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पर्यावरण विशेष : लगातार गर्म हो रही है पृथ्वी

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राजकुमार कुम्भज

इस बार सर्दियां समय से पहले ही लौट गई हैं और बसंत ने अत्यंत ही प्रभावशाली ढंग से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना शुरू कर दिया है। हालांकि दोपहर की धूप अभी असहनीय नहीं हुई है, लेकिन वह गर्माहट का अहसास करवाने के लिए पर्याप्त साबित हो रही है और स्वेटर, कोट, जैकेट आदि की ज़रूरत नहीं रह गई है। धूप सेंकने के लिए घना इंतजार करने वालों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है, किंतु ऐसा भी नहीं हुआ है कि सर्दियां सिरे से ही गायब हो गई हों। सुबह-शाम की शरारती सर्दी अब भी कायम है और इसी सब के साथ कमोबेश यह कहने वाले भी मिल ही जाएंगे, जो कह रहे हैं कि इस बरस कड़ाके की सर्दियां आई ही नहीं। इस तरह के उलाहने शायद सही नहीं हैं, लेकिन हमारी यह पृथ्वी तेज़ गति से गरम हो रही है और हम ग्लोबल वार्मिंग की तरफ बढ़ रहे हैं, यही ज़्यादा सही है।

   स्मरण रखा जा सकता है कि उत्तर भारत के कई-कई इलाकों में इस बरस हाड़ कंपा देने वाली जबर्दस्त सर्दियां आई हैं और इसी बरस पहाड़ों पर तो हिमपात के रिकॉर्ड भी टूटे हैं। लेकिन यह कहा जाना जरा भी अन्यथा नहीं होगा कि इधर बरस-दर-बरस कड़ाके की सर्दियों की अवधि निरंतर घटती जा रही है। सर्दियों के मौसम में कुछ ही खास दिन ऐसे होते हैं, जब कड़ाके की सर्दियां हमें चिढ़ाती हैं। जोरदार सर्दियों के दिनों की दिनों-दिन कमी अखरती भी है और समूची सर्दी का मौसम बस थोड़ी शरारती सर्दी के तोहफे में ही गुजर जाता है। अन्यथा नहीं है कि ऐसा सब ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ही हो रहा है। पिछले एक दशक से दुनियाभर के वैज्ञानिक इस समस्या से जूझ रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के ख़तरे से कैसे निपटा जाए ?
 
वैज्ञानिकों के शोध बता रहे हैं कि देश का न्यूनतम तापमान तेजी से बढ़ रहा है और आनेवाले बरस-दर-बरस में यह और भी ज्यादा तेजी से बढ़ता दिखाई देगा। एक अनुमान के मुताबिक अगले चार बरस में न्यूनतम तापमान 0.9 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि वर्ष 2050 तक न्यूनतम तापमान 2.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा और अगले तीस बरस में यह 3.6 डिग्री सेल्सियस तक उछल जाएगा। न्यूनतम तापमान में दिखाई देने वाली यह गति की अति कोई सिर्फ मौसम आधारित अति नहीं है, बल्कि यह हमारे मौज़़ूदा समय का एक खतरनाक संकेत भी है। ऐसी चेतावनीभरी खबरें कुछेक अंतराल से लगभग आए ही दिन आती रहती हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरे बढ़ते जा रहे हैं और हमें इनसे बचाव में ज़रूर कुछ बेहतर करना चाहिए। 
 
चुनौती साधारण नहीं है। चेन्नई स्थित सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड एडोप्टेशन रिसर्च का कहना है कि सर्दियों के मौसम में दिखाई देने वाली शरारती सर्दियों का होना एक सामान्य स्थिति है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अब से कड़ाके की सर्दियों के दिन लद गए हैं, बल्कि इसका अर्थ यह है कि अब से जब भी कड़ाके की सर्दियां आएंगी, तो वह सर्दियों का असामान्य मौसम ही रहेगा और सामान्य सर्दियों का मौसम सामान्य शरारती सर्दियों का ही मौसम बना रहेगा। यह निष्कर्ष हमारे देश के परिवर्तनशील पर्यावरण पर ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को नापने के लिए किए गए अनुसंधानों का नतीजा है। हमें जानना चाहिए कि पृथ्वी क्यों गरम हो रही है ?
 
