डरपोक तो अब भी हूं, लेकिन शायद उम्र के हिसाब से अपने जेहन से यह अब कुछ ज्यादा ही कम हो गया है। असम कैडर के सुपर कॉप केपीएस गिल नहीं रहे और अपना डरपोक स्वभाव याद आ गया, लेकिन पता नहीं कैसे उनसे 2002 की उमसभरी गर्मियों में मैं उनसे उलझ पड़ा था। सवाल यह उठ सकता है कि आखिर मुझे डर क्यों लग रहा था। मुझे 1993 की वह घटना याद थी। मैं नया-नया दिल्ली आया था। उन्हीं दिनों अखबारों की सुर्खियां बनी थीं केपीएस गिल से सवाल पूछने वाले द स्टेट्समैन के एक पत्रकार और फोटोग्राफर की पिटाई की।
तब गिल देश के हीरो थे। पंजाब के अलगाववादियों से खुल्लमखुल्ला लोहा ले रहे थे। उन्हीं दिनों पंजाब की एक आईएएस अफसर रूपन देवल बजाज के साथ गिल की बदसलूकी की खबरें भी सुर्खियों में थीं। आतंकियों और अलगाववादियों को गोली का जवाब गोली से देते-देते गिल भूल गए थे कि आम लोगों के साथ पेश आने का तरीका कुछ और होता है। उन्हीं दिनों वे भारतीय हाकी संघ के अध्यक्ष चुने गए थे। हाकी संघ के चुनाव में कुछ धांधली और मनमानी की भी खबरें थीं। उसी सिलसिले में स्टेट्समैन के पत्रकारों ने कुछ अप्रिय सवाल गिल से पूछ लिए थे। गिल इन सवालों से इतना चिढ़ गए कि उनके गुस्से को देख उनकी सुरक्षा में तैनात पंजाब पुलिस के सिपाहियों और इंस्पेक्टरों ने उन पत्रकारों की जमकर पिटाई कर दी थी।
तब भारतीय जन संचार संस्थान की हमारी कक्षाओं में इस संदर्भ में पत्रकारों की भूमिका को लेकर चर्चाएं भी हुई थीं। बाद में जब तूल पकड़ा तो गिल दिल्ली के बाराखंबा रोड स्थित स्टेट्समैन बिल्डिंग में उसके तत्कालीन संपादक (अब स्वर्गीय) सीआर ईरानी से मिलने पहुंचे थे और खेद जताया था। बहरहाल यह घटना मन में कहीं घर कर गई थी और तब से एक-आध बार पत्रकारीय कर्म के चलते उनसे प्रतिक्रियाएं लेनी पड़ी तो उनसे बच के ही सवाल करता रहा।
2002 में दिल्ली के अगस्त क्रांति मार्ग स्थित शॉपर स्टॉप अंसल प्लाजा के बेसमेंट स्थित पार्किंग में आतंकवादियों से दिल्ली पुलिस की स्पेशल ब्रांच की मुठभेड़ हुई थी। इस मामले में घटना के दिन खुद को गवाह कहने वाले होमियोपैथिक डॉक्टर हरिकृष्ण ने दावा किया था कि यह मुठभेड़ फर्जी थी।
हरिकृष्ण ने इस घटना में शामिल होने वाले कुछ नामों की सूची भी जारी की थी। ऐसी घटनाओं के बाद जैसा कि अपने देश में होता है, मानवाधिकारवादियों की फौज इस मुठभेड़ पर सवाल उठाने लगी। इसकी अगुआई प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैय्यर कर रहे थे। इस मामले ने बहुत तूल पकड़ा। कुलदीप नैय्यर की अगुआई में हर मुमकिन मंचों पर इस मुठभेड़ को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे। इसे लेकर हमारे तत्कालीन अखबार ने मुझे कुलदीप नैय्यर के साथ ही सुपर कॉप केपीएस गिल से इंटरव्यू करने की जिम्मेदारी दी।
