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यह महंगाई नहीं, लूट है!

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अनिल जैन

इन दिनों अर्थव्यवस्था से जुड़ी सबसे बड़ी और सबसे बुरी खबर यह है कि आम आदमी को महंगाई से राहत मिलती नहीं दिख रही है। अनाज, दाल-दलहन, चीनी, फल, सब्जी, दूध इत्यादि आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। फिलहाल अंदेशा यही है कि ये कीमतें आगे और भी बढ़ेंगी। ऐसे में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों की इस मार को महंगाई कहना उचित या पर्याप्त नहीं है। 
यह साफतौर पर बाजार द्वारा जनता के साथ की जा रही लूट-खसोट है। ऐसा नहीं कि महंगाई का कहर कोई पहली बार टूटा हो। महंगाई पहले भी होती रही है, जरूरी चीजों के दाम पहले भी अचानक बढ़ते रहे हैं, लेकिन थोड़े समय बाद फिर नीचे आए हैं। मगर इस समय तो मानो बाजार में बाजार में आग लगी हुई है। वस्तुओं की लागत और उनके बाजार भाव में कोई संगति नहीं रह गई। 
 
इस मामले में जहां आम आदमी लाचार है और सरकार से आस लगाए हुए है कि वह कुछ करेगी, वहीं सरकार सिर्फ जनता को दिलासा देने के अलावा कुछ नहीं कर पा रही है। उसकी नीतियों से महंगाई बढ़ती जा रही है और वह खुद भी आए दिन पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाकर और अपनी इस करनी को देश के आर्थिक विकास के लिए जरूरी बताकर आम आदमी के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है।
 
अब यह याद करने या गिनने की कवायद बेमतलब है कि सरकार के संबंधित महकमों के मंत्रियों की ओर से कितनी बार जनता को यह भरोसा दिलाया गया कि महंगाई पर जल्द ही काबू पा लिया जाएगा। सरकार की ओर से कीमतों में उछाल के जो भी स्पष्टीकरण दिए गए हैं, वे कतई विश्वसनीय नहीं हैं। 
 
पिछले साल मानसून कमजोर रहा या पर्याप्त बारिश नहीं हुई, ये ऐसे कारण नहीं हैं कि इनका असर सभी चीजों पर एकसाथ पड़े। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि कीमतें इतनी ज्यादा होने के बावजूद बाजार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल-अभाव दिखाई नहीं पड़ता। जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाजारी शुरू हो जाती है। 
 
अभी न तो जमाखोरी हो रही है और न ही कालाबाजारी। हो रही है तो सिर्फ और सिर्फ बेहिसाब-बेलगाम मुनाफाखोरी। लगता है मानो सरकार या सरकारों ने अपने आपको जनता से काट लिया है। यह हमारे लोकतंत्र का बिलकुल नया चेहरा है- घोर जननिरपेक्ष और शुद्ध बाजारपरस्त चेहरा।
 
दो-ढाई दशक पहले तक जब किसी चीज के दाम असामान्य रूप से बढ़ते थे तो सरकारें हस्तक्षेप करती थीं। यह अलग बात है कि इस हस्तक्षेप का कोई खास असर नहीं होता था, क्योंकि उस मूल्यवृद्धि की वजह वाकई उस चीज की दुर्लभता या अपर्याप्त आपूर्ति होती थी। यह स्थिति पैदा होती थी उस वस्तु के कम उत्पादन की वजह से। 
 
अब तो सरकारों ने औपचारिकता या दिखावे का हस्तक्षेप भी बंद कर दिया है। वे बिलकुल बेफिक्र हैं- महंगाई का कहर झेल रही जनता को लेकर भी और जनता को लूट रही बाजार की ताकतों को लेकर भी। सरकारें महंगाई बढ़ने पर उसके लिए जिम्मेदार बाजार के बड़े खिलाड़ियों को डराने या उन्हें निरुत्साहित करने के लिए सख्त कदम भले ही न उठाए, पर आमतौर पर सख्त बयान तो देती ही हैं, लेकिन अब तो ऐसा भी नहीं हो रहा है।
 
