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गुमशुदा हुई जान्हवी और गुमशुदा तलाश केंद्र

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–वर्तिका नन्दा
नाम – जान्हवी। उम्र – तीन साल। लापता होने की जगह – इंडिया गेट। 28 सितंबर को जान्हवी अपने माता-पिता के साथ इंडिया गेट घूमने आई थी। वे लोग जब घर लौटने वाले थे, तब एक शराबी ने आकर पैसे मांगे। मां-बाप ने मना कर दिया। उसने धमकी दी कि वह देख लेगा और कुछ मिनटों बाद जान्हवी गायब।

5 अक्टूबर की शाम एक युवक ने दिल्ली पुलिस को फोन करके जान्हवी के मिलने की खबर दी। उसे बाल काटे जा चुके थे। पर पहचान से साबित हो गया कि यही है जान्हवी। इस एक घटना ने दिल्ली भर को भले ही उस कदर दुखी और विचलित न किया हो जैसा निर्भया ने किया था लेकिन तब भी उसने व्यवस्था की पोल तो खोल ही दी।
 
जब बच्चा गुमा तब दिल्ली छुट्टियों के मौसम में झूले ले रहा था। नवरात्र, दशहरा और फिर ईद की तैयारी। उन सबसे बीच एक सच यह भी कि दिल्ली पुलिस का एक बड़ा हिस्सा वीआईपी सुरक्षा में लगा रहता है। आंकड़ों की मानें तो करीब 85,000 की पुलिस संख्या में से 45,000 पुलिसकर्मी वीआईपी सुरक्षा या फिर अफसरों के घरों के काम पर लगे रहते हैं।  
 
इस बच्ची को खोज निकालने वाले के लिए महज 50,000 रूपए का इनाम देने की घोषणा तक करने में दिल्ली पुलिस ने खासा वक्त लगा दिया। दिल्ली पुलिस के पास सफाई अभियान में लगे अधिकारियों की फोटो मीडिया को देने का समय था लेकिन लड़की की खोज की कोई खबर देने का नहीं। दिल्ली पुलिस का लापता केंद्र भी उस तरह से सक्रिय नहीं दिखता जितनी सक्रिय दिल्ली पुलिस की सोशल मीडिया में दिखने की चाहत। वैसे दूरदर्शन बरसों से शाम के समय गुमशुदा बच्चों पर सूचनाओं का प्रसारण तो करता है लेकिन यहां यह भी रोचक है कि निजी मीडिया ने बच्चों के खो जाने को कभी एक खबर से ज्यादा कुछ नहीं समझा और खुद पुलिस को भी यह मामला कभी बहुत बड़ा लगा नहीं। यह बात अलग है कि जब किसी पुलिस अधिकारी का कुत्ता या किसी नेता की भैंस गुम जाती है तो सरकारी ढांचा उनकी तलाश में आसमान तक को खंगाल मारता है।
 
 
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बहरहाल, मीडिया में भी जान्हवी की खबर तब खबर बनी जब सोशल मीडिया में इस पर आवाजें जोर से उठने लगीं। जान्हवी के परिवार ने दो साइट्स और फेसबुक पेज के जरिए बच्ची को ढूंढने की अपीलें जारी कीं। मैंने खुद फेसबुक पर पुलिस आयुक्त से लेकर दिल्ली की महिला और बाल अपराध शाखा, नानकपुरा तक को बच्ची को ढूंढने में तेजी दिखाने का आग्रह किया और अपनी चिंता भी दर्ज की लेकिन दिल्ली में इस बच्ची को लेकर कोई खास सरोकार दिखाई नहीं दिया। त्योहार के मौसम में दिल्ली शायद अपराध की बात करने के मूड में नहीं थी। 
 
ज्यादातर चैनल दशहरे और सफाई अभियान में ऐसे जुटे कि उन्हें एक बच्ची को लेकर ज्यादा असर पड़ते नहीं दिखा। खैर, यह भी बर्दाश्त किया जा सकता था क्योंकि हमें इसकी आदत है लेकिन हद तो तब हो गई जब 5 अक्टूबर की शाम हिन्दी के एक चैनल ने यह बताना शुरू किया कि बच्ची के साथ क्या-क्या हो सकता है। इस पैकेज में डर सर्वोपरि था, गोया लड़की के मां-बाप की बची जान को सुखा डालने के लिए ही उस पैकेज को गढ़ा गया हो। चैनल ने लड़की की बिलखती मां से फिर से यह भी समझना चाहा कि लड़की गुमी कैसे। यह सवाल ठीक उसी पुराने अंदाज में था कि आपको लग कैसा रहा है।
 
