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अब तो मज़हब कोई ऐसा चलाया जाए...

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जयदीप कर्णिक

कितनी सारी किताबें हैं, श्लोक हैं, शबद हैं, आयतें हैं। कितने उपदेश, फिल्में, गीत, कहानियाँ, उदाहरण, शायरी। सभी में से आती आवाज़ - के ईश्वर एक है, बस उसे पाने के रास्ते अलग-अलग हैं। ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान। मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा। ईश्वर की प्राप्ति वैसी ही है जैसे एक बड़ा जलाशय, सभी उसी जल को लेने जाते हैं, बस रास्ते अलग-अलग हैं।
 
... अगर ये सब बातें सही हैं तो फिर धर्म को लेकर इतनी लड़ाई क्यों है? अपने ही मार्ग को श्रेष्ठ बताने की होड़ क्यों है? हमें धर्म के नाम पर लड़ना नहीं चाहिए, ये बात केवल सिगरेट के पैकेट पर लिखी वैधानिक चेतावनी की तरह क्यों होकर रह जाती है? जैसे सिगरेट पीने वाले इसे पढ़कर भी अपने सीने को जलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते वैसे ही धर्म के नाम पर आग लगाने वाले भी मौका पाते ही उन्माद के शोले भड़का देते हैं।
 
ये तो बड़ी लंबी बहस का विषय है कि सृष्टि की संरचना के अनजाने पहलुओं को जानने के फेर में ही इंसान ईश्वर को रच बैठा या सृष्टि को रचने वाला एक सचमुच का ईश्वर है जो इस खेले को चला रहा है। क्या ईश्वर केवल हमारे अज्ञान और भय का ही नाम है? जो अ‍ज्ञात है उससे जुड़ी तमाम शंका-कुशंकाओं को ईश्वर, अल्लाह, वाहे गुरु, गॉड, महावीर स्वामी या जो जिसे माने उस पर छोड़ देने से मनुष्य जीवन कुछ आसान तो हो जाता है। 
 
तो क्या हमारे पलायन का नाम ईश्वर है? या जीवन की इस महायात्रा को गति देने वाली आस्था का नाम ही ईश्वर है। और इस ईश्वर को पाने के लिए जो प्रक्रिया रची गई उसी का नाम धर्म है? धर्म प्रक्रिया है, ईश्वर नामक साध्य को पाने वाले साधन का नाम धर्म है या फिर क्या धर्म एक जीवन शैली है? और जो जिस जीवन शैली से उस ईश्वर को पाना चाहे वो पा ले! तो अगर ये इतना ही सीधा और आसान है तो फिर उस ईश्वर, भगवान, प्रभु, वाहे गुरु, पैगंबर साहब, ईसा मसीह, महावीर, गौतम बुद्ध आदि सभी ने इसको इतना पेचीदा क्यों बनाया? इतने रूप क्यों धरे, इतने धर्म क्यों बनाए? 
 
अगर सचमुच इस ब्रह्मांड का रचयिता कोई एक ही है तो उसने इस दुनिया को ये झगड़े-फसाद और झमेले में क्यों फँसाया? दुनिया को एक धर्म-एक ईश्वर दे देते? क्या जाता? जाता शायद ये कि फिर सारे गुलाब भी या तो सफेद, या फिर सिर्फ लाल, या सिर्फ पीले ही होने चाहिए थे? इंसान भी एक ही रंग, कद-काठी के होते। ना गोरे-काले, ना ठिगने-लंबे और ही मोटे- पतले। फिर तो इतने पेड़-पौधे और प्राणी भी नहीं होने चाहिए थे? विविधता तो सृष्टि में हर जगह है, तो ईश्वर में क्यों ना हो?
 
 
यानी ये जो ईश्वरों की विविधता है ये भी हमारी ताकत होनी चाहिए थी? फिर झगड़ा क्यों है? क्योंकि झगड़ा भी इंसानी फितरत है। भेद तो हम गोरे-काले में भी करते हैं। झगड़ा तो साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण में भी है। अब हर कोई तो उस उच्च आध्यात्मिक चेतना तक नहीं पहुँच सकता के निराकार को पूज ले!! तो वो मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च रचता है। एक धर्म बनाता है, फिर उसी में कई शाखाएँ बना लेता है। शैव-वैष्णव भी हैं, शिया-सुन्नी, कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, श्वेताम्बर-दिगम्बर भी। तो बड़ा सवाल तो यही है कि ये विविधता सहूलियत के लिए है या विभाजन के लिए? दरअसल शुरुआत तो सहूलियत से है और मध्य विभाजन पर ठहरता है, अंत ईश्वर पर हो तो बहुत अच्छा। 
 
