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ग्वादर पर गदर, मोदी का दोहरे मोर्चे पर लड़ाई का इरादा

हमें फॉलो करें ग्वादर पर गदर, मोदी का दोहरे मोर्चे पर लड़ाई का इरादा
, सोमवार, 22 अगस्त 2016 (14:24 IST)
लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बलूचिस्तान, गिलगित, बाल्टिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत उन हिस्सों का जिक्र किया और कहा कि पाक सेना, चीनी सेना की मदद से देश के प्रत्येक प्रांत में पनपने वाले विद्रोह को कुचलना चाहता है।
मोदी ने अपनी विदेश नीति में एक अहम बदलाव करते हुए चीन और पाकिस्तान को इन इलाकों के लोगों की स्वतंत्रता के बारे में बताया और कहा कि पाकिस्तान द्वारा इन्हें 'अपना आंतरिक मामले बताने के बावजूद' ये हिस्से पाकिस्तान के साथ रहना नहीं चाहते हैं। दो वर्ष पहले मोदी ने जहां चीन और पाकिस्तान के साथ समस्याएं सुलझाने के लिए बातचीत का रुख अपनाया था लेकिन दो वर्ष वाद वे भारत के हितों को सुरक्षित बनाने के लिए इन दोनों देशों से दो टूक बात करना चाहते हैं।  
 
बलूचिस्तान में पाक सेना-पुलिस के स्थानीय लोगों पर अत्याचार, भारत की एनएसजी (न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप) सदस्यता को लेकर दोनों देशों का विरोध और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (चाइना-पाकिस्तान इकॉनामिक कॉरिडोर) को लेकर दोनों पड़ोसी देशों को लेकर भारत सरकार की नीति में यह महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत है। संभवत: मोदी ने यह महसूस कर लिया है कि द्विपक्षीय मामलों में एक हाथ से ताली नहीं बज सकती है और पाकिस्तान, चीन के साथ विभिन्न मौकों पर समस्याओं का कोई हल निकालने की पहल की, लेकिन चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा और मोदी ने अफगानिस्तान से लौटते समय पाकिस्तान में रुककर अपनी सदाशयता दर्शाई थी। लेकिन इनका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला।  
 
चीन के लिए महत्वपूर्ण है ग्वादर : लेकिन, अब उन्होंने इन देशों का खुले आम विरोध करना शुरू कर दिया है क्योंकि चीन के रवैए को लेकर गिलगित-बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान के मामले बहुत अहम हो गए हैं। चीन-पाक का आर्थिक गलियारा, चीनी सेना को बलूचिस्तान तक घुसपैठ करने की छूट देगा। उल्लेखनीय है कि यह गलियारा जहां गिलगित-बाल्टिस्तान से गुजरता हुआ बलूचिस्तान में बने ग्वादर सैनिक अड्‍डे तक चीन के सैनिक आधार और हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की बढ़ती नौसैनिक ताकत को मजबूत करेगा वहीं दक्षिण चीन महासागर पर चीन के अवैध कब्जे ने भारत की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। पिछले कई वर्षों से चीन ने एनएसजी की सदस्यता, दक्षिण चीन सागर से लेकर हिंद महासागर में चीनी सेना के दखल को बढ़ावा दिया है। चीन कहता है कि व्यापार में ट्रेड डिफीसिट का मामला हो या पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, ये चीन की नजर में 'छोटे-मोटे मामले' हैं।
 
कई सवालों पर जानकारों का कहना है कि भारत की चीन-पाकिस्तान के साथ खुली दुश्मनी सैन्य टकराव का कारण बन जाने की चेतावनी है, वहीं कुछ चीन-पाकिस्तान समर्थक देशों का मानना है कि ये दो अलग-अलग मुद्दे हैं। लेकिन इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि बलूचिस्तान के ग्वादर पोर्ट को पूरी तरह से चीन के हवाले कर दिया है, जो इसे अपनी नौसैनिक ताकत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर सकता है। चीन के लिए ग्वादर का सामरिक महत्व भी है क्योंकि यह बंदरगाह नगर खाड़ी देशों के करीब है। चीन का 60 फीसदी कच्चा तेल खाड़ी देशों से आता है। अरब सागर में स्थित यह पोर्ट जल्द ही व्यापार, वाणिज्य का केन्द्र बन सकता है क्योंकि चीन ने इस बंदरगाह के विकासपर 24 करोड़ 80 लाख डॉलर का 80 फीसदी हिस्सा वहन किया है। 
 
