आंकड़ों की सच्चाई में झांकता बाघों का भविष्य
वर्ल्ड टाइगर डे के अवसर पर जब टाइगर्स की संख्या पर चिंता व्यक्त की जाती है तब हमें आंकड़ों का आईना भी साफ करना होगा और देखना होगा अपना अक्स कि कितने सालों से कितने खतरनाक तरीके से हमारे खूनी खजाने में उनके नाखून और खाल छुपे हैं। सच यही है, और सच को उसकी कड़वाहट के साथ ही स्वीकार करना होगा।
हाल ही में अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर 'ऑल इंडिया टाइगर इस्टीमेशन -2018' को जारी करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि भारत बाघों के लिए सुरक्षित जगह है। उन्होंने कहा कि 2014 में भारत में बाघों के संरक्षित क्षेत्रों की संख्या 692 थी जो 2019 में बढ़कर 860 से ज्यादा हो गई है। साथ ही कम्युनिटी रिजर्व की संख्या भी साल 2014 के 43 से बढ़कर अब 100 से ज्यादा हो गई है।
वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया (डब्लूपीएसआई) के अनुसार 2006, 2010, 2014 में टाइगर सेंसस में बाघों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। 2018 के चौथे टाइगर सेंसस में भी भारत में बाघों की संख्या में इजाफा हुआ है और अब यह आंकड़ा लगभग 3000 है।
लेकिन अब जरा इन पर भी गौर कर लीजिए : वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक बीते 2 साल में देश में 201 बाघों की मौत हुई है। इनमें से 63 बाघों का शिकार किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में 116 और 2018 में 85 बाघों की मौत हुई है। साल 2016 में 120 बाघों की मौतें हुईं थीं, जो साल 2006 के बाद सबसे अधिक थी। साल 2015 में 80 बाघों की मौत की पुष्टि की गई थी।
ताजा गणना के अनुसार, अब 3000 से अधिक बाघ हैं।
अकेले भारत में दुनिया के 60 फीसदी बाघ पाए जाते रहे हैं। एक सदी पहले भारत में कुल एक लाख बाघ हुआ करते थे। यह संख्या आज घटकर महज कुछ हजार रह गई है। ये बाघ अब भारत के क्षेत्रफल में महज दो फीसदी हिस्से में रह रहे हैं।
वर्ल्ड टाइगर डे के अवसर पर जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बोल रहे थे कि भारत में अभी 3000 टाइगर्स जिंदा हैं तो आशा की किरण चमकी लेकिन इन आंकड़ों पर इतनी जल्दी खुश होने के बजाए इन पर हम सबको थोड़ा और अध्ययन करने की जरूरत है। खास बात यह है कि आंकड़ों को लेकर आज भी विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों में मतभेद स्पष्ट नजर आते हैं।
बहरहाल, बाघों की घटती-बढ़ती संख्या पर बहस से पहले जिस बात पर सबसे ज्यादा चिंता की जानी चाहिए वह है देश में बाघ संरक्षित गलियारों व वन क्षेत्रों पर मंडराता गंभीर खतरा। बाघों की संख्या संरक्षित क्षेत्रों में कम तो हुई ही है, बाघों के पर्यावास वाले क्षेत्रफल में भी कमी देखी गई है। बाघों के आवासीय क्षेत्रों में पहले मौजूद 93600 किमी के मुकाबले अब 72800 किमी क्षेत्रफल ही बचा है जो बेहद चिंतनीय है। वन्य गलियारे जंगली जानवरों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं और ये प्राकृतिक गलियारे उन्हें एक जंगल से दूसरे वन क्षेत्र में सहजता से आने-जाने के लिए बेहद जरूरी हैं।
इस गणना से इस तथ्य का भी पता चलता है कि कुल अनुमानित संख्या में से 30 प्रतिशत बाघ संरक्षित क्षेत्रों से बाहर रह रहे हैं। इससे साफ होता है कि बाघों की संख्या भले ही बढ़ रही हो पर उनके आवासीय क्षेत्र में आती कमी उन्हें नए आवास ढूंढने पर मजबूर कर रही है। 39 संरक्षित क्षेत्र भी अब इन बढ़ते बाघों के लिए कम पड़ रहे हैं।
