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यूरोप के इस्लामीकरण के दौर में घोर-दक्षिणपंथी तूफान

हमें फॉलो करें यूरोप के इस्लामीकरण के दौर में घोर-दक्षिणपंथी तूफान
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राम यादव

, मंगलवार, 17 मई 2016 (16:07 IST)
भारत में इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार और पार्टी को धार्मिक असहिष्णुता से पीड़ित, अलोकतांत्रिक, हिंदू-राष्ट्रवादी इत्यादि बता कर उनकी खिल्ली उड़ाना, अदने से बिरले तक, सब का प्रिय शौक बन गया है। स्वयं को प्रगतिशील, वामपंथी या बुद्धिजीवी बताने वाले लोग इस शगल में सबसे आगे दिखते हैं। प्रायः हर बात में यूरोप-अमेरिका से सीखने की बहुमूल्य सलाह देने वाले ये लोग काश इस समय यूरोप में होते और देखते कि पश्चिम की जनता किस तेज़ी से घोर-दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को गले लगा रही है।
सात वर्षों तक ऑस्ट्रिया का चांसलर (प्रधानमंत्री) रहने के बाद 56 वर्षीय वेर्नर फ़ायमान ने सोमवार, 9 मई को, अचानक अपना पद त्याग दिया। हुआ यह था कि गत 25 अप्रैल को ऑस्ट्रिया में नए राष्ट्रपति के चुनाव का पहला दौर था। मतगणना के बाद पूरे यूरोप में सनसनी फैल गई। ऑस्ट्रिया की घोर-दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी (एफ़पीओ) के नेता नोरबर्ट होफ़र को सबसे अधिक वोट मिले थे– 36.7 प्रतिशत वोट। देश की गठबंधन सरकार वाली दोनों सत्तारूढ़ पार्टियों के प्रत्याशियों को इतने भी वोट नहीं मिल सके कि उनके नाम, चार सप्ताह बाद, 22 मई को मतदान के दूसरे दौर में शामिल किए जा सकते।
 
संभावना यही है कि 1945 के बाद ऐसा पहली बार होगा कि घोर-दक्षिणपंथी नोरबर्ट होफ़र के रूप में ऑस्ट्रिया में कोई ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति बनेगा, जिसे देश की दोनों प्रमुख पार्टियों– सोशल डेमोक्रैटिक (एसपीओ) और पीपल्स पार्टी (ओवीपी)– में से किसी का भी समर्थन प्राप्त नहीं है। नोरबर्ट होफ़र को उनकी पार्टी एफ़पीओ का 'दोस्ताना चेहरा' कहा जाता है, जबकि वे जब भी जनता के बीच जाते हैं, अपनी 'ग्लॉक' पिस्तौल हमेशा साथ रखते हैं। उन्होंने धमकी दी है कि ऑस्ट्रिया की वर्तमान सरकार यदि अरब-इस्लामी शरणार्थियों और वहां से आए आप्रवासियों के प्रति कठोरता से पेश नहीं आती, तो वे राष्ट्रपति बनते ही सरकार को बर्ख़ास्त कर देंगे।
 
यूरोप आ रहे मुस्लिम शरणार्थियों की त्सुनामी-लहर से भयभीत जनता के बीच देशव्यापी मतसर्वेक्षणों में, होफ़र की पार्टी के प्रति समर्थन 30 प्रतिशत से भी ऊपर चला गया है। समाजवादी विचारधारा वाले चांसलर फ़ायमान ने पदत्याग करते समय कहा कि अब अनके पक्ष में वह जनसमर्थन नहीं रहा, जिसके बल पर वे पद पर बने रह सकें। ऑस्ट्रिया में 2018 में संसदीय चुनाव होंगे। तब तक यदि यही स्थिति बनी रही, तो ऑस्ट्रिया पूरी तरह घोर-दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों की मुठ्ठी में आ जायेगा।
 
डच जनता ने सरकार को दिया झटका : ऑस्ट्रिया में मतदान से कुछ ही दिन पहले, 6 अप्रैल को, नीदरलैंड (हॉलैंड) में एक जनमत संग्रह था। जनता को मतदान द्वारा यूरोपीय संघ और यूक्रेन के बीच आर्थिक एवं राजनीतिक सहयोग संबंधी एक ऐसी संधि की पुष्टि करनी थी, जिस पर देश की सरकार पहले ही हस्ताक्षर कर चुकी है। संधि जनवरी 2016 से प्रभावी भी है। तब भी, जनता ने 64 प्रतिशत वोटों के भारी बहुमत से संधि की पुष्टि को ठुकरा दिया। जनमतसंग्रह की वैधता के लिए कम से कम 30 प्रतिशत मतदान होना अनिवार्य था। 32 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया।
 