चीन दुनिया में अपनी ताकत को तेजी से बढ़ाने के लिए एशियाई देशों, विशेष रूप से भारत के पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और म्यांमार में बंदरगाहों और सैन्य अड्‍डों के विस्तार के लिए भारी वित्तीय मदद कर रहा है। चीन-पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के समझौते से करीब दस वर्ष पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और मोदी ने इसके सामरिक महत्व और संभावनाओं का सही-सही आकलन कर लिया था।   
 पाकिस्तान से सुदूर दक्षिण-पश्चिमी भाग में बलूचिस्तान प्रांत में अरब सागर के किनारे पर स्थित ग्वादर एक बंदरगाह शहर है। यह ग्वादर जिले का केंद्र है और सन 2011 में इसे बलूचिस्तान की शीतकालीन राजधानी घोषित कर दिया गया था। ग्वादर शहर एक 60 किमी चौड़ी तटवर्ती पट्टी पर स्थित है, जिसे अक्सर मकरान कहा जाता है। ईरान तथा फारस की खाड़ी के देशों के बहुत पास होने के कारण इस शहर का बहुत सैन्य और राजनीतिक महत्व है। पाकिस्तान प्रयास कर रहा है कि इस बंदरगाह के जरिए उसका चीन, अफगानिस्तान व मध्य एशिया के देशों तक भी आयात-निर्यात हो।
 
अगले पन्ने पर ग्वादर का इतिहास....

इतिहास में ग्वादर : तंत्रता से पहले ही ब्रिटेन की ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेवीगेशन कंपनी के जहाजों ने ग्वादर और पसनी की बंदरगाहों को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। 1863 में ग्वादर में पहला तार-घर (टेलीग्राम ऑफिस) बना और पसनी में भी एक तार-घर बनाया गया। 1894 को ग्वादर में पहला डाकखाना खुला जबकि 1903 को पसनी और 1904 को ओरमाडा में डाकखाने बनाए गए। 1947 में जब भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन हुआ तो भारत और पाकिस्तान बने लेकिन ग्वादर और इस के आसपास का इलाका कलात राज्य में शामिल था।
 
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आज का ग्वादर : आज का ग्वादर का एक छोटा-सा शहर है जिसकी आबादी सरकारी गणना के अनुसार एक लाख के आसपास है। इस शहर को समुद्र ने तीन तरफ से अपने घेरे में लिया हुआ है और हर वक्त समुद्री हवाएं चलती रहती हैं जिसकी वजह से यह एक खूबसूरत नजारा पेश करता है। वैसे ग्वादर का मतलब 'हवा का दरवाजा' है। 'ग्वा' का अर्थ 'हवा' और 'दर' का मतलब 'दरवाजा' है। गहरे समुद्र के अलावा शहर के इर्द-गिर्द मिट्टी की बुलंद ऊंची चट्टानें मौजूद हैं। इस शहर के वासियों की ज्यादातर गुजर बसर मछली के शिकार से होती है और अन्य जरूरतें पड़ोसी देशों ईरान, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान से पूरी होती हैं।
 
ग्वादर शहर के भविष्य में एक अंतरराष्ट्रीय शहर बनने की संभावनाएं हैं और ना सिर्फ बलूचिस्तान बल्कि पूरे पाकिस्तान के आर्थिक विकास के लिहाज यह एक अहम शहर बन जाएगा। यहां का  बंदरगाह पाकिस्तान के अलावा चीन, अफगानिस्तान, मध्य एशिया के देशों जैसे ताजिकिस्तान, कजाकस्तान, अजरबैजान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और रूस के इस्तेमाल में आ सकता है जिससे पाकिस्तान को बहुत अधिक किराया मिलेगा। 
 
आधुनिक बंदरगाह : ग्वादर मकरान कोसल हाई-वे के जरिए कराची और बलूचिस्तान के अन्य तटीय शहरों से जुड़ा हुआ है। फील्ड मार्शल अय्यूब खान के दौर में ही ग्वादर में प्रसिद्ध बंदरगाह बनाने का मनसूबा बन गया था मगर पैसे की कमी और अन्य समस्याओं के चलते इस योजना पर काम शुरू ना हो सका। लेकिन जब अमेरिका ने तालिबानी हुकूमत को समाप्त करने के लिए अफगानिस्तान पर हमला किया तो इसके चार माह बाद पाकिस्तान और चीन ने मिल कर ग्वादर में इक्कीसवीं सदी की जरूरतों के अनुसार बंदरगाह बनाना शुरू कर दिया। चीनियों के इस शहर में आने के साथ ही शहर का महत्व कई गुना बढ़ गया। 
 
