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वैश्विक व्यवस्था में महाशक्तियों की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह

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शरद सिंगी

, मंगलवार, 13 सितम्बर 2016 (15:38 IST)
समूह-20 (जी-20) राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मलेन चीन के शहर हैंगज़ोउ में संपन्न हुआ। जी-20 समूह के राष्ट्र विश्व की 85 प्रतिशत जीडीपी और दो तिहाई आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।  इस समूह का मुख्य उद्देश्य विश्व की विभिन्न समस्याओं का हल निकालना तथा विश्व के नागरिकों के लिए आर्थिक समानता के अवसर पैदा करना है। वर्ष में मात्र यही एक ही अवसर होता है जब सभी शक्तिशाली राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष एक मंच पर इकट्ठा होते हैं। यह मंच एक सुनहरा अवसर है जिस पर मिलकर सारे राष्ट्राध्यक्ष विश्व की वर्तमान चुनौतियों पर अपना सिर खपा सकते हैं। इस मंच को बनाने का विचार निश्चित ही उत्तम था, किंतु क्या यह समूह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल रहा है? इस लेख के माध्यम से हम यही जानने की कोशिश करते हैं। 
सच पूछें तो इस वर्ष के सम्मेलन में प्रत्येक राष्ट्राध्यक्ष अपनी-अपनी ढपली लेकर पहुंचे और अपना-अपना राग अलापा। मोदीजी ने आतंकवाद और पाकिस्तान का राग अलापा साथ ही चीन को सख्त संदेश दिया। रूस और अमेरिका, सीरिया को लेकर आमने सामने हुए। अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर को लेकर चीन से आंखें मिलाईं। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मई ने ब्रेक्सिट को लेकर अपना पक्ष रखने की कोशिश की। गहमा-गहमी के बीच कुछ जुगलबंदियां भी हुईं।
 
रूस और सऊदी अरब के बीच कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती करने में एकमत होने की खबर से तेल के बाजार में तेजी आई। उत्तरी कोरिया के खतरे को देखते हुए दक्षिण कोरिया और जापान जैसे दुश्मन देश अमेरिका के नेतृत्व में एक होते दिखे। इसी तरह और भी कई द्विपक्षीय वार्ताएं हुईं। यानी राष्ट्राध्यक्षों ने मुख्य अखाड़े में न खेलते हुए मैदान से बाहर दो-दो या तीन-तीन के गुट में खेलने में ज्यादा रुचि दिखाई। जो काम साइडलाइंस पर होने थे वे मध्य में आ गए।
 
विश्व की समस्याओं से ध्यान हटाकर सारे राष्ट्राध्यक्ष अपने-अपने राष्ट्रों की समस्याओं में उलझ गए। विश्व के सामने जो आज की मुख्य समस्याएं हैं जैसे आतंकवाद, व्यापक देशांतरण, शरणार्थी समस्या, आर्थिक मंदी तथा व्यापार के वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के परिणामस्वरूप विकासशील देशों के व्यापारियों और उद्योगों को होने वाली कठिनाइयों का जिक्र केवल भाषणों में हुआ।
 
इस तरह इस वैश्विक मंच का उपयोग द्विपक्षीय मतभेदों को सुलझाने में अधिक हुआ। यह भी सच है कि यदि विश्व की समस्याओं को सुलझाना है और उनके हल पर एकमत होना है तो आपसी मतभेदों को पहले दूर करना होगा तब ही सामंजस्य संभव है, किंतु वर्तमान युग में जहां राष्ट्रों के लिए अपना हित सर्वोपरि है ऐसे में विश्व के हितों को देखने के लिए किसके पास समय है? महाशक्तियों के जब आपस में कई विषयों पर विवाद हों तो वैश्विक हितों को कौन और कैसे देखेगा वह अभी समझ से परे है।   
 
दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय मीडिया का रोल जो पहले रचनात्मक होता था विडम्बना है कि  केवल मसाला ढूंढने तक सीमित हो गया है। यह सम्मेलन मीडिया के लिए बहुत अच्छा अवसर था बहुराष्ट्रीय मसाला ढूंढने का। हिलेरी और ट्रम्प के चुनावों को कवर करते-करते उकता गया मीडिया हैंगजाओ पहुंचा नए मसाले की तलाश में। सम्मलेन ने उन्हें निराश भी नहीं किया। किन्हीं सुरक्षा कारणों से अमेरिकी और चीनी सुरक्षा कर्मियों में पर्याप्त समन्वय न हो पाने से राष्ट्रपति ओबामा को स्वयं उनके ही जहाज की सीढ़ियों से उतारना पड़ा यानी हैंगजाओ एयरपोर्ट पर लाल कालीन वाली सीढ़ी से उनका स्वागत नहीं हो सका। इस घटना को पश्चिमी मीडिया ने तूल दे दिया और  तूफ़ान मच गया। कई तरह की अटकलें लगाई गईं। यह घटना प्रमुख हो गई और अन्य महत्वपूर्ण विषय नेपथ्य में चले गए। आजकल प्रेस वार्ता में प्रश्न भी इस तरह किए जाते हैं कि विवाद खड़े हों। 
 
कुल मिलाकर 2016 का यह सम्मलेन व्यवस्था और तमाशे की दृष्टि से तो भव्य रहा किंतु मंथन और तत्व की दृष्टि से अधूरा रहा। इस तरह विश्व ने पूरे वर्ष में मिलने वाले एकमात्र अवसर को गंवा दिया। लेखक का मानना है कि ऐसे समूह सम्मेलनों  में द्विपक्षीय एवम त्रिपक्षीय वार्ताएं बंद होनी चाहिए ताकि सभी राष्ट्राध्यक्षों का ध्यान विश्व की समस्याओं पर केंद्रित रहे और विश्व के नागरिकों को उनकी परेशानियों से थोड़ी राहत मिले। द्विपक्षीय वार्ताएं अपने-अपने देशों में ही उचित हैं। 
 
समूह सम्मेलनों में आपसी मतभेदों को दूर रखा जाना चाहिए, क्योंकि इस गतिशील संसार में सारे मतभेद तो कभी सुलझने वाले हैं नहीं। कुछ मतभेद सुलझेंगे तो नए खड़े हो जाएंगे और इनका का कोई अंत नहीं।
 


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