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दिशाहीन महानायक

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उमेश चतुर्वेदी

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में एक बार फिर चारा घोटाले में रांची की सीबीआई अदालत ने दोषी ठहरा दिया है। 3 जनवरी को सजा का ऐलान होने के पहले सोशल मीडिया के हरावल दस्ते अपनी-अपनी विचारधाराओं के मुताबिक मोर्चे संभाल लिए हैं।
 
 
लालू को दोषी ठहराने के लिए केंद्र की मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है। इसे राजनीतिक दुरभिसंधि बताने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। पिछड़ों का मसीहा उन लोगों की नजर में बेहद मासूम और चक्रव्यूह में फंसा नजर आने लगा है।
 
स्वभाव से हंसोड़ बिहार के इस नेता की आवाज नब्बे के दशक के आखिर तक पूरे देश में सुनी जाती थी। लालू का भदेस हंसोड़पन सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति को मुकम्मल चेहरा नजर आता था। सांप्रदायिकता विरोध में उभरा यह चेहरा बिहार की सत्ता पर पंद्रह साल तक काबिज रहा, कभी खुद तो बाद के दौर में पत्नी के नाम के सहारे। 
 
लालू राज में बिहार में कुशासन, अपहरण, बदहाली के जितने कीर्तिमान बने, वैसे दूसरे राज्यों में शायद ही बने। बिहार की ही एक पार्टी के महासचिव बताते हैं कि जब लालू के हाथ 1999 में बिहार की कमान आई तो उन्होंने अपने पास बैठे एक नेता का नाम लेकर खांटी भोजपुरी में कहा था, अब लूटना-कमाना है। हो सकता है कि उन्होंने यह बात तब मजाक में कही हो, लेकिन बाद में बिहार में जो हुआ, इस सोच का ही विस्तार था..
 
 
बिहार में साल-दर-साल जातीय नरसंहार होते रहे, अपहरण संस्थागत अपराध बनता गया, पुलिस वालों की बोलती बंद होती रही और गुंडे शासन चलाते रहे, लेकिन लालू सांप्रदायिकता विरोधी खेमे के बड़े चेहरे रहे...इतने बड़े चेहरे कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके ही चक्कर में बिहार में खत्म हो गई...जबकि एक दौर में वह मध्य बिहार की ताकतवर पार्टी थी, लालू के राष्ट्रीय जनता दल में उसके विधायक टूटकर शामिल होते रहे, लेकिन लालू भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की आंखों के तारे बने रहे...सिर्फ इसलिए कि अपने हंसोड़ अंदाज में उन्होंने तब भारतीय जनता पार्टी को खूब छकाया..उस दौर में शरद यादव और नीतीश कुमार उनके विरोधी बन गए..अब शरद उनके साथ हैं...
 
 
यह भी सच है कि लालू को इतिहास ने बड़ा मौका दिया। पिछली सदी के नब्बे के दशक में उनकी एक आवाज पर जैसे बिहार उमड़ आता था...बाकी नेता रैली करते थे, लालू की रैलियों में उमड़ी भीड़ ने उसे रैला बना दिया...यह सब इसलिए होता था, क्योंकि उन्होंने लोहिया के नारे पिछड़े पाएं सौ में साठ के साथ अपनी जमीनी राजनीति शुरू की थी..जमीन से वे इतने जुड़े थे कि मुख्यमंत्री बनने से पहले पटना के एक सर्वेंट क्वार्टर में सपरिवार रहते थे.. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी सहजता नहीं छोड़ी थी... 
 
मुख्यमंत्री बनने के तत्काल बाद की लालू की सहजता का एक उदाहरण उनकी ही सरकार में कृषि मंत्री रहे रामजीवन सिंह ने 2009 मुंबई से दिल्ली लौटते वक्त इन पंक्तियों के लेखक को अगस्त क्रांति एक्सप्रेस में दिया था..शायद 1991 की बात है...तब पटना ज़िले के तिस्खोरा में 15 लोगों की हत्या कर दी गई थी..इस नरसंहार के पीड़ितों से मिलने के लिए लालू ने रामजीवन सिंह के साथ दौरा किया था...
 