ग्वादर बंदरगाह फारस की खाड़ी, अरब सागर, हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और इसी समुद्री पट्टी में स्थित तमाम बंदरगाहों से ज्यादा गहरा बंदरगाह होगा और इस में बड़े-बड़े मालवाही जहाज आसानी से लंगर गिरा सकेंगे जिन में ढाई लाख टन वजनी जहाज तक शामिल हैं। इस बंदरगाह के जरिए ना सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि अफगानिस्तान, चीन और मध्य एशिया के तमाम देशों से कारोबार होगा। बंदरगाह की गहराई 14.5 मीटर होगी। यह एक बड़ा और सुरक्षित बंदरगाह है।
 
'किले' में बदला ग्‍वादर बंदरगाह : 'किले' में बदला ग्‍वादर बंदरगाह : ग्‍वादर सिटी को चीन-पाकिस्‍तान इकोनॉमिक कॉरिडोर का दक्षिणी हब माना जाता है। भारी पुलिस बल की मौजूदगी, सघन चौकसी, नए चेक प्‍वाइंट और सेना के सुदृढ़ीकरण ने पाकिस्‍तान के ग्‍वादर बंदरगाह को 'किले' में तब्‍दील कर दिया है। चीन से आने वाले अरबों डॉलर के निवेश को बनाए रखने के लिए पाकिस्‍तान में शक्तिशाली सेना ने यह बदलाव किया है।
 
46 बिलियन डॉलर की राशि जुटाना चुनौती : सड़क कॉरिडोर, रेलवे और उत्‍तर पूर्व चीन से पाकिस्‍तान के अरब सागर तक पाइप लाइन के लिए 46 बिलियन डॉलर की राशि जुटाना उस देश के लिए बड़ी चुनौती है जहां आतंकी और इस्‍लामी कट्टरपंथी लगातार खतरा बने हुए हैं। सशस्‍त्र बलों और आंतरिक मंत्रालय ने ग्‍वादर के लिए सैकड़ों अतिरिक्‍त सैनिक और पुलिस के जवान तैनात किए हैं। ग्‍वादर में क्षेत्रीय पुलिस अधिकारी जफर खान ने बताया, 'जल्‍द ही हम चीनियों की अलग से सुरक्षा के लिए 700 से 800 पुलिस के जवानों की व्‍यवस्‍था करेंगे। बाद में यहां पर नई सुरक्षा डिवीजन की तैनाती की जाएगी।
 
विदेशी वर्करों-अधिकारियों की सुरक्षा पर खास ध्‍यान : करीब एक लाख लोगों के इस कस्‍बे के एक वरिष्‍ठ सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि चीनी नागरिकों की सुरक्षा के लिए अस्‍थायी उपाय के तहत 400 से 500 अतिरिक्‍त सैनिकों की तैनाती की जा रही है। हाल की ग्‍वादर यात्रा के दौरान चीनी आगंतुकों की लेकर आने वाली एसयूवी को पुलिस की दो कार और सेना का एक वाहन अपने घेरे में लिए हुए थे। विदेशी कामगारों और अधिकारियों को ग्‍वादर में सुरक्षा प्रदान करने के लिए इस कवायद को समझा जा सकता है। गौरतलब है कि पिछले 15 सालों में पाकिस्‍तान में चीन के निवेश में खासा इजाफा हुआ है।
 
ग्‍वादर के जवाब में भारत ने खोला चाबहार का पत्ता...

चाबहार से किनारे लग जाएगा पाकिस्तान? : भारत जब भी किसी पड़ोसी देश या क्षेत्रीय ताकत से दोस्तना संबंध बनाता है या रणनीतिक सहयोग करता है, तो यह पाकिस्तान को प्रभावित करता है। भारत और पाकिस्तान इस क्षेत्र में मजबूत प्रतिद्वंद्वी हैं। भारत और ईरान के लिए चाबहार परियोजना का बहुत महत्व है। उधर पाकिस्तान को लगता है कि अगर यह परियोजना सफल हुई तो वह अलग-थलग पड़ सकता है।
 
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इसकी कई वजहें हैं। पहली वजह यह है कि इस परियोजना के पूरा होने के बाद इस ईरानी बंदरगाह के जरिए भारत को अफगानिस्तान तक सामान पहुंचाने का सीधा रास्ता मिलेगा। अब तक भारतीय चीजें पाकिस्तान के जरिए अफगानिस्तान तक पहुंचती हैं। इसी परियोजना के जरिए भारत सेंट्रल एशिया और पूर्वी यूरोप तक अपना सामान भेज सकता है।
 