नीदरलैंड को यूरोप के सबसे उदार देशों में गिना जाता है। तब भी वहां की जनता ने इस संधि की पुष्टि को नकार कर वास्तव में अपनी एक अलग ही भड़ास उतारी है। यूरोप में लंबे समय से चल रहे आर्थिक संकट, मुस्लिम शरणार्थियों की अनवरत बाढ़ और अपने देश के 'इस्लामीकरण' के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने का उसे कोई दूसरा अच्छा बहाना नहीं मिल रहा था। 64 प्रतिशत वोटों का बहुमत ही नहीं, 68 प्रतिशत लोगों का मतदान से दूर रहना भी अपने देश की उदारवादी सरकार और यूरोपीय संघ के प्रति असंतोष का प्रदर्शन ही कहलाएगा।
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सरकार को दिखाया नीचा : डच सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है कि वह जनमत संग्रह का परिणाम स्वीकार करे ही। तब भी प्रधानमंत्री मार्क रुटे अपनी सरकार को नीचा दिखाने वाले इस जनादेश की अनदेखी नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि उसके वर्तमान रूप में संधि की पुष्टि कर सकना उनकी सरकार के लिए संभव नहीं है। यूरोपीय संघ के अन्य देशों की सरकारों ने तो जनता से पूछने का जोखिम उठाया ही नहीं। उन्होंने अपने देशों की संसदों में अपने बहुमत के बल पर इस संधि की बहुत पहले ही पुष्टि करवा ली। 
 
मतसर्वेक्षण कहते हैं कि नीदरलैंड में यदि इस समय चुनाव होते हैं, तो इस्लाम और यूरोपीय संघ का सबसे अधिक विरोध करने वाली वहां की मुख्य घोर-दक्षिणपंथी 'फ्रीडम पार्टी' (पीवीवी) को संसद की 150 में से 37 सीटें मिल सकती हैं। उसके वोटों का अनुपात 25 प्रतिशत के आसपास होगा। उसे अब केवल श्रमिक वर्ग का ही नहीं, बुद्धिजीवियों और उच्च शिक्षाप्राप्त लोगों का भी समर्थन मिलने लगा है। पीवीवी के नेता गेर्ट विल्डर्स का यूरोप की तरफ़ भाग रहे शरणार्थियों के बारे में कहना है कि यह यूरोप पर एक 'सुनियोजित इस्लामी आक्रमण' है। एक करोड़ 70 लाख की जनसंख्या वाले नीदरलैंड के लगभग 8 प्रतिशत निवासी मुस्लिम आप्रवासी हैं।
 
जब जर्मनी भी दहल गया : ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड से सटे हुए जर्मनी के तीन राज्यों में 13 अप्रैल को विधानसभा चुनाव थे। चुनावों में तीन ही साल पहले बनी नई-नवेली घोर-दक्षिणपंथी पार्टी 'जर्मनी के लिए विकल्प' (एएफ़डी) की भारी सफलता से जर्मनी दहल गया। अपने पहले ही चुनाव में– कम से कम पांच प्रतिशत वोट पाने की बाधा को दूर पीछे छोड़ते हुए– वह तीनों विधानसभाओं में पहुंच गई। भूतपूर्व पूर्वी जर्मनी वाले सैक्सनी-अनहाल्ट राज्य में तो वह चांसलर मेर्कली की पार्टी सीडीयू के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। तीनों राज्यों में उसने पुरानी स्थापित पार्टियों के वोट तो काटे ही, उन लोगों से सबसे अधिक वोट पाए, जो देश की सभ्रांत नामी पार्टियों की नीतियों से ऊब कर मतदान करने ही नहीं जाते थे।
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आर्थिक विशेषज्ञों और पत्रकारों द्वारा 2013 में स्थापित 'एएफडी' इस्लाम के साथ-साथ यूरोप की साझी मुद्रा यूरो की भी प्रबल विरोधी है। उसे चांसलर मेर्कल की सरकार का यह कहना बिल्कुल नहीं सुहाता कि 'इस्लाम जर्मनी का हिस्सा है।' मई के पहले सप्ताह में हुए 'एएफडी' के राष्ट्रीय  अधिवेशन में पारित प्रथम 'आधारभूत कार्यक्रम' में बल देकर कहा गया है, 'इस्लाम जर्मनी का हिस्सा नहीं है।' मुस्लिम महिलाओं को दोयम बना कर बुर्के या हिज़ाब से ढक देने, मीनारदार मस्जिदें बनाने और वहां से अजान लगाने की अनुमति जर्मनी में नहीं दी जा सकती।
 
