कश्मीर समस्या : संपूर्ण विश्लेषण पढ़ें-3
खुद के ही देश में शरणार्थीं हैं कश्मीरी पंडित
हमने पहले भाग में बताया कि किस तरह आधे कश्मीर पर पाकिस्तान ने कब्जा किया और किस तरह यह विवादित क्षेत्र बना। दूसरे भाग में बताया कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के क्या हालात हैं। अब जानिए कि किस तरह पाकिस्तान की आईएसआई संस्थान और सेना ने मिलकर पंडितों के खिलाफ अभियान चलाया और केंद्र और राज्य की सरकार मूक दर्शक बनकर देखती रही।
विस्थापित कश्मीरी पंडितों का एक संगठन है 'पनुन कश्मीर'। इसकी स्थापना सन् 1990 के दिसम्बर माह में की गई थी। इस संगठन की मांग है कि कश्मीर के हिन्दुओं के लिए कश्मीर घाटी में अलग राज्य का निर्माण किया जाए।
पनुन कश्मीर का अर्थ है हमारे खुद का कश्मीर। वह कश्मीर जिसे हमने खो दिया है उसे फिर से हासिल करने के लिए संघर्ष करना। पन्नुन कश्मीर, कश्मीर का वह हिस्सा है, जहां घनीभूत रूप से कश्मीरी पंडित रहते थे। लेकिन 1989 से 1995 के बीच कत्लेआम का एक ऐसा दौर चला की पंडितों को कश्मीर से पलायन होने पर मजबूर होना पड़ा।
नरसंहार : इस नरसंहार में 6000 कश्मीरी पंडितों को मारा गया। 750000 पंडितों को पलायन के लिए मजबूर किया गया। 1500 मंदिरों नष्ट कर दिए गए। 600 कश्मीरी पंडितों के गांवों को इस्लामी नाम दिया गया। इस नरसंहार को भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार मूकदर्शक बनकर देखती रही। आज भी नरसंहार करने और करवाने वाले खुलेआम घुम रहे हैं।
केंद्र की रिपोर्ट अनुसार कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों के अब केवल 808 परिवार रह रहे हैं तथा उनके 59442 पंजीकृत प्रवासी परिवार घाटी के बाहर रह रहे हैं। कश्मीरी पंड़ितों के घाटी से पलायन से पहले वहां उनके 430 मंदिर थे। अब इनमें से मात्र 260 सुरक्षित बचे हैं जिनमें से 170 मंदिर क्षतिग्रस्त है।
विस्थापित कश्मीरी पंडित कहते हैं कि कश्मीर एक सुलझा हुआ मुद्दा है और पाकिस्तान के साथ चर्चा उन क्षेत्रों को खाली करने को लेकर होनी चाहिए जिस पर उसने ‘अवैध’ तरीके से कब्जा कर रखा है और उन लोगों को पकड़कर जेल में डालना चाहिए जो अलगाववाद और आतंकवाद का समर्थन करते हैं। यदि धार्मिक आधार पर कश्मीरी पंडितों को मारकर खदेड़ा गया तो क्यों नहीं धार्मिक आधार पर पनुन कश्मीर की मांग की जाए? यदि धार्मिक आधार पर ही आजाद कश्मीर की मांग की जा रही है तो क्यों नहीं पनुन कश्मीर की मांग की जाए?
पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादियों द्वारा छेड़े गए छद्म युद्ध के द्वारा आज कश्मीरी पंडित अपनी पवित्र भूमि से बेदखल हो गए हैं और अब अपने ही देश में शरणार्थियों का जीवन जी रहे हैं। पिछले 26 वर्षों से जारी आतंकवाद ने घाटी के मूल निवासी कहे जाने वाले लाखों कश्मीरी पंडितों को निर्वासित जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया है। ऐसा नहीं है कि पाक अधिकृत कश्मीर और भारतीय कश्मीर से सिर्फ हिंदुओं को ही बेदखल किया गया। शिया मुसलमानों का भी बेरहमी से नरसंहार किया गया।
चुप हैं सरकारें : यह अत्याचर कई वर्षों तक चलता रहा, लेकिन भारत की केंद्र और राज्य सरकारों ने कभी भी उन्हें सुरक्षा प्रदान नहीं की और आज भी जबकि वह जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में नरक से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं तो सरकारें चुप हैं।
ऐसे शुरू हुआ कश्मीरी पंडितों का नरसंहार...