ऐसे में यह पाकिस्तान के लिए बहुत बड़ा रणनीतिक नुकसान साबित हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध हटने के बाद बन रहे नए ईरान से हुआ यह समझौता एक बुनियाद है। पाकिस्तान के लिए खतरा यह है कि व्यापार में भारत-ईरान-अफगानिस्तान का सहयोग, रणनीति और अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ेगा और इसके पाकिस्तान के लिए नकारात्मक नतीजे निकलेंगे।
 
जैसे कि आतंकवाद के मुद्दे पर भारत-ईरान मानते रहे हैं कि उस इलाक़े में जो कुछ भी हो रहा है, उसमें आईसआईएस की भूमिका रहती है। ऐसे में भारत और उसके नए महत्वपूर्ण सहयोगी साथ मिलकर इन मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठा सकते हैं। तीसरी वजह यह है कि भारत जब ऐसी चाल चलता है तो पाकिस्तान, ओआईसी या फिर अरब जगत के जरिए उसे अलग-थलग करने की कोशिश करता है। 
 
ईरान जैसी सांस्कृतिक, राजनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक शक्ति के साथ भारत के अच्छे संबंध पाकिस्तान को कैसे भा सकते हैं ? पाकिस्तान इस्लामिक जगत में खुद को बड़ी ताकत के रूप में पेश करना चाहता है। परमाणु शक्ति बनने के बाद वह इस मकसद में कुछ हद तक कामयाब भी रहा है। ईरान उस लिहाज से उसका प्रतिद्वंद्वी भी है। अब भारत यदि पूरी तरह ईरान के साथ हो ले तो स्वाभाविक है कि यह पाकिस्तान के लिए बुरी खबर सिद्ध होगी।
 
चाबहार परियोजना भारत के लिए एक रणनीतिक कारक है। चीन-पाकिस्तान के आर्थिक संबंधों को देखते हुए भारत-ईरान की चाहबार परियोजना को पाकिस्तान बड़े रणनीतिक कदम की तरह देखेगा और कभी पसंद नहीं करेगा। ग्वादर परियोजना में जैसी चीन की भूमिका है, वैसी ही भूमिका आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भारत की भी है। भारत ने चाबहार में करीब 10 करोड़ डॉलर का निवेश किया है और मोदी जी ने 50 करोड़ डॉलर के और निवेश का वादा किया है। पाकिस्तान को लग रहा था कि उसने ग्वादर परियोजना से रणनीतिक बढ़त हासिल कर ली है, लेकिन चाबहर पर हुए समझौते से पाकिस्तान को झटका लगा है।
 
अगले पन्ने पर बलूचिस्तान के खनिजों के खजाने की पाकिस्तानी और चीनी लूट...
 

बलूचिस्तान में खनिजों का खजाना, फिर भी है बदहाल : बलूचिस्तान में जमीन के ऊपर बलूच, हजारा, सिंधी, पंजाबी से लेकर उज्बेक और तुर्कमेनियाई लोगों की दुनिया बसी है, लेकिन नीचे कोयला और खनिजों का खजाना भरा है। इसके बावजूद इसके करीब सवा करोड़ की आबादी वाला पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा बदहाली, गरीबी और सरकार की अनदेखी का शिकार है। लंबे समय से यहां के लोग अपनी ज़मीन पर अपने शासन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
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स्थानीय लोगों का कहना है कि जब साल 1840 में यहां अंग्रेज आए थे तभी से प्रतिरोध है, संघर्ष रुक रुककर के चलता रहा है। पाकिस्तान बनने के बाद पांचवीं बार सैन्य अभियान चल रहा है। यह सिलसिला इसलिए चल रहा है क्योंकि ना तो ब्रितानी जमाने में और ना ही पाकिस्तान के शासन में बलूच लोगों के साथ कोई समझौता हुआ। ये लोग अभी तक सरकारी अन्याय के खिलाफ लड़ रहे हैं। 
 
विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान बनने पर काफी ना नुकुर के बाद बलूचिस्तान की सरहदें तो पाकिस्तान में शामिल हो गईं लेकिन लोगों की शिकायतें दूर नहीं हुईं। हालांकि इलाके के नेता पाकिस्तानी शासन तंत्र में शामिल हुए, चुनाव लड़े, उसके संविधान को स्वीकारा, यहां तक कि बलूचिस्तान में विरोध की सबसे बड़ी आवाज़ रहे बलूच नेता नवाब अकबर खान बुगती भी सूबे के मुख्यमंत्री और गवर्नर रहे। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि पाकिस्तान, बलूचिस्तान को अपना अटूट हिस्सा मानता है। 
 
वर्ष 1948, 1958, 1962, 1973, और 2002 में यहां पाकिस्तानी सेना की बड़ी कार्रवाइयां हुईं। इनमें भारी हथियारों का इस्तेमाल और हवाई हमले भी किए गए। 2006 में बलूच नेता नवाब अकबर बुगती को सैन्य प्रमुख से राष्ट्रपति बने परवेज मुशर्रफ ने कत्ल कर दिया। उस वक्त इसे उचित ठहराया गया था। बलूचिस्तान से हजारों की तादाद में लोग लापता हैं और सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं कि ये लोग कहां हैं? गायब हुए लोगों के परिजन सरकार पर ही उन्हें अगवा करने का आरोप लगाते हैं, सड़कों पर उतर कर विरोध करते हैं। पाकिस्तान की सरकार स्थानीय लोगों को ही यहां गड़बड़ी फैलाने का जिम्मेदार मानती है।
 
जानकारों का कहना है कि बलूच विद्रोहियों ने कभी सरकार के खिलाफ जंग नहीं छेड़ी। क्वेटा के पत्रकार सिद्दीक बलोच कहते हैं कि बलूच नेताओं ने पाकिस्तान के साथ कभी जंग नहीं की, मुझे ऐसा कोई वाकया याद नहीं है। ये एकतरफा कार्रवाई है। नवाब बुगती घर में बैठे थे उन्हें मार दिया गया। बीते सालों में पाकिस्तान ने यहां आर्थिक गतिविधियों को तेज करने की कोशिश की है।
 
चीन और ईरान के साथ बड़े करार हुए हैं जिनमें ग्वादर के बंदरगाह पर बड़ी सुविधाएं लाने के साथ ही चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर भी बनाया जाना है। इसके अलावा ईरान से बड़ी गैस पाइपलाइन की भी योजना है लेकिन स्थानीय लोग इससे भी नाखुश हैं क्योंकि वे मानते हैं उनकी शिकायतों पर काम होने की बजाय उनके अधिकार छीने जा रहे हैं। 
 
बलूचिस्तान में इस समय नवाज शरीफ की पार्टी सत्ता में है लेकिन 'कानून व्यवस्था' भी दूसरों के पास है। झाडू़ लगाने का काम भी दूसरे लोग कर रहे हैं। सारा का सारा काम संघीय सरकार के पास है और उसमें बलूच लोगों की कोई नुमाइंदगी नहीं। सरकारी नौकरियों में तो आप बलूच लोगों को ढूंढते रह जाएंगे।
 
 
पाकिस्तान द्वारा भारत पर आरोप और शियाओं का कत्लेआम, अगले पन्ने पर....
 

सरकारी तंत्र के साथ ही देश के बहुसंख्यक पंजाबी लोगों के साथ भी उनका रिश्ता नहीं बन सका। बलूचिस्तान में भ्रष्टाचार, जातीय हिंसा और अलगावाद को लेकर संघर्ष है लेकिन पाकिस्तान इसे भारत की कारस्तानी बताता है। भारत की प्रमुख खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) पर बलूचिस्तान की अलगाववादी ताकतों को समर्थन और पैसा देने की बात कही जाती है।
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भारत अब तक इससे इनकार करता आया है, लेकिन 15 अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में बलूचिस्तान का जिक्र होने के बाद नया मोड़ आ गया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्हें पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर और बलूचिस्तान के लोगों ने धन्यवाद दिया है। जाहिर है कि इस बयान के निहितार्थ निकाले जाएंगे। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने भी एक बार कहा था कि देश की रक्षा नीति में सुरक्षात्मक हमला भी एक तरीका है और अगर दोबारा मुंबई जैसा हमला हुआ तो पाकिस्तान बलूचिस्तान खो देगा।
 
