवकाश, अवकाश नकदीकरण, चरित्र-पंजी में अच्छी प्रविष्टि, स्कूटर-मोटरसाइकिल, गृह-निर्माण, भविष्य-निधि से अग्रिम स्वीकृत नहीं किए जाते थे। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी थी, लेकिन किसी में भी प्रतिरोध करने का साहस नहीं था। ऐसी घोर-परिस्थिति में भी उत्तरप्रदेश के एक जिले शाहजहांपुर के जिला अधिकारी ने नसबंदी के लिए किसी का उत्पीड़न न करने का साहस दिखाया था। 
 
जब राज्य के मुख्य सचिव ने नसबंदी मामलों की उनके जिले से प्रदेश में न्यूनतम संख्या पर कड़े शब्दों में स्पष्टीकरण मांगा, तो उनका निर्भीक उत्तर था, 'सर! शासनादेश में 'स्वेच्छा से' नसबंदी कराने का स्पष्ट उल्लेख है, ऐसे में किसी प्रकार की जोर-जबर्दस्ती करके किसी की नसबंदी कैसे कराई जा सकती है? मुख्य सचिव को ऐसा उत्तर सुनने की कल्पना तक न थी पर उनकी हिम्मत उन जिला अधिकारी का स्थानांतरण करने तक की नहीं पड़ी। तब पूरे कुएं में ऐसी भांग पड़ी थी कि अत्याचारों की सीमा नहीं थी। सर्वाधिक प्रताड़ना उन परिवारों की महिलाओं एवं बच्चों को झेलनी पड़ी थी, जिनके घर के कमाऊ सदस्य जेलों में ठूंस दिए गए थे। दिल्ली को सुंदर बनाने के नाम पर तुर्कमान गेट के आसपास की बस्तियों को उजाड़ दिया गया, जिससे बड़ी संख्या में लोग बेघर हो गए। 
 
उस समय के एक दुखद उदाहरण पर गौर करें। लखनऊ के चौपटिया मोहल्ले के निवासी सोशलिस्ट नेता रामसागर मिश्र को मीसा में बन्द कर दिया गया था। जून का महीना था और भीषण गर्मी समय में उनके अल्पवयस्क पुत्र ने पिता की रिहाई के लिए हनुमान जी का निर्जल-व्रत रखकर अपने घर से अलीगंज हनुमान-मन्दिर तक दंडवत-यात्रा, बड़े मंगल (ज्येष्ठ मास का प्रथम मंगल) को करने की ठानी और लोग उस पर जल डालते साथ चल रहे थे। पर मन्दिर पहुंचकर दर्शन करने के पहले ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। उधर रामसागर मिश्र भी जेल से जीवित न लौट पाए। ऐसी अनेकों दारुण कथाएं हैं, जिनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।  
 
उस दौर में देश के गणमान्य विद्वानों, मनीषियों को भी नहीं छोड़ा गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाध्यक्ष डॉ. रघुवंश को जेल में डाल दिया गया जबकि उनके दोनों हाथ भी ठीक से काम नहीं करते थे। उन पर रेल की पटरियां उखाड़ने का आरोप लगाया गया। मराठी की प्रसिद्ध लेखिका दुर्गा भागवत ने एक सम्मेलन में आपातकाल की आलोचना क्या की, उनको भी जेल में डाल‍ दिया गया। काशी के प्रकांड विद्वान डॉ. बलदेव उपाध्याय को जेल में डाल दिया गया तो नाराज लोगों ने जिलाधीश के बंगले पर प्रदर्शन किया, लेकिन फिर भी उन्हें एक रात जेल में रहना ही पड़ा। प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने भी आपातकाल के खिलाफ बोल दिया तो इलाहाबाद का जिला प्रशासन उन्हें भी जेल में डालने के लिए तत्पर हो गया लेकिन तब एक इंदिराजी के करीबी पत्रकार ने उनको यह बात बताई तो उन्होंने मामले में हस्तक्षेप किया। महादेवी जी नेहरू को अपने भाई जैसा मानती थीं और यह बात इंदिराजी को पता थी। 
 
इन महारानियों को भी जेल जाना पड़ा था... पढ़ें अगले पेज पर....
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दो राजपरिवारों की माताओं को भी अकारण ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। ग्वालियर राजघराने की विजयाराजे सिंधिया और जयपुर राजघराने की महारानी गायत्री देवी को भी जेल जाना पड़ा और गायत्री देवी का दोष इतना था कि वे बहुत सुंदर थीं और इंदिराजी उन्हें पसंद नहीं करती थीं। ऐसे समय में आरएसएस के देश भर से करीब 1 लाख 76 हजार स्वयंसेवकों को जेल में डाल दिया गया था। संघ के उच्च पदस्थ पदाधिकारियों से लेकर सरसंघ चालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस (जिन्हें बालासाहब देवरस के नाम से भी जाना जाता था) स्वयंसेवकों को भी जेल में ठूंस दिया गया था। वे उस समय संघ के तीसरे सरसंघ चालक थे।
 
आपातकाल के दौरान 1,10,806 लोगों को जेल में डाला गया। इनमें से 34,988 को मीसा कानून के तहत बंदी बनाया गया जिसमें उन्हें यह भी नहीं बताया गया कि उन्हें बंदी बनाने के कारण क्या हैं? इन बंदियों में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीज और बड़ी संख्या में सांसद, विधायक तथा प्रमुख पत्रकार भी सम्मिलित थे।
 
