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हकीकत को नकारते किताबी दावे!

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, शुक्रवार, 10 जून 2016 (14:24 IST)
धीरेन्द्र गर्ग
कोई भी व्यवस्था अपने शुरुआती दौर पर कितनी ही बेहतर क्यों न हो, आगे चलकर उसमें विचलन जरूर आता है...वह टूटती है और बिखरती भी हैंं। 
नब्बे का दशक भारत के लिए बड़े आर्थिक बदलाव और सुधार का था। उस समय जब आर्थिक बदलाव शुरू किए गए, तब देश के वित्त मंत्रालय की कमान डॉ मनमोहन सिंह के हाथों में थी।


सुधारों से लोगों को बड़ी उम्मीदें थी कि उनके आर्थिक हालात सुधरेंगे लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य पर पर्याप्त ध्यान न देने की वजह से देश में गरीबी, भुखमरी और लैंगिक विषमता जैसी समस्याएं बढ़ी हैं, जिससे देश का विकास प्रभावित हो रहा है।
 
इसमें कोई संशय नहीं है कि दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की की है लेकिन इसके बावजूद देश की एक तिहाई आबादी आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को मजबूर है। सरकार लगातार जीडीपी के बढ़ने का दावा कर रही है। लेकिन इन किताबी दावों से हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। अगर यह मान भी लें कि अर्थव्यवस्था की ग्रोथ हुई भी है, तो ऐसी ग्रोथ का क्या मतलब जहां बैंक दिवालिया होने की कगार पर हों, किसान फांसी लगा रहे हों और बेरोजगारों की फौज खड़ी हो! 
 
आज भारत ऐसा देश बन गया है जो दुनिया की एक तिहाई गरीबी को ढो रहा है। दुनिया का हर चौथा भूखा व्यक्ति हिन्दुस्तान का है। भारत की तुलना में चीन अपने यहां गरीबों की तादाद कम करने में सफल रहा है किंतु भारत में विकास का लाभ सभी लोगों तक समान रूप से नहीं पहुंच पाया। बीते कुछ सालों में भारत की विकास दर लगभग 9 फीसदी के करीब रही है, लेकिन ग्रामीण भारत में आय की दर बहुत धीमी रही है। संपत्ति के मामले में आज भी देश के करीब 21.5 करोड़ लोगों के पास कोई संपत्ति नहीं है। सरकार का दावा है कि लोगों में कुपोषण घटा है, जबकि नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि देश के लगभग दो तिहाई लोग जरूरत से कम कैलोरी की खुराक ले रहें है। यानी स्थिति सुधरने की बजाए और भी खराब होती जा रही है।
 
जानकारों का मानना यह है कि तेजी बढ़ रही गरीबी की वजह से कुपोषण और भुखमरी बढ़ रही है। कुपोषण एक चुनौती की तरह है जिससे देश को मुक्ति चाहिए और इसके लिए ठोस पहल की जरूरत है। पिछले कुछ सालों में देशभर में ढेर सारे गैर सरकारी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी खुले हैं लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव और भ्रष्टाचार के कारण स्तरीय शिक्षा को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है। सुकरात ने कहा था कि "जिस देश की शिक्षा और सुरक्षा राजनीति की गोद में बैठ जाती है वह देश पंगु हो जाता है", परंतु हमारे यहां दोनों में ही राजनीति ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है। 
 
ऐसा नहीं है कि यह काम आज से ही हो रहा है इस शैक्षिक गुलामी की इबारत तो इंग्लैंड में विस्टन चर्चिल ने पहले ही लिख दी थी, जिसका भारत में नेतृत्व मैकाले ने किया। चर्चिल कहा करते थे कि भारत की संस्कृति और शिक्षा लोगों को आपस में इस कदर बांधे रखती है कि उन पर शासन कर पाना संभव नहीं है।  इसलिए सबसे पहले वहां की शिक्षा नीतियों को बदलो और फिर राज करो। इसी की यह देन थी कि भारत में अमीरों के लिए कॉन्वेंट और गरीबों के लिए सरकारी विद्यालय खोले गए और यहीं से शुरु हुआ भारत की गुलामी का सिलसिला।
 
बहरहाल, आज हम भले ही शारीरिक रूप से आजाद हो गए हों, लेकिन हमारी मानसिकता आज भी विदेशों में गिरवी रखी है। शिक्षा की स्थिति यह है कि भारत के विकास के लिए आईआईटी और आईआईएम जरूरी इंजीनियर और मैनेजर प्रशिक्षित करने की हालत में नही हैं। शोध और विकास के क्षेत्र में भी भारत पर्याप्त खर्च नहीं कर रहा है। लभभग 70 फीसदी स्नातक नौकरी के योग्य ही नही हैं। शिक्षा का स्तर इस कदर गिर गया है कि शिक्षकों को पढ़ने-लिखने व शोध करने का शौक कम और राजनीति की इल्लत ज्यादा लग गई है। माना तो यह जाता है कि किसी भी विश्वविद्यालय का कुलपति एक बड़ा शिक्षाविद् होता है लेकिन राजनीति की मारी शिक्षा व्यवस्था में सारे मानक बदल गए हैं। आज जिस व्यक्ति की राजनीतिक पैठ है उसे निवृति के रूप में कुलपति या राज्यपाल का पद थम दिया जाता है। ऐसा भी नहीं है कि ऐसा काम कोई एक राजनीतिक दल करता है बल्कि सभी पार्टियां इन कामों में लिप्त रहती है।
 
आधुनिकता की अंधी दौड़ में परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवाओं ने शहरों का रुख किया है। आज भी आर्थिक हिस्सेदारी में महिलाओं को बोझ समझा जाता है उन्हें अर्थव्यवस्था में सिर्फ उपभोग की वस्तु ही समझा जाता है। हमारा समाज महिलाओं के मुद्दों को किस तरह नजर अंदाज कर रहा है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि सालों से चल रही बहस के बावजूद महिलाओं के लिए संसद में सीटों के लिए सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं बन पाई है। देश का ऐसा कोई खास हिस्सा नहीं है जो इन समस्याओं से पीड़ित है, बल्कि पूरा देश ऐसी घटनाओं से वाबस्ता है। सिर्फ जुमलों से या मन की बात कह देने भर से देश की दशा नहीं सुधरने वाली इसके लिए विचारों का क्रियान्वयन होना भी जरूरी है। ऐसी स्थिति में  सरकार को चाहिए कि वह जमीनी समस्याओं पर ध्यान दें और उसे दूर करने के लिए जरूरी कदम उठाए।

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