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असंख्य चुनौतियों से घिरी इक्कीसवीं सदी

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शरद सिंगी

इक्कीसवीं शताब्दी में दुनिया पुनः एक हिंसा के दौर से गुजर रही है। आपसी विश्वास में निरन्तर कमी और टकराव में अविराम वृद्धि जारी है। सम्प्रदायों के बीच बढ़ता मनमुटाव, राष्ट्रों के बीच बढ़ती दरारें और हर प्रक्रार के उग्रवाद में विस्तार। ऐसे समय में सभ्य समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति फिर चाहे आम हो या खास, के मन में एक प्रश्न उठ रहा है कि मानव सभ्यता किस दिशा में आगे बढ़ रही है? हमारा भविष्य कैसा होगा? हमारी नियति क्या है? समय तो बीत रहा है किन्तु हम आगे जा रहे हैं या पीछे? क्या यही वह इक्कीसवीं सदी है जिसका बेसब्री से इंतज़ार हम बीसवीं सदी में करते रहे थे?
 
ऐसी सोच के चलते हमारे मन में एक कल्पना आती है, कोल्हू से बंधे बैल की। जो खूंटे के आसपास घूम रहा है। उसमें गति है, दिशा है, दूरी तय करने का भ्रम भी है किन्तु प्रगति नहीं। क्या यही दशा मानव समाज की है? हम आगे भी बढ़ना चाह रहे हैं किंतु खूंटे को छोड़ना नहीं चाहते। जो लोग कोल्हू के वृत्त में हम से पीछे चल रहे हैं वे दकियानूसी हैं। जो हमसे आगे चल रहे हैं वे व्यभिचारी हैं। और हम सोचते हैं कि जहां हम चल रहे हैं वहीं बस सदाचार का वास है। 
 
किन्तु मज़े की बात यह है कि वृत्त की परिधि पर खड़े हर व्यक्ति की सोच यही है। मनुष्य ने न कभी वृत्त को बड़ा करने की सोची और न ही रस्सी को बड़ा ही करने का प्रयास किया अर्थात न व्यास बढ़ाया न ही परिधि। खूटे से उखड़े तो पलायन का आरोप। खूंटा या केंद्र तो एक ही है जो परिधि से सभी को दिख रहा रहा है, किन्तु देखने वाले की सोच यह है कि बस खूंटे को सही परिप्रेक्ष्य में वही देख सकता है। सत्य का बोध उसी को है। जो दूसरी ओर से देख रहा है वह तो भ्रम में है। 
 
इसी सिद्धांत पर यदि हम आगे बढ़ें तो देखते हैं खूंटा और कुछ नहीं हमारा विश्वास है। वही आस्था है, वही धर्म है। इस खूंटे से बंधी जो रस्सी हमारे गले में पड़ी है, वह परम्पराओं, मान्यताओं और धारणाओं का स्वरूप है। ये चीजें ही हमें जिंदगी को जीने के लिए एक दायरा देती हैं अन्यथा यदि हम  केंद्र में खड़े हों तो वहां न गति है और न ही दिशा है। किन्तु जैसे ही दायरा मिला वैसे ही आरम्भ होता है अहम् का टकराव, परम्पराओं और मान्यताओं की श्रेष्ठता का टकराव। समझ में नहीं आता कि जब इन मान्यताओं पर आधुनिक सन्दर्भों में व्याख्या करने का प्रयास होता है तो मनुष्य क्यों अनपढ़ की तरह सोचने लगता है? मनुष्य सदियों से चली आ रही मान्यताओं को वर्तमान सन्दर्भों में व्याख्या क्यों नहीं कर सकता? क्या उसे व्याख्या करने के लिए अनपढ़ की तरह ही सोचना जरुरी है? 
 
रस्सी रूपी मान्यताओं, परम्पराओं और धारणाओं के माध्यम से हम उस खूंटे या विश्वास से तो जुड़े हैं, किन्तु रस्सी धर्म नहीं है। रस्सी तो केवल माध्यम है जो व्यक्ति को उसकी आस्थाओं से जोड़ती है। नासमझ हैं वे जो रस्सी को अपना धर्म समझ लेते हैं और उसकी रखवाली पर उतर जाते हैं। रस्सी के माध्यम से धर्म, विश्वास और सत्य को समझने की चेष्टा की जा सकती है किन्तु रस्सी से धर्म प्रकाशित नहीं है वरन रस्सी धर्म से प्रकाशित है। धर्म एक सीधी रेखा नहीं है, धर्म मनुष्य को एक दायरा देता है अपनी जिंदगी जीने के लिए। 
 
नासमझी का कारण यदि अशिक्षा है तो फिर हमारे शिक्षा के विस्तार के प्रयासों में कहीं कोई कमी तो नहीं? यदि अधिक शिक्षा इसका कारण है तो हमारी शिक्षा में कोई कमजोरी तो नहीं? उदाहरण स्वरूप लीजिए, भारत में परंपरा से बच्चों को बाईं ओर चलना सिखाया जाता है और अमेरिका में दाईं ओर। क्या लड़ने का यह विषय भी हो सकता है कि हमारे नियम तुमसे श्रेष्ठ हैं? चांद पर गुरुत्वाकर्षण बल कम होने से किसी भी व्यक्ति का वजन 6 गुना कम हो जाता है। क्या आप पृथ्वी पर लिए अपने वज़न पर ही अड़े रहेंगे या उसे नए संदर्भों में परिभाषित करने का प्रयास करेंगे? क्या चांद पर रहने वाले को आप दुर्बल करार देंगे? 
 
इस तरह बच्चों को जब तक यह नहीं सिखाया जाएगा कि बाईं हो या दाईं, चलना दोनों ही ओर ठीक हैं किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि आप किस देश में चल रहे हैं। वजन जो पृथ्वी पर है वह अन्य ग्रहों पर नहीं, अतः वजन शरीर का गुण नहीं है। यह आपके अहम् का हिस्सा नहीं हो सकता। शिक्षा में आधारभूत बदलाव तभी आ सकता है जब हम चीजों को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखने और दिखलाने की समझ पैदा कर सकें अन्यथा कोल्हू के बैल की तरह आगे बढ़ने के भ्रम में बने रहेंगे। लगता है चारों तरफ पहेलियां ही पहेलियां हैं जिनका हल हमें अपने समझदारीपूर्ण चिंतन से ही निकालना होगा। प्रभु सबको सदबुद्धि दे। 

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