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चीन के दबाव में घुटने टेक देने की बीमारी!

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संदीप तिवारी

जैसी कि पहले से ही आशंका थी कि भारत ने चीन के बागी उईगर नेता डोल्कन ईसा का वीजा अंतत: रद्द कर दिया है। भारतीय नेताओं और नीति नियंताओं से यही उम्मीद की जा रही थी क्योंकि चीन का हल्का सा दबाव ही 'एशिया की इस ताकत' की हवा निकालने के लिए काफी था। वैसे भी देश में स्वतंत्रता बाद से यह इतिहास रहा है कि भारतीय नेता संधि, वार्ताओं की मेजों पर बड़ी ही आसानी से अपने हथियार डालने के लिए कुख्‍यात रहे हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि अगर हम अपनी इस कमजोरी पर काबू नहीं पाते हैं तो हम ही अपने सबसे बड़े दुश्मन सिद्ध होंगे। 
 
दूसरे देश जहां अपने हितों को बचाने के लिए, अपना नुकसान रोकने के लिए ऐसा करते हैं, लेकिन भारतीय नेता और नौकरशाहों ने अपना पक्ष कभी भी सख्त तरीके से ना रखने का एक अक्षुण्ण रिकॉर्ड बनाया है। जिन संधि, वार्ताओं में हमारे प्रधानमंत्री तक शामिल रहे हैं, उनमें भी हमें नुकसान ही उठाना पड़ा है। शायद इसे उदारता का नाम दिया जाता हो लेकिन यह सच्चे अर्थों में कायरता कहलाती है। चीन के जर्मनी में रहने वाले इस नेता को पहले तो सरकार ने धर्मशाला में होने वाले लोकतंत्र पर सम्मेलन के लिए वीजा जारी कर दिया था, लेकिन बाद में चीन के दबाव में इसे निरस्त भी कर दिया।    
 
जर्मनी ने ईसा को 1990 के दशक से शरण दे रखी है और चीन उन्हें एक आतंकवादी मानता है और उन पर आरोप लगाता है कि जिनशियांग क्षेत्र में होने वाली हिंसा के लिए उईगर विद्रोही जिम्मेदार हैं जिन्हें ईसा भड़काते हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों ने इस 'सरकारी गुलाटी लगाने' को यह कहकर बचने की कोशिश की है कि उन्हें पहले ई-वीजा इसलिए ‍दे दिया गया था क्योंकि उनके खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस का संज्ञान नहीं लिया गया था।         
 
लेकिन, जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने पिछले दिनों बीजिंग में अपने समकक्ष यांग दाईची से भेंट की तो उन्हें रेड कॉर्नर नोटिस की महत्ता का पता चला। भारत चाहता तो यह कहकर बच सकता था कि मं‍दारिन में 'आतंकी' शब्द के बहुत से अर्थ होते हैं, लेकिन चीन ने कभी इस बात को परिभाषित नहीं किया कि आतंकी कौन होता है? और ईसा किस तरह के आतंकी हैं? लेकिन भारत की इसी लचर नीति के चलते अगर चीन मसूद अजहर को एक शांति दूत समझता है तो इसमें क्या गलत है? ठीक इसी तरह से चीनी दलाई लामा को तोड़फोड़ करने वाला विध्वंसक नेता मानते हैं।   
 
इसी वर्ष 2016 में जब रायसीना हिल पर भारत-चीन के शीर्ष अधिकारियों की बैठक हुई थी तो चीन के पूर्व विदेश मंत्री ली शाओजियांग का कहना था कि आपके मित्र दलाई लामा किसी देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री नहीं हैं। वे केवल ऐसे राजनीतिक साधु हैं जो कि अपनी ही मातृभूमि को बांटने का काम कर रहे हैं। इस बात पर गौर कीजिए कि जब ली ने यह बात कही थी तो वे भारत की राजधानी में थे। उनकी यह टिप्पणी न केवल राजनयिक दृष्टि से अनुचित थी वरन इसमें वह दंभ भी झलक रहा था जो कि हाल के समय में बहुत सारे चीनी नेताओं में ढीठता के तौर पर दिखाई देता है।    
 
उईगर नेता को वीजा देकर भारत, चीन को यह संदेश देना चाहता था कि उसने संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर की आतंकी पहचान पर भी वीटो कर दिया था। लेकिन डोल्कन के वीजा को निरस्त कर हमने यह भी मान लिया कि भले ही वे आतंकवादी न हों लेकिन हम विश्व के मंचों पर चीनी-पाकिस्तानी तिकड़मबाजी, छल का मुकाबला नहीं कर सकते हैं।
 
चीन अगर मसूद अजहर के मामले पर वीटो कर सकता है तो ईसा के मामले पर और भी कुछ गंभीर बात कर सकता था। अगर हम रेड कॉर्नर नोटिस का मुद्दा परे भी रख दें तब भी हमारे देश के नेताओं की मजबूती का मात्र एक उदाहरण से अंदाजा लगाया जा सकता है। 
 