यूरोप के 19 देशों की साझी मुद्रा के बारे में इस कार्यक्रम में लिखा है, 'यूरो के प्रयोग का सुनियोजित ढंग से अंत करना होगा।' यूरो वाले मुद्रा-संघ की सदस्यता को त्यागने के लिए जनमतसंग्रह कराया जाना चाहिये। यूरोपीय संघ को चाहिये कि वह अपने अधिकारों का एक हिस्सा सदस्य देशों की राष्ट्रीय सरकारों को वापस लौटा दे। ऐसा न होने पर  जर्मनी को उससे बाहर निकल जाना और उसके विघटन का काम शुरू कर देना चाहिये। 
 
जर्मनी की दक्षिण से लेकर वामपंथ तक की सभी नामी पार्टियां 'एएफडी' का अछूतों की तरह जिताना ही बहिष्कार कर रही हैं, जनता के बीच उसके प्रति समर्थन उतना ही बढ़ रहा है। मतदाता देख रहे हैं कि पुरानी पार्टियां जिस सामाजिक न्याय और मानवीयता की बातें करती हैं, उसके चलते देश में ग़रीबी-रेखा के नीचे जीने वालों का अनुपात अब 15.5 प्रतिशत हो गया है। पेंशन पर भी आयकर लग जाने से लाखों पेंशनभोगियों का जीवनस्तर गिर रहा है।
 
जिस जर्मनी में कभी कोई भिखारी नहीं दिखता था, वहां लोगों को भीख मांगते और कचरा जमा करने के कंटेनरों में कुछ खाने लायक ढूंढते हुए देखना सामान्य बात होती जा रही है। जबकि शरणार्थियों को सरकारी ख़र्च पर होटलों तक में ठहराया जाता है। सेंधमारी, लूटपाट, हत्या और बलात्कार जैसे बड़े अपराधों में विदेशियों का अनुपात कहीं तेज़ी बढ़ रहा है। पर, उनके प्रति दुर्भावना को बढ़ावा न मिले, इस उद्देश्य से तथ्य और आंकड़े छिपाने की कोशिशें होती हैं। असंतोष की बची-खुची कमी पड़ोसी देशों में, या स्वयं जर्मनी में, शरियत की मांग या इस्लामी आतंकवाद की नई घटनाएं पूरी कर देती हैं।
 
फ्रांस का हाल और बेहाल : फ्रांस का हाल तो और भी बेहाल है. वहां दिसंबर 2015 में क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि सभाओं के लिए चुनाव हुए. देश में राष्ट्रपति ओलांद की समाजवादी 'सोशलिस्ट पार्टी' का शासन है, जबकि चुनावों के पहले दौर में सुश्री मरीन ले पेन की घोर-दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टी 'फ्रों नस्योनाल' (नैश्नल फ्रंट/ एफ़एन) को मिले वोटों का अनुपात सबसे अधिक रहा। देश के 13 में से छह अंचलों में वह सबसे आगे थी। इससे सोशलिस्ट पार्टी को ऐसा झटका लगा कि जहां-जहां उसके प्रत्याशी पीछे चल रहे थे, चुनाव के दूसरे दौर में उन्हें उतारा ही नहीं गया, ताकि एफ़एन का विरोध कर रही दूसरी पार्टियों के वोट-बैंकों में से इतने कम वोट कटें कि एफ़एन को कहीं भी बहुमत न मिल सके। 
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यही हुआ। मतदान के दूसरे दौर में एफएन को राष्ट्रीय स्तर पर कुल मिला कर हालांकि 27 प्रतिशत से अधिक वोट मिले, पर पर उसे किसी भी क्षेत्रीय सभा में बहुमत नहीं मिल सका. तब भी, सच्चाई यही है कि एफ़एन को मिला इतना बड़ा समर्थन, उसकी अपनी कमाई से अधिक, नवंबर 2015 में, पेरिस में हुए नए इस्लामी आतंकवादी हमलों का प्रतिफल था. फ्रांस में इस्लामी आतंकवाद यदि थमता नहीं और इस्लामवादियों का रोब-दाब घटता नहीं, तो बहुत संभव है कि 2017 में वहां होने वाले राष्ट्रपति-पद के चुनावों के बाद नए राष्ट्रपति का नाम सुश्री मरीन ले पेन ही हो। मूल फ्रांसीसी जनता को यही लगने लगा है कि सहिष्णुता और सद्भाव के आदर्शवादी उपदेश देने वाली पार्टियां नहीं, ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली मरीन ले पेन की एफ़एन ही उसकी राष्ट्रीय अस्मिता को कारगर सुरक्षा प्रदान कर सकती है।
 