संरक्षित क्षेत्र से बाहर इन बाघों को लकड़ी तस्करों, शिकारियों, खनन माफिया और भू-माफिया से भारी खतरा है। कई राज्यों में चल रही कोयला खनन और सिंचाई परियोजनाएं भी बाघों के संरक्षण के लिहाज से कतई अनुकूल नहीं हैं।
जहां भारत के तराई क्षेत्र और दक्षिण भारत में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है वहीं सबसे ज्यादा चिंता की बात है कि मध्य भारत और पूर्वोत्तर भारत के इलाकों में उपलब्ध क्षेत्र के मुकाबले वहां बाघों की संख्या काफी कम है।
खतरा बना हुआ है : बाघों की मौत के मामले में मध्य प्रदेश लगातार चौथे साल पहले नंबर पर आ सकता है। प्रदेश में महज नौ माह में 23 बाघों की मौत हो चुकी है। मप्र के वनमंत्री उमंग सिंघार के अनुसार एक अक्टूबर 2018 से 26 जून 2019 तक इन बाघों की मौत हुई है। यही नहीं प्रदेश में पिछले तीन सालों में 28 से 33 बाघों की मौत के आंकड़े सामने आ रहे हैं। यह संख्या देश में सबसे ज्यादा है।
हालांकि उत्तराखंड, महाराष्ट्र, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में बाघों की तादाद में इजाफा हुआ है। बिहार, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारख़ंड, राजस्थान, उडीसा, मिजोरम, उत्तर-पश्चिम बंगाल और केरल में संख्या जस की तस बनी रही पर मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में बाघों की संख्या में गिरावट दर्ज हुई है जिसका बड़ा कारण शिकार और बाघ के नैसर्गिक क्षेत्र में आई कमी है।
रणथंभौर, बांधवगढ़, कॉर्बेट नेशनल पार्क, तेदोबा जैसे टाइगर रिजर्व के आस-पास बढ़ती मानव गतिविधियों के कारण इंसान और बाघों की मुठभेड़ के मामले भी बढ़े हैं। पिछले दिनों उप्र में गांव में भटक कर पहुंची बाघिन को भी 'मॉब लिंच' कर मार डाला गया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण है जब बाघ या अन्य मांसाहारी पशु इंसानी रिहाइश में पहुंचा और कीमत अपनी जान से चुकाई।
वास्तव में बाघों की तादाद बढ़ी है, यह सच है और इस बात के भी सबूत मिले हैं कि बाघों द्वारा नए प्राकृतिक क्षेत्रों में अपने आवास बनाए जा रहे हैं। यह बाघों के आवासीय क्षेत्रों में आती कमी की वजह से हुआ है। अकेले रहने के आदी बाघों को शिकार और प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अपना क्षेत्र बनाना पड़ता है जोकि 50-100 वर्ग किमी तक हो सकता है। कम पड़ती जगह के कारण बाघों के आपसी टकराव का अंदेशा भी बराबर बना रहता है।
बाघों की बढ़ती संख्या जहां एक राहत की आस जगाती है वहीं इस बात का अहसास भी दिलाती है कि अब समय आ गया है कि हम इस अभियान के दूसरे चरण 'बाघों के आवास, जंगलों को बचाएं' की शुरुआत करें। इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों को मिल-जुल कर कदम उठाना होगा। वोट बटोरने के लिए लोगों को पट्टे पर दिए जा रहे वन क्षेत्र जंगल का सर्वनाश ही करेंगे। जरूरत है प्राकृतिक संपदा को बचाने की, क्योंकि हमारा भविष्य इसी पर निर्भर है।
विडंबना है कि बाघों को बचाने के लिए मची होड़ में अभी सभी का ध्यान सिर्फ एक ही तरफ जा रहा है कि कुछ भी करके संकट में पड़े बाघों को बचाया जाए पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जो धीरे-धीरे हाशिए पर जा रहा है वह है बाघों को बचाने के साथ-साथ उन पशुओं, वनस्पति और पारिस्थितिकी तंत्र को भी संरक्षित किया जाए जो बाघ के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। उनकी सांसें बची रहें, हमारी सांसें बची रहें इसलिए शुद्ध हवा और जंगल भी बचे रहने दीजिए...यह नारा नहीं निवेदन है... नहीं तो टाइगर जिंदा है से एक था टाइगर कहने में वक्त नहीं लगेगा।