तमाम कोशि‍शों, सम्मेलनों और संधि-समझौतों के बावजूद हम अभी तक इस समस्या का कोई विश्वसनीय समाधान नहीं निकाल पाए हैं कि आखिर ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को कैसे टाला जाए? यहां यह देखा जाना वाकई बेहद दिलचस्प हो सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार और गुनहगार विकसित देश पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, जबकि विकासशील देश अपने-अपने अंदाज में और अपने-अपने अंदाज से विकसित देश बन जाने की ‘‘हर संभव कोशिश’’ करने में सक्रिय हैं। धन-संपदा बढ़ाने और वन-संपदा घटाने सहित इस ‘हर संभव कोशिश’ में ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने वाला हर कोई ज्ञात-अज्ञात कारनामा शामिल है।
 
अभी-अभी संपन्न हुए पेरिस जलवायु-सम्मेलन में शामिल दुनिया के तकरीबन दो सौ देशों ने मिल-जुलकर तय किया था कि वे दुनिया के तापमान को, औद्योगिक क्रांति से पूर्व उपलब्ध तापमान से डेढ़ डिग्री ज्यादा तक सीमित करने के प्रावधान को अपनाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पेरिस जलवायु सम्मेलन वर्ष 2015 दिसंबर में संपन्न हुआ था और वर्ष 2016 की जनवरी, इतिहास की दूसरी सबसे गरम जनवरी हमारे सामने थी। फिर वर्ष 2016 इतिहास का सबसे गरम वर्ष भी रहा और अब इधर नासा के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए वैश्विक-तापमान विश्लेषण में पाया गया है कि वर्ष 2017 की जनवरी हमारे समय की अब तक की तीसरी सबसे गरम जनवरी रही। यह सब हमारे दैनिक क्रिया-कलापों का ही नतीज़ा है, जिसके पीछे विकसित देषों की हठधर्मिता ही ज़्यादा जि‍म्मेदार है।
 
वर्ष 2017 की जनवरी चीन में भी पर्यावरण असंतुलन लेकर आई ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही चीन में भी जनवरी माह ‘ज्यादा वायु-प्रदूषण का ज्यादा दिनों तक शि‍कार’ बना रहा। चीन का उत्तरी इलाका इस सब समस्या से कुछ अधिक ही प्रभावित रहा। याद रहे कि उक्त जानकारी चीन के पर्यावरण सुरक्षा मंत्रालय द्वारा उपलब्ध करवाए गए आधिकारिक आंकड़ों में ही दी गई है। स्मॉग पैदा करने वाले सूक्ष्म कण पीएम 2.5 का औसतन घनत्व 14.7 फीसदी अधिक अर्थात् 78 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर अधिक पाया गया। चीन के 74 बड़े शहरों में से, हैनान प्रांत के हाइकू शहर में हवा सबसे ज्यादा साफ रही, जबकि हेबेई प्रांत का शिजियाजहुआंग शहर सबसे अधिक बुरी तरह प्रभावित पाया गया। इस समस्त प्रसंग को गंभीरता से क्यों नही समझा जाना चाहिए ? पड़ोसी होने के साथ ही साथ भारत और चीन इसी विश्व का हिस्सा भी हैं और परिवर्तनशील-पर्यावरण के प्रति उतनी ही संवेदनशीलता से सक्रिय हैं। 
 
अमेरिका स्थित नासा के ‘गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज’ के वैज्ञानिकों का अध्ययन बता रहा है कि उत्तरी अमेरिका और साइबेरिया का अधिकतर हिस्सा वर्ष 1951 से 1980 की आधार अवधि अनुसार, वर्ष 2017 जनवरी में औसतन 0.92 डिग्री सेल्सियस गर्म रहा। इस तरह नासा के एक अध्ययन अनुसार वर्ष 2017 की यह तीसरी जनवरी रही, जो सबसे गरम रही। दूसरी सबसे गरम जनवरी वर्ष 2016 की थी और पहली वर्ष 2007 की, अब से दस बरस पहले रही थी। 137 बरस पहले ही हमने आधुनिक तरीके से मौसम का रिकॉर्ड रखना प्रारंभ किया था, क्योंकि 137 बरस से पहले का मौसमी रिकॉर्ड हमारे पास उपलब्ध ही नहीं है। जनवरी 2016 के मुकाबले वर्ष 2017 की जनवरी 0.20 डिग्री सेल्सियस कम गरम थी, जाहिर है कि 137 बरस के उपलब्ध मौसमी-इतिहास में हमें अभी तक जो तीन सबसे गरम जनवरी मिली हैं, वे वर्ष 2007 से 2017 के एक दषक में ही मिली हैं। पृथ्वी का इस तरह गरम होना कोई आकस्मिक नहीं है।
 
इधर फरवरी ने भी अपने बढ़ते तापमान में एक दषक का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। फरवरी में अप्रैल-मई जैसी गर्मियां देखी जा रही हैं। दिन का तापमान 34 डिग्री सेल्सियस के करीब पहुंच चुका है। ऊपरी हवाओं में बनने वाले सभी सिस्टम तकरीबन कमज़ोर पड़ चुके हैं। इस सबसे ठंडी हवाओं के लौटने की उम्मीद भी ठंडी पड़ चुकी है। वैसे देखा जाए तो 15 मार्च तक ठंड का सिस्टम बना रहता है। इस वर्ष गर्मी पिछले वर्षों की तुलना में कहीं अधिक होने की संभावना है। बहुत संभव है कि पिछले सभी रिकॉर्ड टूट जाएं। अंतर्राष्ट्रीय मौसम वेबसाइट स्काईमेट का कहना है कि गत वर्ष के अधिकतम तापमान में इस वर्ष एक से दो डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है। इसकी वजह ग्लोबल वार्मिंग, बार-बार आ रहे पश्चिमी विक्षोभ और स्थानीय शहरी कारक जि‍म्मेदार हैं। स्मरण रखा जा सकता है कि पिछले बरस फरवरी में विश्व का तापमान बीसवीं सदी के औसत तापमान से 0.16 डिग्री सेल्सियस अधिक पाया गया था।
 