 
 

स्वीडन की सहिष्णुता भी दांव पर : कट्टरपंथी इस्लाम के बढ़ते हुए प्रभाव के परिप्रेक्ष्य में सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस यूरोप में  भी खूब हो रही है. उत्तरी यूरोप की तरफ बढ़ने पर हम पाते हैं कि विधर्मी विदेशियों के प्रति सहिष्णुता के मामले में अब तक सबसे अधिक उदार रहे स्वीडन में वहां की घोर-दक्षिणपंथी अनुदार पार्टी 'स्वीडन डेमोक्रैट' की लोकप्रियता 2014 से लगातार बढ़ रही है। उस वर्ष के चुनावों में उसे संसद की 349 में से 49 सीटों पर विजय मिली थी। 20 प्रतिशत मतों के साथ उसे भी लगभग उतना ही जनसमर्थन मिला, जितना देश के दोनों सबसे शक्तिशाली दलों सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी और मॉडरेट पार्टी को मिला।
  
केवल 98 लाख जनसंख्या वाले स्वीडन की सरकार विदेशी प्रवासियों की राष्ट्रीयता या उनके द्वारा किये गए अपराधों के बारे में कोई आंकड़े प्रकाशित नहीं करती। बताया जाता है कि 20 प्रतिशत से अधिक स्वीडनवासी विदेशी पृष्ठभूमि वाले हैंतब भी, वहां की सरकार ने मध्यपूर्व से यूरोपीय संघ में आये 1,90,000 शरणार्थियों को लेने का वचन दे रखा है। इससे मूल स्वीडिश जनता खुश नहीं है। उदार और सहिष्णुतावादी होने के बावजूद लोगों को डर है कि मुस्लिम शरणार्थी, अपने धार्मिक आग्रहों-पूर्वाग्रहों के कारण, वहां के बहुत ही उनमुक्त समाज में घुलमिल नहीं पाएंगे। स्वीडन यूरो मुद्रा-ज़ोन में शामिल नहीं है, इसलिए कम से कम यूरो वाली चिंता वहां नहीं है।
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स्वीडन से सटे डेनमार्क में जून 2015के संसदीय चुनावों में घोर-दक्षिणपंथी 'डेनिश पीपल्स पार्टी' (डीएफ़) को 21 प्रतिशत मतों के साथ संसद की कुल 179 में से 37 सीटें मिलीं। इससे डेनमार्क के सत्तारूढ गठबंधन को बनाए रखना या गिरा देना उसके हाथ में आ गया है। वैसे तो डीएफ़ स्वयं भी इस गठबंधन में शामिल है, तब भी उसके नेता क्रिस्तियान तूलेज़न दाल याद दिलाते रहते हैं कि सरकार ने मुस्लिम आप्रवासियों के प्रति अपना कड़ा रुख यदि कुछ भी नरम किया, तो वे सरकार से अलग हो कर उसे गिरा देंगे। 1995 में स्थापित डीएफ़ की 2010 से मांग है कि यूरोप के बाहर से आने वाले आप्रवासियों (यानी मुस्लिम आप्रवासियों) के डेनमार्क में आने पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिये। डेनमार्क की केवल 57 लाख की जनसंख्या में विदेशिेयों का अनुपात 12 प्रतिशत है। अधिकांश लोग मुस्लिम देशों से आए हैं।
 