कबायलियों का आक्रमण : 24 अक्टूबर, 1947 की बात है, कबाइलियों के कश्मीर पर आक्रमण को पाकिस्तानी सेना ने उकसाया, भड़काया और समर्थन दिया। खुद की कबाइलियों के भेष में जंग के मैदान में कुद पड़े। तब तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद का आग्रह किया। नेशनल कांफ्रेंस, जो कश्मीर का सबसे बड़ा लोकप्रिय संगठन था जिसके अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला थे, ने भी केंद्र सरकार से रक्षा की अपील की थी।
भारत के विभाजन के तुरंत बाद ही कश्मीर पर पाकिस्तान ने कबाइलियों के साथ मिलकर आक्रमण कर दिया और बेरहमी से कई दिनों तक कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार किए गए, क्योंकि पंडित नेहरू ने सेना को आदेश देने में बहुत देर कर दी थी।
इस देरी के कारण जहां पकिस्तान ने कश्मीर के एक तिहाई भू-भाग पर कब्जा कर लिया, वहीं उसने कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम कर उसे पंडित विहीन कर दिया। अब जो भाग रह गया वह अब भारत के जम्मू और कश्मीर प्रांत का एक खंड है और जो पाकिस्तान के कब्जे वाला है, उसे पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) कहते हैं जहां से कश्मीरी युवकों को धर्म के नाम पर भारत के खिलाफ भड़काकर कश्मीर में आतंकवाद फैलाया जाता है।
1947 में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से भगाए गए कश्मीरी पंडित भारत के जम्मू और कश्मीर में रहते हैं। आजादी के बाद से ही पाक अधिकृत कश्मीर में कश्मीर और भारत के खिलाफ आतंकवाद का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, लेकिन 1990 में बेनजीर भुट्टो के काल में आतंक का एक नया दौर शुरु हुआ।
बेनजीर के काल में इस तरह फैला आतंकवाद...
कश्मीरी पंडितों का पलायन : पाक अधिकृत कश्मीर के नरसंहार के बाद भारत अधिकृत कश्मीर में रह रहे पंडितों के लिए कश्मीर में छद्म युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के काल में हुई। उसने षड़यंत्र पूर्वक कश्मीर में अलगाव और आतंक की आग फैलाई।
उसके भड़काऊ भाषण की टेप को अलगाववादियों ने कश्मीर में बांटा। बेनजीर के जहरिले भाषण ने कश्मीर में हिन्दू और मुसलमानों की एकता तोड़ दी। अलगाववाद की चिंगारी भड़का दी और फिर एक सुबह पंडितों के लिए काल बनकर आई।
19 जनवरी 1990 को सुबह कश्मीर के प्रत्येक हिन्दू घर पर एक नोट चिपका हुआ मिला, जिस पर लिखा था- 'कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे।'
पहले अलगाववादी संगठन ने कश्मीरी पंडितों से केंद्र सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कहा था, लेकिन जब पंडितों ने ऐसा करने से इनकार दिया तो हजारों कश्मीरी मुसलमानों ने पंडितों के घर को जलाना शुरू कर दिया। महिलाओं का बलात्कार कर उनको छोड़ दिया। बच्चों को सड़क पर लाकर उनका कत्ल कर दिया गया और यह सभी हुआ योजनाबद्ध तरीके से। इसके लिए पहले से ही योजना बना रखी थी। यह सारा तमाशा पूरा देश मूक दर्शक बनकर देखता रहा।
सबसे पहले हिन्दू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिन्दुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक बलात्कार कर जिंदा जला दिया गया या नग्नावस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। यह मंजर देखकर कश्मीर से तत्काल ही 3.5 लाख हिंदू पलायन कर जम्मू और दिल्ली पहुंच गए।
देश का मुसलमान तब चुप क्यों था : संसद, सरकार, नेता, अधिकारी, लेखक, बुद्धिजीवी, समाजसेवी, भारत का मुसलमान और पूरा देश सभी चुप थे। कश्मीरी पंडितों पर जुल्म होते रहे और समूचा राष्ट्र और हमारी राष्ट्रीय सेना देखती रही। आज इस बात को 25 साल गुजर गए।
1989 के पहले कभी कश्मीरी पंडित बहुसंख्यक हुआ करते थे, लेकिन आज वह शरणार्थी शिविर में नारकीय जीवन काट रहे हैं। 25 साल गुजर गए किसी भी सरकार ने उनकी सुध नहीं ली। क्यों?