रामजीवन सिंह के मुताबिक पुलिस छावनी में तब्दील हो चुके गांव की गलियों में शांति तो थी, लेकिन तनाव भी नजर आ रहा था...उसी बीच किसी ने लालू पर थूकने की कोशिश की...किसी ने धूल भी फेंक दिया...जैसा कि भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था है...लालू पर ऐसे हमले के बाद पुलिस के अफसर धूल फेंकने और थूकने वाले की तरफ लाठी लेकर दौड़े....लेकिन लालू ने डांटकर उन्हें रोक दिया था..तब उन्होंने पुलिस अफसरों से कहा था, ‘तुम्हारे घर ऐसी लाशें बिछेंगी तो तुम क्या करोगे?’
 
 
लेकिन बाद में लालू ऐसे नहीं रहे...उनके पीछे उमड़ती भीड़ उनकी बड़ी ताकत थी। इसी ताकत के दम पर वे विरोधियों पर भारी पड़ते रहे...इतिहास ने उन्हें बिहार को उस स्वर्णिम युग में ले जाने का फिर से मौका दिया था, जिसे मौर्य और गुप्त काल में स्वर्ण युग कहा जाता था। लालू चाहते तो बिहार में बदलाव लाकर देश और दुनिया के सामने नजीर पेश कर सकते थे...तब उन्हें कोई रोक भी नहीं सकता था। लेकिन इसके लिए उन्हें अपने नेता जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर की तरह निरभिमानी, सहज और ईमानदार होना होता..लेकिन बाद में इस महानायक का लक्ष्य सीमित होता गया...
 
 
लालू ने इतिहास तो बदला, लेकिन वह बिहार के लिए नए तरह के जातीय उन्माद और वैमनस्य का इतिहास बना.. 2000 की बात है। शिवहर के सांसद रघुनाथ झा की अगुआई में लालू के राष्ट्रीय जनता दल के कुछ सांसदों ने बगावत कर दी थी, जिसमें कुमकुम राय, भिक्षु भदंत धर्मवीर्यो आदि शामिल थे...रोजाना शाम को रघुनाथ झा के घर बगावती गुट की बैठक और प्रेस ब्रीफिंग होती थी...दिल्ली के तीनमूर्ति लेन के उस घर में एक शाम इन पंक्तियों के लेखक ने रघुनाथ झा से कान में धीरे से पूछा था, ‘लालू यादव को मुख्यमंत्री बनवाने में अपरोक्ष सहयोग देने के लिए कभी आपको अफसोस होता है?’
 
 
‘बिल्कुल, कई बार तो नींद टूट जाती है...सोचता हूं कि मैंने बड़ा अपराध किया है।’ यह बात और है कि बाद में रघुनाथ झा समता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल में आते-जाते रहे। आज भी वे राष्ट्रीय जनता दल में ही हैं...यहां यह बता देना प्रासंगिक है कि 1990 में जनता दल की जीत के बाद देवीलाल खेमे से मुख्यमंत्री पद के दावेदार लालू यादव थे, जिन्हें नीतीश, शरद, मोहन प्रकाश और रंजन यादव का समर्थन था। 
 
दूसरी तरफ विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरफ से इस पद के दावेदार रामसुंदर दास थे। उस समय पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर वीपी सिंह से रूष्ट चल रहे थे। तब लग रहा था कि सीधे मुकाबले में रामसुंदर दास जीत जाएंगे और इस बहाने बिहार पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की पकड़ मजबूत हो जाएगी, लिहाजा उन्होंने मुकाबले में तीसरा कोण रघुनाथ झा को उतारकर बना दिया था...तीनों ही पक्ष के लिए खुलकर कोई नहीं बोल रहा था, लेकिन पूरे बिहार को पता था कि कौन किसके इशारे पर मैदान में है...इस त्रिकोणीय मुकाबले में रामसुंदर दास की हार हुई, रघुनाथ झा को कुछ ही विधायकों का समर्थन मिला। लालू यादव मुख्यमंत्री बन गए थे..

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