137 वर्षों के मौसमी-रिकॉर्ड के मुताबिक, पहले वर्ष 2015 सबसे गर्म साबित हुआ, फिर वर्ष 2016 ने यह तमगा हासिल कर लिया और अगर मौसम यूं ही परिवर्तनशील बना रहा तो बहुत संभव है कि वर्ष 2017 अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हो जाए, क्योंकि इस बरस की गर्मियाँ पचास डिग्री सेल्सियस तक का पारा छू सकती हैं, तब सामान्य मनुष्यों और मवेशियों का क्या होगा ?
 
दूसरी तरफ कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि गरम और ठंडे होने का एक प्राकृतिक चक्र होता है, जो हमारी सभ्यता के उद्गम की अवधारणा के पहले से ही चल रहा है और अनुमानतः आगे भी ऐसा ही चलता रहेगा। हमारी यह पृथ्वी अभी तो उसी अवधारणा से प्रेरित गरम-ठंडा होने के प्राकृतिक-चक्र का अनुसरण कर रही है, किंतु यहां उन वैज्ञानिकों के मत का भी पर्याप्त सम्मान किया जाना चाहिए। जिनकी मान्यता है कि हमारी यह पृथ्वी गरम होने से पहले एक बार फिर हिमयुग के दौर में लौट सकती है, जबकि इधर के ज्यादातर वैज्ञानिकों का मत यही है कि हमारी यह पृथ्वी गरम होने की ओर ही बढ़ अधिक रही है, जो सहज ही काल-अकाल का कारण भी है।  
 
गौरतलब है कि इक्कीसवीं सदी के ताज़ा इतिहास में दक्षिण सूडान अकाल की गिरफ्त में आ गया है। दक्षिण सूडान एक लम्बी लड़ाई के बाद जुलाई 2011 में सूडान से अलग होकर आजाद हुआ था और अब छः बरस बाद वह अकाल की गिरफ्त में है। यह विष्व का 196वां स्वतंत्र देश, संयुक्त राष्ट्र का 193वां सदस्य देश और अफ्रीका का 55वां देश है। अपनी आजादी के बाद इस तेल समृद्ध देश दक्षिण सूडान में वर्ष 2013 में युद्ध भड़क उठा था। राष्ट्रपति सालवा कीर और उपराष्ट्रपति रिक माछर की वफादार सेनाएं आपस में भिड़ गईं थीं। फिर अगस्त 2015 में शांति समझौते के बाद बनी यूनिटी सरकार भी जुलाई 2016 में फिर से टूट गई। दक्षिण सूडान की तकरीबन 82 लाख आबादी में से 49 लाख आबादी को तत्काल भोजन की जरूरत है अर्थात् दक्षिण सूडान की 40 फीसदी अथवा 50 लाख आबादी अकाल की चपेट में है। दक्षिण सूडान में अभी संयुक्त राष्ट्र की ओर से भोजन उपलब्ध करवाया जा रहा है। इस मुसीबत की जड़ में बदलते मौसम का मिजाज ही जि‍म्मेदार है। यमन, सोमालिया और उत्तर पूर्वी नाइजीरिया भी सूखे और भूखमरी से जूझ रहे हैं।
 
वैज्ञानिकों ने न्यूनतम तापमान बढ़ने के जो कारण बताए हैं, उन पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। उनका कहना है कि ग्रीनहाउस गैसें रात को ज्यादा सक्रिय होती हैं। रात में वे, इंफ्रारेड किरणें ज्यादातर सोखती हैं, जिससे तापमान बढ़ जाता है। हर किसी मौसम में रात के समय ही मौसम के न्यूनतम तापमान में परिवर्तन देखा जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि जितनी तेजी से न्यूनतम तापमान बढ़ता है, उतनी तेज़ी से अधिकतम तापमान नहीं बढ़ता है। अधिकतम तापमान दिन में ही रिकॉर्ड होता है, रात में नहीं। ज़ाहिर है कि हमारी यह पृथ्वी तेजी से गरम हो रही है और हम ग्लोबल वार्मिंग की तरफ बढ़ रहे हैं। पृथ्वी का गरम होना अनर्थकारी साबित होगा। चुनौती बड़ी है।   

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