भारत में हर साल डेढ़ लाख से ज्यादा बच्चे लापता हो जाते हैं और इनमें से करीब 45 प्रतिशत का कोई सुराग तक नहीं मिल पाता। पाकिस्तान में हर साल 3000 बच्चे लापता होते हैं और जनसंख्या में नंबर एक पर खड़े चीन से करीब 10,000। इस लिहाज से बच्चों के गायब होने के मामले में भारत का कोई सानी नहीं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक भारत में हर 8 मिनट में एक बच्चा गायब हो जाता है। गायब होने वाले बच्चों में 55 प्रतिशत लड़कियां होती हैं और उन्हें आम तौर पर या तो अपराध के बाद मार डाला जाता है, उनसे भीख मंगवाई जाती है या फिर उन्हें वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है। दिल्ली में ही हर रोज 18 बच्चे लापता होते हैं, जिनमें से कम से कम 4 का कभी कोई सुराग नहीं मिलता
 
बच्चों को लेकर आज भी हमारे यहां किसी ठोस नीति की कमी है। यह बात अलग है कि बच्चों और महिलाओं को लेकर इस देश में गैर-सरकारी संस्थाओं की कोई कमी नहीं लेकिन उनकी सक्रियता और ईमानदारी हमेशा ही शक के घेरे में रही है।
 
कहने की बात यह हो सकती है कि चूंकि अपराध दिल्ली में हुआ था, इसलिए उसकी चिंता ज्यादा हुई लेकिन असल में यह बात हकीकत से दूर है। दिल्ली का अतीत खूंखार अपराधों का रहा है और अपराधों की बहुतायत अक्सर संवेदनहीनता को जन्म देती है। दिल्ली में भी यही हुआ है। जब तक शोर करने वाली चार आवाजें जमा नहीं होतीं, कोई सामने नहीं आता। दिल्ली वाले हमेशा किसी दूसरे के पहले सामने आने का इंतजार करते हैं।
 
दूसरे, अपराधियों को दी जाने वाली सजा के मामले में भी हमारा रिपोर्ट कार्ड पूरी तरह से चौपट है। ज्यादातर मामलों में तो वैसे भी केस ही दर्ज नहीं होता और जहां दर्ज हो जाता है, वहां मामले की सुनवाई सालों चला करती है।
 
बहरहाल, यह समय बच्चों और महिलाओं की असुरक्षा का है। हमें इस सच को मान लेना चाहिए कि हमारा सभ्य समाज बच्चों और महिलाओं के साथ बलात्कार के सिवा किसी और अपराध को बड़ा अपराध मानता ही नहीं और बलात्कार भी सिर्फ वह जो क्रूर हो और जिसे मीडिया की आंख रिकॉर्ड करे। घर की हिंसा से लेकर लापता होना तक जैसे स्वीकार्य अपराध हो चुके हैं। नई सरकार के आने के बाद अच्छे दिनों की उम्मीदें बनी थीं, लेकिन मेनका गांधी के निर्देशन में महिला और बाल विकास मंत्रालय ने अब तक कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया है जिसे देखकर चैन की सांस ली जा सके।
 
कानून का दुरुपयोग हमारी बहस का केंद्र बना रहता है जबकि इस पर बहस शुरू भी नहीं हो पाती कि कानून का उपयोग हो भी पा रहा है या नहीं। हमारी शक्तियां अपराधी को नाबालिग साबित करने या किसी तरह उसे बचा लेने के कथित मानवीय पक्ष के आस-पास तो घूम लेती है, लेकिन हमारी नजर पीड़ित के आंसुओं पर जरा नहीं टिकती। उसके लिए किसी के पास समय नहीं। पुलिस, मंत्रालय, एनजीओ, मीडिया और सोशल मीडिया के युवाओं – सभी को जान्हवी के बहाने उन बच्चों की सुध लेनी ही चाहिए जिनका बचपन किसी अंधेरी और संकरी गली में खो गया है। बच्चे टीवी विज्ञापन या फिल्म में सजावट की चीज नहीं हैं। वे एक जीती-जागती खूबसूरत इंसानी जिंदगी हैं। वे हैं, तभी हम भी हैं। 

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