कुलदीप साहब को तो अपनी बात कहनी थी, इसलिए उनसे इंटरव्यू में कोई दिक्कत नहीं हुई। उन्होंने मानवाधिकार का हवाला देते हुए लंबी कहानी और पुलिस पर सवालों की फेहरिश्त दाग दी। उसके जवाब में मैं जब केपीएस गिल का इंटरव्यू करने पहुंचा, तब वे दिल्ली के तालकटोरा रोड पर रहते थे। उनसे कुलदीप नैय्यर का हवाला देते हुए अंसल प्लाजा की मुठभेड़ पर सवाल पूछा तो वे भड़क गए। यह बात और है कि वह गुस्सा मुझ पर नहीं, नैय्यर साहब पर था। उन्होंने नैयर साहब को बोझ ढोने वाला एक चौपाया जानवर बताया। मैं मुस्कुराते हुए उसे लिखने से बचता रहा, लेकिन वे जोर देने लगे- “मैं कह रहा हूं, लिखो कि कुलदीप .......है।” मैंने उनके जोर देने के बावजूद नहीं लिखा तो उन्होंने पूछा कि क्या अखबार में भी यह नहीं लिखोगे। मैंने कहा कि ऐसी भाषा अखबार में नहीं लिखी जा सकती। तो गिल साहब मुझ पर गुस्सा गए। गुस्से में पूछ बैठे, “फिर मेरा इंटरव्यू क्यों लेने आए।”
“इसलिए कि आप महत्वपूर्ण हस्ती हैं और पुलिस की मजबूरियों, आतंकियों से पुलिस के जूझने की परेशानियों और कारनामों के जानकार हैं, ऐसे अभियानों के नेता रहे हैं।” मेरा जवाब था।
“तो मैं जो कह रहा हूं, उसे लिखो। कुलदीप जब ...है तो उसे वैसा ही बताओ।” गिल साहब का आदेश था। लेकिन मैंने उनका आदेश मानने से इनकार कर दिया। यह जानते हुए भी कि पत्रकारों की कुटाई कराने का उनका इतिहास रहा है। तब अपनी पचास किलो की काया में पता नहीं कहां से इतना साहस आ गया। बाद में उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “बहुत जिद्दी हो।”
फिर उन्होंने लंबा इंटरव्यू दिया। उन्होंने मानवाधिकारवादियों को उल्टा लटकाने, देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने और देश की अहम जानकारियों को विदेशों और आतंकियों से बांटने तक के आरोप लगाए। उन्होंने यह कहने से गुरेज नहीं किया कि पुलिस आतंकवादियों के खिलाफ गोली का इस्तेमाल नहीं करेगी तो किसके खिलाफ करेगी। गिल साहब का तर्क था कि आतंकवादियों के कोई मानवाधिकार नहीं होते, क्योंकि वे पहले ही मासूम लोगों के मानवाधिकार पर हमले करते रहते हैं। इसलिए उनका एक ही जवाब गोली हो सकता है। उन्होंने मोमबत्ती जलाने वाले मानवाधिकारवादियों की लानत-मलामत भी की थी।
जाहिर है कि वह इंटरव्यू चर्चित होना था और हुआ भी। मैंने अपने इंटरव्यू में कुलदीप नैय्यर के लिए गिल साहब द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द को नहीं रखा। हालांकि उन्होंने इंटरव्यू के आखिर में ताकीद की थी कि इस विशेषण का इस्तेमाल जरूर किया जाए। बाद में अरसे तक मैं सोचता रहा कि आखिर कहां से मेरे अंदर इतना साहस आ गया था कि मैं गिल साहब की जिद को नकारता रहा।
डर था कि इंटरव्यू छपने के बाद हमारे दफ्तर में उनका फोन जरूर आएगा। उस समय तक हमारा वह प्रकाशन चंडीगढ़ और हरियाणा में अपनी धमकदार मौजूदगी जमा चुका था। लेकिन गिल साहब का फोन नहीं आया। उन्होंने हड़काया भी नहीं। तब मुझे अहसास हुआ कि तर्क की कसौटी पर अगर आप सही हों तो बड़ा से बड़ा, ताकतवर से ताकतवर इंसान भी आपकी भावनाओं की कद्र जरूर करता है। तीखे तेवर वाले गिल साहब ने मेरे साथ तो कम से कम ऐसा ही व्यवहार किया था।