पूर्वी यूरोप और भी मुखर : घोर-दक्षिणपंथ के प्रति लगातार बढ़ता हुआ जनसमर्थन, यूरोपीय संघ के उपरोक्त देशों के अलावा बेल्जियम, इटली, फ़िनलैंड, ग्रीस इत्यादि उसके पुराने सदस्य में ही नहीं, पूर्वी यूरोप के उन देशों में भी साफ़ दिखाई पड़ता है, जो ढाई दशक पहले तक कम्युनिस्ट देश हुआ करते थे और अपने आप को बड़े गर्व से हर राष्ट्रवाद और नस्लवाद से ऊपर 'अंतरराष्ट्रीयतावादी' बताया करते थे। पूर्वी यूरोप के पोलैंड, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया इत्यादि मुस्लिम शरणार्थियों और इस्लाम का विरोध करने में पश्चिमी यूरोप के देशों से भी अधिक मुखर हैं। 
 
ग्रीस में 2015 में हुए संसदीय चुनावों के बाद एक वामपंथी समाजवादी सरकार भले ही बनी है, वहां की जनता ने नव-फ़ासीवीदी पार्टी 'गोल्डन डॉन' (स्वर्णिम प्रभात) को भी सात प्रतिशत से अधिक मत देकर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बना दिया है। स्लोवाकिया में भी एक फ़ासीवीदी हिंसक पार्टी को मार्च 2016 के संसदीय चुनावों में आठ प्रतिशत मत मिले। उसके नेता और सदस्य हिटलर के नाज़ियों जैसी वेशभूषा में घूमते हैं। पोलैंड की घोर दक्षिणपंथी नई सरकार ने तो वहां के उच्चतम न्यायालय के पर ही कतर डाले और देश की सार्वजनिक टेलीविज़न प्रसारण संस्था के सर्वोच्च पदों पर अपने लोग बिठा दिये। 
 
यूरोप में राष्ट्रवाद की जड़ : यूरोप में घोर-दक्षिणपंथी पार्टियां उन्हें कहा जाता है, जिनके घोर-राष्ट्रवाद और नस्लवाद के आगे भारत की भाजपा भी निरीह बकरी नज़र आए। उनके राष्ट्रवादी चिंतन की जड़ 'राष्ट्र' और 'राष्ट्र-राज्य' की उस अवधारणा में है, जो यूरोप की ही देन है, पर जिसे अब एक राष्ट्रोपरि 'यूरोपीय संघ' बना कर झुठलाने का प्रयास हो रहा है। 'राष्ट्र' की परिभाषा सामान्यतःएक ऐसे समुदाय या जनसमूह के रूप की जाती है, जो एकसमान ''भाषा, संस्कृति और ऐतिहासिक पहचान के सूत्रों से आपस में जुड़ा हो।'' इसी के अनुरूप 'राष्ट्र-राज्य' वह 'इलाका है, जिसकी सांस्कृतिक सीमाएं भी वही हैं, जो उसकी राजनीतिक सीमाएं हैं' (यूनेस्को)।   
 
इसी परिभाषा के चलते यूरोप के लगभग सभी देश– वे चाहे जितने छोटे या बड़े हों, कुछेक हज़ार की जनसंख्या वाले हों या करोड़ की– राष्ट्र-राज्य हैं, और किसी न किसी बहाने से अब भी बने रहना चाहते हैं। जो देश इस परिभाषा में फिट नहीं बैठते थे, जैसेकि भूतपूर्व युगोस्लाविया या चेकोस्लोवाकिया, 1990 वाले दशक में वहां कम्युनिस्ट सरकारों का पतन होते ही राष्ट्रवादी भावनाएं भड़का कर उन्हें खंडित कर दिया गया। चेकोस्लोवाकिया के टूटने से चेक गणराज्य और स्लोवाकिया नाम के दो नए देश बने, जबकि युगोस्लाविया को तोड़ कर सात नए राष्ट्र-राज्य बनाने में यूरोपीय संध और नाटो ने जम कर हाथ बंटाया। आज रोना रोया जा रहा है कि यूरोपीय संघ के देशों में राष्ट्रवाद संघवाद के सिर पर चढ़ कर बोलने लगा है, मानो सांप को दूध पिलाने से वह ज़हर त्याग देगा।
 