कुछेक वर्ष पहले भारत के राष्ट्रपति को अपना कोलकाता दौरा मात्र इसलिए रद्‍द करना पड़ा था क्योंकि इस आयोजन में दलाई लामा भी शामिल होने वाले थे। जब चीनी नेताओं ने इस बात पर आपत्ति ली तो राष्ट्रपति के स्थान पर बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल को उस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए भेजा गया था। इससे पहले यह माना जा रहा था कि भारत को चीन के साथ 8-10 साल तक वार्ता नहीं करनी चाहिए? उस समय यह विचार भी किया गया था कि ऐसा करने से आतंकवाद रोधी मामलों में चीनी सहयोग देना बंद कर सकते हैं?
 
संभवत: डर के मारे यह नहीं बोला गया कि चीन हम पर हमला भी कर सकता है? चीन को लेकर हम कितने भयभीत रहते हैं, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है।
 
पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के दौर में तब चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिक देसपांग के मैदानी भाग में 16  किमी तक घुस आए थे। उस समय टीवी पर सीधी बहस का प्रसारण हो रहा था और सेना के एक पूर्व अधिकारी ने कहा था कि हमें या तो इन सैनिकों को भगा देना चाहिए या फिर इन्हें पीछे से घेर लेना चाहिए। उस समय बहस के सीधे प्रसारण में एक 'कूप मंडूक' नेता भी आया था और उसका कहना था कि 'जनरल साहिब आप तो लड़ाई करवा के छोड़ेंगे।' यह नेता इस विचार से ही जड़ हो गया था कि अब चीन हम पर परमाणु हमला भी कर सकता है।  
 
इस मामले में आप चीन के समूचे रिकॉर्ड पर नजर डालिए। चीन ने मसूद अजहर के प्रति अपना प्यार दो बार दिखा दिया है लेकिन यह तो केवल एक मामला है। जब बांग्लादेश से उल्फा नेता परेश बरूआ को लात मारकर भगा दिया तो चीन ने उसे अपनी जमीन पर महीनों तक शरण दी थी। आखिर चीन उन्हें क्यों पाल रहा था?
 
परेश बरूआ, मसूद अजहर और डोल्कन ईसा में क्या अंतर है? पिछले कई दशकों तक नगा विद्रोहियों को सैन्य ट्रेनिंग और हथियार, पैसा उपलब्ध कराने का काम कौन कर रहा है? उस दौरान चार चीनी नागरिकों को फर्जी भारतीय दस्तावेजों के साथ पकड़ा गया था जो कि नगा विद्रोहियों से एक मिशन के सिलसिले में मिलने जा रहे थे। एक ओर हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 'एक्ट ईस्ट नीति' की वकालत करते हैं और तभी चीन ने पूर्वोत्तर ने नौ आतंकवादी गुटों को मिलाकर एक अम्ब्रेला संगठन-'यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ वेस्ट, साउथ ईस्ट एशिया' (यूएलएफडब्ल्यूएसईए) बनवाया था।
 
इसी तरह जहां समूचे भारत में बिना निशान वाले चीन में बने छोटे हथियारों की मौजूदगी के स्रोतों का पता नहीं लगा सकते हैं, लेकिन मीडिया में इस आशय की भी रिपोर्ट्‍स आती रही हैं कि चीन से भारतीय माओवादियों और म्यांमार के काचेन विद्रोहियों को छोटे हथियारों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने की सुविधा कहां से हासिल हुई?
 
आज चीन के राष्ट्रपति धर्म के नाम पर घुसपैठ के नाम का रोना रो रहे हैं, लेकिन नास्तिक माओवादियों को सारी दुनिया में फैलाने का काम किसने किया? इन माओवादियों के अलावा नेपाल और बर्मा में, फिलीपींस में न्यू पीपुल्स आर्मी, कम्बोडिया में खमेर रूज, जापान की रेड आर्मी, पेरू के शाइनिंग पाथ जैसे संगठनों को किसने पैदा किया? इन संगठनों ने भारत समेत इन सभी देशों में मार-काट और हिंसा में अन्य आतंकवादी संगठनों को भी पीछे छोड़ दिया है।
 
क्या चीन से सहयोग की उम्मीद कर सकता है भारत... पढ़ें अगले पेज पर....

