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विदेशी निवेशकों के लिए आकर्षक है भारत की वर्तमान विकास दर

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शरद सिंगी

, रविवार, 14 जुलाई 2019 (12:09 IST)
केंद्रीय बजट आने के बाद से भारत के शेयर बाजार का सेंसेक्स भ्रम की स्थिति में है। उसकी दुविधा है कि उत्तर की ओर बढूं या दक्षिण में गुलाटी लगाऊं? सच कहें तो भारत के आर्थिक प्रगति के आंकड़े इस समय दुनिया के आंकड़ों से विपरीत चल रहे हैं।
 
जैसा कि हम जानते हैं कि कुछ दशक पहले तक भारत की अर्थव्यवस्था संरक्षित थी जिस पर बाहरी दुनिया का प्रभाव नहीं होता था किंतु आज वह वैश्विक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन चुकी है और इसलिए विदेशी कारक भी शेयर बाजार में उतना ही प्रभाव डालते हैं जितने कि घरेलू कारक। अत: निवेशक के लिए यह आवश्यक है कि वह घरेलू ही नहीं वरन बाहरी दुनिया में चल रही उथल-पुथल का भी संज्ञान ले ताकि सही निर्णय ले सके।
 
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की रिपोर्टों के अनुसार इस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था की रफ्तार गत 3 वर्षों में सबसे धीमी है। यह स्थिर होने के मार्ग पर तो है किंतु उसके सामने चुनौतियां भी बहुत अधिक हैं। विश्लेषकों के अनुसार वर्तमान वर्ष में अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश की शुरुआत उम्मीद से कमजोर रही।
 
यही नहीं, प्रमुख उन्नत अर्थव्यवस्थाओं (जैसे यूरो क्षेत्र) के साथ कुछ बड़े उभरते बाजारों और विकासशील देशों में भी आर्थिक गतिविधियों की शुरुआत बेहद धीमी रही। तो चलिए पहले दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों की वर्तमान अर्थव्यवस्था पर एक नजर डालते हैं।
 
पूर्वी एशिया और प्रशांत महासागर क्षेत्र में वर्ष 2018 में विकास दर 6.3 प्रतिशत थी, जो धीमी होकर वर्ष 2019 और 2020 में अब 5.9 प्रतिशत ही रहने का अनुमान है। वर्ष 1997-1998 के एशियाई वित्तीय संकट के बाद यह पहली बार है कि इस क्षेत्र में वृद्धि की दर 6% से नीचे आ गई है। चीन में विकास दर जो 2018 में 6.6 प्रतिशत थी, वह अब घटकर 2019 में 6.2 प्रतिशत रहने का अनुमान है।
 
यूरोप में इस समय विकास की दर लगभग ढाई प्रतिशत बनी हुई है। तुर्की की मंदी इस पूरे भू-भाग की अर्थव्यवस्था को ले डूबी। संकेत हैं कि तुर्की के आंकड़े अब ठीक होने लगे हैं किंतु उसके बाद भी यूरोप आगामी 1-2 वर्षों में भी 3 के आंकड़े को पार नहीं कर सकेगा।
 
उधर दक्षिणी अमेरिकी देशों के हालात तो और भी खराब हैं। ब्राजील जिसे कुछ वर्षों पूर्व ही एक उभरती अर्थव्यवस्था वाला देश माना जाता था और उसकी तुलना भारत और चीन से होने लगी थी, वह अभी 1.50 प्रतिशत की विकास दर पर घिसट रहा है। अगले वर्ष तक मैक्सिको के 2 प्रतिशत पर जाने के संकेत हैं।
 
अब अमेरिका जैसी उन्नत अर्थव्यवस्था की बात करें। यहां की अर्थव्यवथा भी औसत बनी हुई है, जो लगभग 3 प्रतिशत के आसपास घूमती है। राष्ट्रपति ट्रंप के कुछ सही तो कुछ अटपटे निर्णयों से अर्थव्यवस्था की दिशा क्या होगी? इस पर विशेषज्ञों में सहमति नहीं है। फिर भी अन्य विकसित राष्ट्रों की तुलना में यह आंकड़ा बेहतर है। 
अमेरिका के शेयर बाजार के उछाल पर वहां के रोजगार के आंकड़ों का बहुत प्रभाव होता है। मासिक रूप से प्रकाशित होने वाले रोजगार के आंकड़ों से उद्योगों की वर्तमान स्थिति का सही-सही पता चलता है।
 
चूंकि भारत में रोजगार के आंकड़ों की अभी कोई व्यवस्थित जानकारी उपलब्ध नहीं है अत: सेंसेक्स पर सटोरियों की पकड़ मजबूत होती है। कंपनियों के वार्षिक नतीजों का प्रभाव तो कुछ दिनों के लिए ही होता है किंतु बाद में भाव पुन: तेजड़ियों और मंदड़ियों की गिरफ्त में चले जाते हैं।
 
भारत में आंकड़ों की अनुपलब्धता की वजह से निवेशक के पास अनुभव और अनुमान करने के अतिरिक्त कोई गणितीय सिद्धांत नहीं है जिसका कि वे अनुसरण कर सकें। किंतु संतोष की बात यह है कि विश्व की इतनी सुस्त अर्थव्यवस्था के बीच भी भारत की विकास दर 7 के ऊपर चल रही है, वहीं पिछले कई वर्षों से निरंतर शीर्ष पर बना रहने वाला चीन लगभग 6 प्रतिशत के आंकड़े को ही छूता नजर आ रहा है।
 
जाहिर है कमजोर वैश्विक हालातों के बावजूद भारत एक अच्छा प्रदर्शन करने में सफल रहा है। भारत जैसे विशाल देश का बजट बनाते समय वित्तमंत्री के समक्ष अनेक चुनौतियां होती हैं। देश भी ऐसा जहां अलग-अलग राज्यों की विकास दरों में भारी अंतर है, सामाजिक व्यवस्था में कुछ जातियां आर्थिक रूप से पिछड़ चुकी हैं, कृषि आज भी मानसून पर ही निर्भर है इसलिए किसानों की अपनी समस्याएं हैं, बढ़ती जनसंख्या रोजगार पर दबाव डाले हुए है, आदि।
 
इस प्रकार की अनेक समस्याएं हैं जिनकी वजह से भारत के वित्तमंत्री को सर्कस के उस कलाकार की तरह होना होता है जिसे संतुलन बनाकर रस्सी पर चलना है यानी विकास की मद में खर्चों के साथ-साथ गरीब कल्याण योजनाओं में अनुदान के बीच संतुलन भी बनाए रखना। इन सब समस्याओं के साथ विश्व के विपरीत भागने की भी सबसे बड़ी चुनौती होती है।
 
भारत को यदि अपनी विकास की गति को बनाए रखना है तो आर्थिक सुधारों की गति को भी अनवरत रखना होगा। विदेशी निवेश के बिना भी अपेक्षित गति संभव नहीं है इसलिए देश में जरूरी है कि उद्योगों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण भी बने।
 
आधारभूत सुविधाओं के विकास पर तो सरकार बहुत तेजी से काम कर रही है किंतु मुख्य समस्या भष्टाचार तथा निकम्मे कर्मचारियों की है। यदि भारत सरकार भ्रष्टाचार पर नियंत्रण कर सके तो यह देश, विदेशी निवेश लाने में सफल होगा, क्योंकि जैसा कि हमने ऊपर देखा है कि भारत की आकर्षक विकास दर कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को निवेश के लिए आकर्षित कर सकती है, जो आगामी वर्षों में भारत की विकास की दर को बनाए रखने के लिए भी सबसे बड़ी कुंजी है।

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