लगभग अधिकांश मीसा बंदियों ने अपने-अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी, लेकिन सभी स्थानों पर सरकार ने एक जैसा जवाब दिया कि आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलंबित हैं और इसलिए किसी बंदी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए।
 
सरकार ने इसके विरोध में न केवल सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अपितु उसने इन याचिकाओं की अनुमति देने वाले न्यायाधीशों को दंडित भी किया। भाजपा के शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी डायरी लिखा, 'मैंने 19 ऐसे न्यायधीशों के नाम दर्ज किए हैं जिनको एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में इसलिए स्थानांतरित किया गया कि क्योंकि उन्होंने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था।'  
 
ये कुछ और चेहरे, जो आपातकाल के दौरान संजय गांधी के करीबी रहे... पढ़ें अगले पेज पर....

कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे चौधरी बंसीलाल हरियाणा के उन तीन लालों में से एक रहे हैं जिन्हें हरियाणा पर राज करने का मौका मिला। देवीलाल, भजनलाल और बंशीलाल तीनों ही राज्य के मुख्‍यमंत्री रहे। बंसीलाल को तीन बार राज्य का मुख्यमंत्री बनने का सम्मान मिला और बाद में वे कांग्रेस के कैबिनेट मंत्रियों में भी शामिल रहे थे।

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हरियाणा में भिवानी को उनकी कर्मस्थली के तौर पर जाना जाता है। पर आपातकाल के दौरान कांग्रेस पार्टी में उनकी इंदिरा जी के साथ-साथ संजय गांधी से भी निकटता रही और उनका नाम भी विवादों से जुड़ा रहा, लेकिन हरियाणा को बिजली उत्पादन के मामले में आगे बढ़ाने के लिए आज भी चौधरी बंशीलाल को याद किया जाता है। 
 
संजय गांधी के करीबी रहे जगदीश टाइटलर पर 1984 में सिख विरोधी दंगे फैलाने का आरोप रहा है। भारी दबाव के बीच कांग्रेस पार्टी ने 2009 के आम चुनावों में उनकी उम्मीदवारी वापस ले ली थी। हालांकि वे कई बार केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं और कांग्रेस के शासनकाल में अप्रवासी मामलों के राज्यमंत्री रहे हैं लेकिन कथित तौर पर सिख विरोधी दंगों में शामिल होने के सबूत मिलने के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। हालांकि वे दंगों में अपनी भूमिका से लगातार इनकार करते रहे हैं। इसी मामले में एक और आरोपी सज्जन कुमार भी कांग्रेस सांसद रहे हैं। 
 
कांग्रेसी नेताओं की परिपाटी के अनुरूप दल के वरिष्ठ नेता कमलनाथ जहां एक समय पर युवा कांग्रेस के प्रतीक संजय गांधी के पीछे खड़े दिखते थे, उन्हें अब राहुल गांधी के पक्ष में बयान देने के लिए जाना जाता है। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने हिमाचल प्रदेश में एक कंपनी स्पैन मोटल्स रिजार्ट्‍स प्रालि के स्पैन रिजार्ट्‍स बनवाने के लिए ब्यास नदी की धारा को ही मोड़ दिया था। इस कंपनी से उनके सीधे संबंध थे और पर्यावरण कानूनों की धज्जियां उड़ाने के इस मामले के समय वे वन और पर्यावरण मंत्री थे और यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। वैसे भी वे एक राजनीतिज्ञ होने से पहले वे एक उद्योगपति हैं। एमसी मेहता बनाम कमलनाथ मुकदमे में वनमंत्री ने कंपनी को जमीन दिलाने की जो उदारता दिखाई थी, उसे कोर्ट ने खारिज कर दिया था।   
 
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संजय के एक और करीबी विद्याचरण शुक्ल जानेमाने वकील, स्वतंत्रता सेनानी और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता रविशंकर शु्क्ल के बेटे थे, जो पुनर्गठित मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री भी थे। शुक्ल नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए। वह इंदिरा गांधी सरकार के दौरान सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री भी बने और आपातकाल के दौरान उनकी भूमिका विवादों के घेरे में भी रही।
 
दो वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ में शुक्ल नक्सलियों के हमले में बुरी तरह घायल हुए थे और उन्हें गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां इलाज के दौरान उनका निधन हो गया था। आपातकाल के उस दौर के संजय गांधी जहां सत्ता के दूसरे केन्द्र थे, वहीं उनके आसपास चाटुकार नेताओं की कमी नहीं थी। चौधरी बंशीलाल, जगदीश टाइटलर, कमलनाथ, विद्याचरण शुक्ल आदि नेता उनके इर्द-गिर्द रहते तो आरके धवन और यशपाल कपूर जैसे विश्वस्त श्रीमती गांधी की सेवा में हाजिर रहते थे। इनमें से कोई मुख्यमंत्री था तो कोई केन्द्रीय मंत्री, लेकिन सबका उद्देश्य केवल श्रीमती गांधी और संजय गांधी को खुश रखना था लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि संजय गांधी की विधवा मेनका गांधी और उनके पुत्र वरुण गांधी उस राजनीतिक दल, भाजपा, से जुड़े हैं जिसे उनका परिवार फूटी आंख देखना भी पसंद नहीं करता था।
  

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