यूरोपीय संघ से हो रहा है लोगों को मोह भंग : यूरोपीय संघ यूरोप के 28 राष्ट्र-राज्यों का महासंघ भले ही बन गया है, इन देशों की सार्वभौमता, मूल जनता की राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रीय गर्व व राष्ट्रभक्ति इतने मात्र से मिट नहीं गई। जर्मन, डच या अंग्रेज़ अपनी राष्ट्रीयता न तो भूल गए हैं और न ही उस पर लज्जित होते हैं। बल्कि, राष्ट्रोपरि यूरोपीय संघ से उसका मोह लगातार भंग होने लगा है। यूरोपीय संघ का न अपना कोई संविधान है और न उसके उच्च पदाधिकारी जनता द्वारा चुने जाते हैं। वह सदस्य देशों के बीच कुछेक संधियों और दूर ब्रसेल्स में बैठे दफ्तरशाहों के बल पर चलता है। ब्रसेल्स से दूर अपनी समस्याओं से घिरे आम आदमी को नहीं लगता कि ब्रसेल्स में उसका दुख-दर्द सुनने और समझने वाला भी कोई है।
  
यूरोपीय संसद के सदस्य हर देश से चुन कर आते ज़रूर हैं, पर उसके सहनिर्णय के अधिकार किसी देश की राष्ट्रीय संसद के आधिकारों से कहीं कम हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद यूरोपीय संघ का जिस आपाधापी के साथ रूसी सीमा तक विस्तार कर दिया गया, राष्ट्रीय मुद्राओं को हटा कर यूरो को लाया गया, करदाताओं के पैसे से जिस तरह 2008 से चल रहे आर्थिक-वित्तीय संकट में डूबने से बैंकों को बचाया गया, और अब उन्हीं के पैसों से लाखों विदेशी शरणार्थियों को रसाया-बसाया जा रहा है, उससे आम आदमी का यूरोपीय संघ से मोह भंग होना और अपने देशों की सरकारें चलाने वाली पार्टियों से विमुख होना स्वाभाविक ही है। वह सोचता है कि ये पार्टियां वामपंथी, उदारवादी, समाजवादी, मानवतावादी, सहिष्णुतावादी, धर्मनिरपेक्षतावादी और इसी तरह न जाने क्या-क्या आदर्शवादी तो हैं, पर अपनी बहुमत मूल जनता को समर्पित 'राष्ट्रवादी' नहीं हैं।
 
भड़ास के उद्गार की पराकाष्ठा : यूरोपीय जनमानस में लंबे समय से कुलबुला रही यह भड़ास यूरोप पर टूट पड़े शरणार्थियों की भीड़ और इस्लाम के प्रति कुछ ज़्यादा ही सहिष्णुता दिखाए जाने से निस्संदेह अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई है और पिछले कुछ महीनों के यूरोपीय चुनावों के माध्यम से फूट पड़ी है। अकेले 2015 में साढ़े पांच लाख शरणार्थी इटली और ग्रीस में पहुंचे। कुछ अनुमानों के अनुसार, 15 लाख जर्मनी पहुंचे। 90 प्रतिशत से अधिक शरणार्थी मुस्लिम हैं। दो साल पहले, 2013 में जर्मनी हर शरणार्थी के रहने-खाने पर औसतन 14 हज़ार यूरो (इस समय 1=75 रुपए) ख़र्च कर रहा था। यानी अकेले 2015 में नए आये शरणार्थियों के रहने-खाने पर उसे क़रीब 21 अरब यूरो ख़र्च करने पड़े होंगे। सरकार ने अभी तक कोई आंकड़े प्रकाशित नहीं किये हैं, क्योंकि इससे जनता और भड़क सकती है।
 
50-60 साल पहले आज के यूरोपीय संघ के देशों में इक्के-दुक्के मुसलमान ही दिखाई पड़ते थे। उस समय हर देश यूरोप में ही जन्मे गोरे-चिट्टे ईसाइयों का पूरी तरह अपना देश हुआ करता था। 2010 आते-आते यूरोपीय संघ के देशों में मुस्लिम जनसंख्या एक करोड़ 30 लाख हो गई। 6 करोड़ 63 लाख की जनसंख्या वाले फ्रांस में उनकी संख्या इस समय लगभग 62 लाख (9.7 प्रतिशत) और 8 करोड़ 20 लाख जनसंख्या वाले जर्मनी में लगभग 45 लाख (5.5 प्रतिशत) है। 
 
