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आज मीडिया ही मीडिया का दुश्मन क्यों है?

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शरद सिंगी

प्रजातंत्र के तीन स्तम्भ तो हम सब जानते  हैं।  विधायिका (संसद और विधानसभाएं), कार्य पालिका (मंत्री और संत्री ) तथा न्यायपालिका। बाद में मीडिया को उसकी  शक्ति और समाज में गहराई तक प्रहार करने की क्षमता के कारण  प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ  के रूप में मान्यता मिली। मीडिया के पास प्रजातंत्र  के अन्य स्तम्भों की भांति संविधान प्रदत्त कोई अधिकार नहीं है सिवाय अभिव्यक्ति की आजादी के। 
भारतीय मीडिया ने इस  आजादी का भरपूर उपयोग किया। वह  वैचारिक और सामाजिक क्रांतियों का माध्यम  बना जिनसे प्रजातंत्र  और समाज मजबूत हुए और विकसित भी। लेखनी की  शक्ति  से अनेक सरकारें बनी और  बिगड़ीं, किन्तु धीरे-धीरे सफलताओं का नशा मीडिया के सर चढ़कर बोलने लगा और अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग, दुरुपयोग की सीमा से  भी परे चला गया। हमारे पाठक,  लेखक की इस  बात से सहमत होंगे कि मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोने की कगार पर खड़ा है।  देखा यह जा रहा है कि दूसरों के  भंडाफोड़ करने वालों के स्वयं के भंडे फूट रहे हैं। 
 
भ्रष्ट नेताओं और  मुजरिमों को कठघरे में खड़ा करने वाला मीडिया आज स्वयं समाज एवं जनता  के समक्ष कठघरे में खड़ा है। आज  वह समाज में अपनी निभाई उस भूमिका को भूल चूका है जिस के लिए वह जाना जाता है।  व्यावसायिकता ने  पत्रकारिता के धर्म को  बंदीगृह में डाल दिया है। ऐसा नहीं है कि व्यावसायिकता पहले नहीं थी।  स्वतंत्रता के बाद से अमूमन हर अखबार किसी  न किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति विशेष के साथ जुड़ा रहा क्योंकि थोड़ी  व्यावसायिक मजबूरियां तो थीं ही किन्तु कुल मिलाकर बड़े अख़बारों ने अपनी पवित्रता को बनाए रखा। अनेक ऐसे  निर्भीक पत्रकार  रहे जिन्होंने निष्पक्ष होकर अपनी बात रखी और लगभग हर अख़बार  में  उन्हें सम्मान के साथ जगह मिली। 
 
अख़बारों पर कई बार एक पक्षीय होने के आरोप भी लगे बावजूद इसके  अख़बारों ने  अपनी  मर्यादाओं  को बनाए रखा।  आज लगता है सारी मर्यादाएं टूट चुकी हैं। पहले  ऐसा कभी नहीं हुआ कि  मीडिया के बीच आपस में ही घमासान हो गया हो और  वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतर  आए हों। कितना हास्यास्पद है कि आज मीडिया स्वयं एक खबर बन गया है।  एक-दूसरे से बेहतर दिखाना और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना आज कोई शर्म का कारण नहीं है।  हर चैनल अपने आप को श्रेष्ठ और संयमित बताकर अन्य चैनलों के सर पर मर्यादाओं के उल्लंघन का दोष मढ़ रहे हैं।  आम जनता भौंचक होकर इन बिल्लियों  की आपसी लड़ाई को देख रही है।   
 
आज मीडिया  पर बिक जाने  के आरोप हैं। समूल्य खबर दिखाने एवं  छापने के आरोप हैं। चुनिंदा ख़बरों को छुपाने के  आरोप हैं।  मंत्रिमंडल के गठन को प्रभावित करने के आरोप हैं। दलगत पक्षपात  के आरोप हैं।  ये  वही सब आरोप हैं जो एक भ्रष्ट दलाल  पर होते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि मीडिया मुंहजोर  और बेशरम हो चुका है। अपराधी को बेगुनाह और बेगुनाह को अपराधी बनाने में लगा हुआ है।
 
हरित क्रांति व भूदान जैसे आंदोलनों में तथा  समाज की विकृतियों के विरुद्ध सामाजिक क्रांति में सहयोग देकर स्वर्णिम इतिहास बनाने वाले  मीडिया का स्वामित्व आज कई नामी उद्योगपतियों  के हाथों में आ चुका है विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया का।  निश्चित ही उनसे पवित्रता  की उम्मीद तो नहीं है क्योंकि उनका लक्ष्य तो अपने निवेशकों के हितों को देखना है।  ऐसे में आम आदमी के पास निष्पक्ष समाचारों के लिए कोई स्रोत नहीं बचा है। समाज का दुर्भाग्य है कि पवित्र समझे जाने वाले व्यवसाय फिर चाहे पत्रकारिता हों, शिक्षण केंद्र हों अथवा स्वास्थ्य सेवाएं, आज सब शुद्ध व्यावसायिकता का केंद्र बन चुके हैं। 
 
प्रजातंत्र में भ्रष्ट सरकार की मनमानी पांच वर्षों तक तो चल सकती है किन्तु पांच वर्ष पूरे होने के पश्चात तो उन्हें पुनः जनता के बीच में  जाना होता है। जनता उन्हें रास्ता दिखा देती है। इस तरह विधायिका और कार्यपालिका पर तो जनता का सीधे नियंत्रण होता है किन्तु मीडिया पर जनता का कोई नियंत्रण नहीं होता। यथार्थ यह है कि मीडिया एक जिन्न का रूप धारण कर चुका है और उसको रास्ते पर लाने और उसे सीमा लांघने से रोकने के उपायों पर चर्चा जरूरी है। 
 
सरकार द्वारा गठित  संचार माध्यमों पर अंकुश लगाने वाली जो समिति है उसके दांत जब तक पैने नहीं होंगे तब तक व्यवसायीकरण की अंधी दौड़ नहीं रुकेगी। साथ ही यह भी देखना होगा कि सरकार का नियंत्रण भी आवश्यकता से अधिक न हो। यह आलेख समय के उस बिंदु पर लिखा जा रहा है जब मीडिया जगत एक दिशाहीन नकारात्मक मार्ग की ओर अग्रसर है। प्रजातंत्र का चौथा स्तम्भ ढहता दिख रहा है, किन्तु अभी बहुत  देर नहीं हुई है।  
 
यदि अभी उपचारीय कदम उठा लिए जाएं तो दुराग्रह के दानव से बचा जा सकेगा। यह भी  उल्लेखनीय है कि मीडिया संसार, श्रेष्ठ और प्रखर मस्तिष्कों का संसार है और वे स्वयं योग्य हैं अपनी वास्तविक स्थिति का आकलन करने के लिए। वे यह भी जानते हैं कि प्रजातंत्र में संतुलन  के लिए चौथे स्तम्भ की सकारात्मक भूमिका नितांत आवश्यक है।  

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