अब तो कभी हमारे देश के कृषिमंत्री का बयान आता है कि कीमतें अभी और भी बढ़ सकती हैं, तो कभी खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री सलाह देते हैं कि अरहर की दाल महंगी है तो लोग खेसारी दाल खाना शुरू कर दें। मक्कारी और बेशर्मी की हद तो यह है कि सरकार के हिमायती एक योगगुरु फरमाते हैं कि ज्यादा दाल खाने से मोटापा बढ़ता है इसलिए लोग दाल का सेवन ज्यादा न करें। तो सरकारी पक्ष के मूर्खता और मक्कारी से युक्त ऐसे बयान मुनाफाखोरों को लूट की खुली छूट ही देते हैं।
 
अगर इस महंगाई का कुछ हिस्सा उत्पादकों तक पहुंच रहा होता या अनाज और सब्जी उगाने वाले किसान मालामाल हो रहे होते, तब भी कोई बात थी, लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है। इस अस्वाभाविक महंगाई का लाभ तो बिचौलिए और मुनाफाखोर बड़े व्यापारी उठा रहे हैं।
 
अगर सरकार को जनता से जरा भी हमदर्दी या उसकी तकलीफों का जरा भी अहसास हो तो वह अपने खुफिया तंत्र से यह पता लगा सकती है कि कीमतों में उछाल आने की प्रक्रिया कहां से शुरू हो रही है और इसका फायदा किस-किसको मिल रहा है। यह पता लगाने में हफ्ते-दस दिन से ज्यादा का समय नहीं लगता। 
 
लेकिन अभी तो कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी की ऐसी कोई व्याख्या या वजह उपलब्ध नहीं है, जो समझ में आ सके। ऐसा लगता है कि मानो किसी रहस्यमय शक्ति ने बाजार को अपनी जकड़न में ले रखा है जिसके आगे आम जनता ही नहीं, सरकार और प्रशासन तंत्र भी असहाय और लाचार हैं।
 
सरकार अगर चाहे तो वह इस समय बढ़ते दामों पर काबू पाने के लिए दो तरह से हस्तक्षेप कर सकती है। पहला तो यह कि अगर बाजार से छेड़छाड़ नहीं करना है तो सरकार खुद ही गेहूं, चावल, दलहन, चीनी आदि वस्तुएं बाजार में भारी मात्रा में उतारकर कीमतों को नीचे लाए। ऐसा करने से उसे कोई नहीं रोक सकता, बशर्ते उसमें ऐसा करने की मजबूत इच्छाशक्ति हो।
 
हस्तक्षेप का दूसरा तरीका यह है कि बाजार पर योजनाबद्ध तरीके से अंकुश लगाया जाए। इसके लिए उत्पादन लागत के आधार पर चीजों के दाम तय कर ऐसी सख्त प्रशासनिक व्यवस्था की जाए कि चीजें उन्हीं दामों पर बिके, जो सरकार ने तय किए हैं। जब सरकार कृषि उपज के समर्थन मूल्य तय कर सकती है तो वह बाजार में बिकने वाली चीजों की अधिकतम कीमतें क्यों नहीं तय कर सकती?
 
मीडिया की सर्वव्यापकता और सक्रियता के दौर में निर्धारित कीमतों पर चीजें बिकवाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ऐसा करने का नकारात्मक नतीजा यह हो सकता है कि कुछ दिनों के लिए आवश्यक वस्तुएं बाजार से गायब ही हो जाएं। बाजार बनाम सरकार का असली मोर्चा यही होगा। 
 
इस मोर्चे पर सरकार को बिचौलियों, जमाखोरों और सट्टेबाजों के खिलाफ सख्ती से पेश आना होगा, क्योंकि चीजों का बनावटी अभाव पैदा कर उनके दामों में मनमानी बढ़ोतरी यही लोग करते हैं। प्रशासन में अगर थोड़ी भी हिम्मत और संकल्पशक्ति हो तो वह बाजार को निरंकुश होने से रोक सकता है, लेकिन अभी तो सरकार की ओर से कुछ भी होता नहीं दिख रहा है।
 
जाहिर है कि जनसरोकारी व्यवस्था की लगाम सरकार के हाथ से छुट चुकी है जिसकी वजह से महंगाई का घोड़ा बेकाबू हो सरपट दौड़े जा रहा है। सब कुछ बाजार के हवाले है और बाजार की अपने ग्राहक या जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। यह नग्न बाजारवाद है जिसका बेशर्म परीक्षण किया जा रहा है। 
 
सवाल यही है कि अगर सब कुछ बाजार को ही तय करना है तो फिर सरकार के होने का क्या मतलब है? हम जिस समाज में रह रहे हैं, उस पर क्या लोकतंत्र का कोई नियम लागू होता है?

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