ये धर्म और ईश्वर की साधना का मार्ग यों बहुत आसान है और यों बहुत कठिन। जब कालचक्र में कई परिवर्तनों के साथ धर्म अपने मूल से दूर होने लगता है, सब तक उसी ताकत से नहीं पहुँच पाता तो कोई साधक एक नया मार्ग खोज लेता है ईश्वर तक पहुँचने का। कालांतर में हम उसी साधक को मसीहा और फिर ईश्वर ही बना देते हैं और फिर उसके मार्ग को एक नया धर्म। तो ठीक है एक और नया धर्म-पथ मिला!! उसमें क्या दिक्कत है? दिक्कत ये है कि मेरा मसीहा तेरे मसीहा से बड़ा है, मेरा पथ तेरे पथ से बेहतर है। जो जाए इसी पथ से जाए। दूसरा पथ ही बंद कर दो। दूसरे को अपने में ही लाओ। अन्य सारे भगवान मसीहा ही मिटा दो ..... !!!! 
 
तो सबसे बड़ा सवाल ये है कि ये सारी भावनाएँ आती कहाँ से हैं? कोई भगवान, मसीहा, पैगंबर, ईसा, महावीर या नानक तो ऐसा नहीं कह गए? फिर ये धर्म के नाम पर सारी दुनिया में इतना कोहराम क्यों है? ये सब कौन सिखाता है और हम कहाँ से सीखते हैं? ये वक्त ऐसा क्यों हो चला है कि हम चिंगारियों को मिलकर मशाल बनाने और रोशनी फैलाने की बजाए नफरत के शोले भड़काने में लग जाते हैं? किसी भी अन्य धर्म का व्यक्ति हमें अपना दुश्मन क्यों नज़र आने लगता है? ये विश्वास का संकट इतना क्यों गहरा गया है? और क्या कोई नया मजहब चला देने से भी ये समस्या हल हो जाएगी? आख़िर जब धर्म में इतनी ताकत है तो वो इंसानी फितरत को बदल क्यों नहीं पा रहा? 
 
ये जो इतने सारे क्यों हैं, सवाल हैं,.... जाहिर है इनके जवाब इतने आसान नहीं हैं। इन सवालों से अधिकांश लोग परेशान हैं। चर्चाओं में ये सवाल छाए रहते हैं। बहुत से लोग हैं जो अपना जीवन अपने धर्म के साथ आराम से चला रहे हैं। पर चंद फिरकापरस्त ताकतें उनके जीवन में भी जहर घोल देती हैं। इसलिए वो भी इस बहस से अछूते नहीं रह सकते जो सोचते हैं कि हमें इस सबसे क्या?
 
इन सवालों के जवाब ढूँढ़ने की ईमानदार कोशिश हुई है इंदौर से। इन बहस-मुबाहिसों को बंद कमरों तक सीमित रखने की बजाय कुछ दीवानों ने इन सवालों का आख़िरी तक पीछा करने की ठान ली है। निनाद और अदबी कुनबा नाम से गीत-संगीत, शेर-ओ-शायरी और ठेठ इंदौरी अंदाज़ में खान-पान की महफिलें सजाने वाले कुछ नौजवानों ने मिलकर एक आवाज़ लगाई है – हमसाज़। हमसाज़ यानी एक आवाज़। 
 
अलग-अलग धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों से आने वाले इन बाशिंदों ने हमसाज़ नाम से 11 और 12 अप्रैल को इंदौर में एक धर्म सम्मेलन का आयोजन किया है। बातों-ही-बातों में इन साथियों ने देश भर से अलग-अलग धर्मों के कई बड़े नामों की नुमाइंदगी पक्की कर दी। कार्ड छपे, विषय और बहस के सिलसिले तय हुए हैं। जिस जोश और जुनून से ये काम हुआ है वो वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है। इस कोशिश की ताईद इसलिए भी करनी ही चाहिए क्योंकि ये आज के वक्त की बड़ी ज़रूरत है।
 
 
कोई धार्मिक गुरु ये नहीं कहता कि हमें अपने धर्म को बड़ा और दूसरे को हीन मानना चाहिए। अच्छे बड़े मंचों से, लेखों और निबंधों में भी नफरत की बात कहीं नहीं मिलती। फिर आख़िर ये नफरत आती कहाँ से है? क्या हमारी उस फितरत से, उस पाखंड और ढ़कोसले से जिसके कारण हम भीतर कुछ और बाहर कुछ और होते हैं? तो फिर धर्म की ताकत हमारे इस पाखंड को ख़त्म क्यों नहीं कर पा रही? … ये उम्मीद है कि हमसाज़ से निकलने वाली आवाज़ से हमें इन सवालों के जवाब मिलेंगे.... और अगर सारे सवालों के जवाब नहीं भी मिलते हैं तो भी ये कोशिश लगातार जारी रहनी चाहिए.... क्योंकि इस तरह की कोशिशें ही हमारे ज़िंदा होने का सबूत हैं। 

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