अगले पन्ने पर जारी पंडितों की दर्दनाक दास्तां...
कभी बहुसंख्यक थे कश्मीरी पंडित : औरंगजेब के काल में पहली बार कश्मीरी पंडितों पर जुल्म ढाए गए। आजादी के पहले तक कश्मीरी पंडित बहुसंख्यक हुआ करते थे, लेकिन आज वह शरणार्थी शिविर में नारकीय जीवन काट रहे हैं। 25 साल गुजर गए किसी भी सरकार ने उनकी सुध नहीं ली। आज कश्मीर के पंडित एक ऐसा समुदाय हो गए हैं, जो बिना किसी गलती के ही अपने घर से बेघर हो गए हैं। उन्हें शायद अपनी शांतिप्रियता के कारण ही यह दिन देखने पड़ रहे हैं कि सब कुछ होते हुए भी वे और उनके बच्चे सड़क पर हैं।
भारत की आजादी ने उनसे उनका सब कुछ छीन लिया। 1989 के पहले भारतीय कश्मीर के पंडितों के पास अपनी जमीनें, घर, बगीचे, नावें आदि सभी कुछ था। ऐसा नहीं है कि कश्मीरी मुसलमानों को कुछ मिला हो। कश्मीरी मुसलमान भी उतना ही बदतर जीवन जी रहा है, जितना कि कश्मीरी पंडित। कश्मीरी पंडितों की जमीन और मकानों पर कब्जा करने वाले कौन हैं? स्थानीय मुसलमान या राज्य सरकार?
शियाओं का भी किया गया कत्लेआम : पाक अधिकृत कश्मीर में जिस तरह पंडितों को मार-मार कर भगाया गया उसी तरह वहां से शिया मुसलमानों को भी भगाया गया। शिया मुसलमानों का कत्लेआम किया गया। इसके दूसरे चरण में भारत के कश्मीर से पहले हिन्दुओं का नरसंहार किया गया फिर शिया मुसलमानों का।
घाटी से पलायन करने वाले कश्मीरी पंडित जम्मू और देश के अन्य इलाकों में विभिन्न शिविरों में रहते हैं। 25 साल से वे वहां जीने को विवश हैं। एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई।
1947 में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से भगाए गए कश्मीरी पंडित जम्मू में रहते हैं इसके बाद भारत अधिकृत कश्मीर से भगाए गए पंडित भी जम्मू या भारत के अन्य हिस्सों में रहते हैं लेकिन वहां भी उनका जीवन मुश्किलों से भरा हुआ है। कौन सुध लेगा इन पंडितों की?
‘जेहाद’ और ‘निजामे-मुस्तफा’ के नाम पर बेघर किए गए लाखों कश्मीरी पंडितों के वापस लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। नई कालोनी बनाने का विरोध किया जा रहा है। ऐसे में जातिसंहार और निष्कासन के शिकार कश्मीरी पंडित घाटी में अपने लिए अलग राज्य की मांग नहीं करें तो क्या करें?
कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की सचाई...
पुनर्वास की सचाई : सच्चाई यह है कि कोई भी संगठन, राज्य और केंद्र सरकार कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास में खास रुचि नहीं रखती। कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी के लिए विभिन्न केंद्रीय व राज्य सरकारें लगातार प्रयास करने का दावा करते हुए कई पैकेजों की घोषणा कर चुकी हैं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात है, क्योंकि राज्य सरकार की वोट की राजनीति के चलते कभी नियत साफ नहीं रही।
विस्थापित कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के नेता डॉ. अजय चरंगु का कहना है कि कश्मीरी पंडितों की कश्मीर की सियासत में कोई निर्णायक भूमिका नहीं रह गई है। हम लोगों को बडे़ ही सुनियोजित तरीके से हाशिये पर धकेला गया है।
कश्मीर से 1989 और 90 में लगभग 7 लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों का विस्थापन हुआ था। राज्य सरकार कहती है कि एक लाख से कम थे। सभी विस्थापित जम्मू, ऊधमपुर के विस्थापित शिविरों में रह रहे हैं। कई विस्थापित दिल्ली व देश के अन्य शहरों में शरण लिए हुए हैं। गांदरबल से भी कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ, लेकिन सरकार का दावा है कि पूरे गांदरबल जिले में कोई भी विस्थापित मतदाता नहीं है।
डॉ. चरंगु के अनुसार कश्मीरी पंडितों को वादी में बसाने लायक जिस माहौल की जरूरत है वह कोई तैयार नहीं कर रहा है। प्रधानमंत्री का कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए घोषित पैकेज भी सरकारी लालफीताशाही के फेर में ही फंसा हुआ है। बेरोजगारी और मुफलिसी के बीच जी रहे कश्मीरी पंडित पहले अपनी जान बचाएंगे या सियासी हक के लिए लड़ेंगे? एक अन्य कश्मीरी नेता चुन्नी लाल कौल के अनुसार सभी को कश्मीरियत का शब्द बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन हमारे लिए यह कोई मायने नहीं रखता।
पनुन कश्मीर की मांग करने वाले कहते हैं कि कश्मीरी पंडित कश्मीर में घर वापसी के लिए हर समय तैयार हैं, लेकिन जिस प्रकार मुख्यमंत्री के बयान बार-बार बदल रहे हैं, उसको देखकर लगता नहीं है कि कश्मीरी अलगाववादी नेता और मुख्यमंत्री कश्मीरी पंडितों की वापसी चाहते हैं। अगर राज्य और केंद्र सरकार कश्मीरी पंडितों की वापसी चाहती है तो इसका हल केवल पनुन कश्मीर है।
पनुन कश्मीर हेडक्वार्टर जम्मू संयोजक के डॉ. अग्निशेखर मानते हैं कि जिस प्रकार राज्य में हालात बने हैं, कश्मीर के विभाजन की सख्त जरूरत बन चुकी है। डॉ. अग्निशेखर कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के बयान लगातार बदल रहे हैं। मुख्यमंत्री कहते हैं कि ज्यादातर कश्मीरी दूसरे राज्यों और विदेशों में बस गए हैं और वे वापस नहीं आएंगे। अब मुख्यमंत्री गिलानी और यासीन मलिक के सुर के साथ सुर मिलाने लग गए हैं।
मुख्यमंत्री एक बात अच्छी तरह से समझ लें कि अगर कश्मीरी पंडितों की सुरक्षित तरीके से वापसी करवाई जाती है तो हर हाल में कश्मीरी पंडित वापस कश्मीर में जाएंगे और चाहे वह विदेश में रहते हैं या फिर अन्य राज्यों में। (एजेंसियां)