दूसरी ओर हम हैं कि चीन से आतंकवाद रोधी जानकारी पाने की उम्मीद करते हैं जबकि चीनियों ने नकली मुस्कराहट के साथ पीठ में छुरा घोंपने का भी काम किया है। हम चीनियों से किस तरह के सहयोग की उम्मीद कर सकते हैं? क्या चीनियों ने खापलांग और परेश बरुआ को हमें सौंपा है? अफगानिस्तान ने ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के कार्यकर्ताओं को चीन को सौंपा, लेकिन चीन ने हमेशा ही पाकिस्तान के आतंक के आयात को चोरी छिपे मदद की है। इन लोगों ने अफगानिस्तान और भारत दोनों देशों में आतंकवादियों का नेटवर्क खड़ा कर दिया।
 
क्या भारत इन दुश्मन चीनियों द्वारा हमें चारों ओर से घेरने के लिए आठ-दस साल और इंतजार करे? ची‍‍नियों ने पाकिस्तान में सीपीईसी (चाइना-पाकिस्तान इकॉनोमिक कोरिडोर),  ग्वादर पोर्ट, पाक अधिकृत कश्मीर में 18 चीनी सामरिक सहयोग आधार या सैनिक अड्‍डे और क्षेत्र के नौ आतंकवादी संगठनों के समूह, यूएलएफडब्ल्यूएसईए को इतना मजबूत बना दिया है जितना ‍कि अमेरिकी सेना और म्यांमार में चीन के अन्य प्रॉक्सी संगठनों को मिसाइल लगे हेलीकॉप्टर समेत अन्य बहुत से हथियार मुहैया कराए हैं। क्या यह चीन की कायरतापूर्ण युद्धप्रियता नहीं है जिसके चलते बड़ी संख्या में निर्दोष लोग मारे जाते हैं?
 
अगर आप दक्षिण चीन महासागर (एससीएस) में हुए हाल के परिवर्तनों पर निगाह डालें तो आपको पता होगा कि चीन को किसी भी वैश्विक नियम, कानूनों, परम्पराओं या सिद्धांतों की चिंता नहीं है। चीन ने तिब्बत से एक पद्म (ट्रिलियन) डॉलर से भी अधिक मूल्य का तांबा, स्वर्ण भंडारों को लूटा है और इसके अलावा समूचे इलाके से चांदी, लेड, जिंक, ‍लीथियम, अन्य कच्ची धातुओं समेत यूरेनियम और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है।
 
भूवैज्ञानिकों की चेतावनियों के बावजूद चीन सात सौ पहाड़ों को समतल कर शहर विकसित कर रहा है। चीनियों ने इसी तरह से अक्साई च‍िन की सम्पदा को लूटा है। चीन ने शाक्सगाम घाटी हथिया ली है और 2005 तक भारत की 90 हजार वर्गमील (समूचे अरुणाचल प्रदेश) पर अपने होने का दावा पेश किया है। जबकि यह उत्तरी नेपाल में यूरेनियम का खनन कर रहा है।                
चीन ने अपना सब कुछ पाकिस्तान के साथ जोड़ दिया है और भारत की पूरी तरह से अनदेखी की है। इसलिए क्या हम चीन के खिलाफ ऐसे कदम उठाकर उसे डराने की कोशिश कर रहे हैं और चीन को हमसे क्या खतरा हो सकता है? चीन इस बात को अच्‍छी तरह समझता है कि अब भारत को 'सबक सिखाने' के दिन नहीं रहे हैं। नियंत्रण रेखा के पार किसी भी क्षेत्र पर हमला करने पर इसे मुंहतोड़ जवाब मिलेगा और चीन जैसा देश इस किस्म का दुस्साहस नहीं कर सकता क्योंकि अपनी छवि इतनी महान ताकत वाले देश के तौर पर बना रखी है और इसे यह सावधानीपूर्वक बनाए रखना चाहता है। 
 
यही कारण है कि यह कायरतापूर्ण तरीके से छद्म युद्धों या चीन की ही भाषा में इसे अनियंत्रित युद्ध लड़ रहा है। इस मामले में चीन का रवैया एक ठेठ बदमाश जैसा है जोकि मनोवैज्ञानिक तरीकों से डराने की कोशिश करता है। अगर आप डर गए तो यह आपके सिर पर सवार हो जाएगा। अगर आप इससे आंखों में आंखें डालकर बात करेंगे तो यह आपका सम्मान करेगा। छल और संदिग्धता चीनी नीति की पहचान हैं और भारत के इस रवैए पर जहां ईसा ने वीजा निरस्त करने पर दुख जाहिर किया है वहीं नीला कादरी बलोच का कहना है कि बलूचिस्तान में पहल करने की भारत में इच्छा शक्ति नहीं है। जबकि अपने फैसले बदलने की बजाय भारत को चीन और पाकिस्तान के सात 'जैसे को तैसा की नीति' पर चलना चाहिए।
 
भारत ने यह फैसला लेकर सिद्ध कर दिया है कि वह एक आसानी से दब जाने वाला देश है जबकि जरुरत यह है कि छद्म युद्धकला (डर्टी वारफेयर) के मामले में भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ मुकाबला करना चाहिए अन्यथा हम दुनिया के सामने हमेशा ही दीन हीन बने रहेंगे और ये देश हमें आंखें दिखाते रहेंगे।    
 
 

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