यूरोप के इस्लामीकरण का शोर : ब्रिटेन के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में 11 सितंबर 2001 वाले आतंकवादी हवाई हमलों के बाद से ब्रिटेन में रहने वाले मुस्लिमों की संख्या दोगुनी हो गई है। इस अवधि में जो एक लाख अंग्रेज़ धर्मांतरण द्वारा मुसलमान बन गए, उनमें से तीन-चौथाई महिलाएं थीं।
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कुछ जानकारों का अनुमान है कि इस दर पर तो अगले 10 से 15 वर्षों के भीतर ही ब्रिटेन में मुसलमानों की संख्या ईसाइयों से अधिक हो जायेगी। कहीं न कहीं आग है, इसीलिए धुंआ भी उठ रहा है। यूरोप के घोर-दक्षिणपंथी अनायास ही शोर नहीं मचा रहे हैं कि यूरोप का तेज़ी से इस्लामीकरण हो रहा है। इसके लिए वे यूरोपीय राजनेताओं की ''अदूरदर्शी धार्मिक सहिष्णुता'' को उत्तरदायी बताते हैं। उन्हें शिकायत है कि यूरोप के देशों में मध्यपूर्व से न केवल लाखों मुस्लिम शरणार्थी आ रहे हैं, यूरोपीय देशों में धड़ल्ले से बन रही मस्जिदों के लिए धन-साधन और इमाम भी मुस्लिम देशों से ही आते हैं। मस्जिदें धर्मपालन का स्थान ही नहीं, अन्य धर्मों के प्रति दुर्भावना-प्रचार का अड्डा बनती जा रही हैं। यह सहिष्णुता नहीं, अपनी सभ्यता-संस्कृति खो देने के आत्मघात का रास्ता है।   
 
यह भी देखने में आता है कि मुस्लिम आप्रवासी स्थानीय ईसाई समाज में घुलने-मिलने से कतराते हैं। उनकी धर्मशिक्षा यही है कहती है कि जो कोई अल्लाह का बंदा नहीं है, वह ''काफ़िर'' (ईश्वरहीन, नास्तिक) है। ''काफ़िरों'' के साथ मेलजोल बढ़ाने पर उन्हें अपनी धार्मिकता में कमी आ जाने और अपने बच्चों पर नियंत्रण खो बैठने का डर सताता है। बच्चों में इस्लामी संस्कार डालना और उन्हें मस्जिद में भेजना उनकी प्राथमिकता होती है। सबसे अजीब बात तो यह है कि आप्रवासी मुस्लिमों की पहली पीढ़ी की अपेक्षा, यूरोपीय देशों के स्वच्छंद वातावरण में ही पैदा हुई और पली-बढ़ी बाद की पीढ़ियों में, लोकतंत्र व स्थानीय मूल जनता के प्रति हिकारत की भावना और भी प्रबल पाई जाती है।
 
ऐसे में हो यह रहा है कि धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और मानवीयता को समर्पित यूरोपीय वामपंथी, उदारवादी, पर्यावरणवादी या प्रगतिशील पार्टियों की सहिष्णुतापूर्ण नीतियां, और इस्लामी आप्रवासियों की धार्मिक कट्टरता, यूरोप के मूल निवासियों को घोर-दक्षिणपंथी पार्टियों की बांहों में धकेलने में एक-दूसरे की अनुपूरक बन गई हैं। स्थानीय मूल जनता दोनों से निराश हो कर घोर-दक्षिणपंथियों की शरण में जा रही है। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता भी यही रेखांकित करती है। भारत जैसे देश इस परिदृश्य से यही सीख ले सकते हैं कि हर अतिरंजना की तरह अतिरंजित उदारता और सहिष्णुता भी, अंततः, अनुदारता और असहिष्णुता को ही पोषित करती है। अतिरंजित होने पर गुण भी अवगुण बन जाता है। लोकतंत्र में बहुवाद (प्ल्यूरलिज़्म) के साथ-साथ बहुसंख्य जनता की भावनाओं का भी ध्यान रखना ही होगा। सहिष्णुता बहुमत का ही नहीं, अल्पमत का भी कर्तव्य होना चाहिये। दोनों के बीच संतुलन केवल मध्यमार्ग पर चल कर ही मिल सकता है। 

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