नवाब अकबर बुगती के पोते ब्राहमदाग बुगती पिछले कई सालों से स्वनिर्वासित हो कर स्विजरलैंड में रह रहे है। मौजूदा वक्त में उन्हें बलोच विरोध की सबसे बड़ी आवाज माना जाता है। बुगती ने एक वीडियो संदेश जारी कर भारतीय प्रधानमंत्री का आभार जताया है और आगे भी समर्थन की मांग की है। उधर पाकिस्तान का आरोप है कि भारत प्रशासित कश्मीर से ध्यान भटकाने के लिए भारत बलूचिस्तान का नाम ले रहा है।
 
बलूचिस्तान हिंसा और आग में जल रहा पाकिस्तान का प्रांत है। पाकिस्तान कहता है कि ये आग भारत ने लगाई है। लेकिन हकीकत क्या है? बलूचिस्तान और क्यों यहां के लोग पाकिस्तान के खिलाफ सालों से युद्ध कर रहे हैं? बलूचिस्तान पाकिस्तान का पश्चिमी प्रांत है जो ईरान और अफगानिस्तान के सटे हुए क्षेत्रों में बंटा हुआ है। यहां के लोगों की प्रमुख भाषा बलोच या बलूची है। 1970 के दशक में बलूच राष्ट्रवाद का उदय हुआ। इसकी कुल आबादी एक करोड़ बीस लाख के आसपास है। इसमें 30 जिले और 65 विधानसभा की सीटें हैं। 
 
1944 में बलूचिस्तान के स्वतंत्रता का विचार जनरल मनी के दिमाग में आया था और 1947 में ब्रिटिश इशारे पर इसे पाकिस्तान में शामिल कर लिया गया। लेकिन पिछले कुछ समय से बलूचिस्तान शियाओं की कत्लगाह बन गई है। सुन्नी मौलाना उन्हें मुसलमान मानते ही नहीं। उनके विरुद्ध फतवों की बौछार होती रहती है। जनवरी 2013 में एक संघर्ष में 120 शियाओं की हत्या कर दी गई थी।
 
बलोच जनता अब आर-पार की लड़ाई लड़ने के लिए कटिबद्ध है। पाकिस्तान में आपातकाल जैसी स्थिति है। इस हालत में यह प्रश्न बड़ी तेजी से पूछा जाने लगा है कि क्या पाकिस्तान में 1971 का पुनरागमन होगा? 1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में जो परिस्थितियां पैदा हुई थीं वह बलूचिस्तान में तो नहीं लौटेंगी? भारत में पनाह लिए बलूच नेता बराज पुर्दली ने दुनिया के सामने पाकिस्तान को बेनकाब किया है। 
 
एक टीवी चैनल से बातचीत में पुर्दली ने कहा कि पाकिस्तान आतंक और जिहादी गुटों की फैक्ट्री बन गया है। पाक बलूचिस्तान का दमन कर रहा है। पुर्दली के मुताबिक पाकिस्तान बलूचिस्तान में 25 हजार से ज्यादा लोगों की हत्या कर चुका है। अब तक यहां 5 बड़े ऑपरेशन हुए हैं। पाक के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए बलूचिस्तान में कई हथियारबंद अलगाववादी दल सक्रिय हैं। इसमें बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी और लश्कर ए बलूचिस्तान प्रमुख हैं।
 
बलूचिस्तान के साथ पाकिस्तान ने कैसा-कैसा अन्याय किया है,  इसकी बहुत लम्बी सूची है। पाकिस्तानी सेना के पूर्व सेनापति जनरल टिक्का खान ने बलोचों की सामूहिक हत्याएं की थीं। इसलिए आज भी वहां की जनता उन्हें 'बलोचों के कसाई' के नाम से याद करती है। बलोचों का अपहरण और हत्या पाकिस्तान में एक सामान्य बात है।
 
भारत जब भी कश्मीर में पाक समर्थित आतंकवाद का मुद्दा उठाता है तो पाक बलूचिस्तान को मुकाबले के लिए खड़ा कर देता है। पुर्दली ने भारत से गुहार लगाई है कि भारत, यूएन में मुद्दा उठाए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान, यूएन में कश्मीर का मुद्दा उठाता है। वह यहां की आजादी को लेकर बात करता है लेकिन वह खुद बलूचिस्तान में क्या कर रहा है, उसकी आवाज किसी ने नहीं उठाई है? 
 
बलूचिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर....
 

बलूचिस्तान एक ऐसा इलाका है जहां कभी पाकिस्तानी सरकार की चली ही नहीं। यह कभी पाक के कब्जे में रहा ही नहीं, यहां पाक सरकार की नहीं बल्कि कबीलाई सरदारों की चलती है। धूल भरी आंधी, बंजर जमीन, रेतीला इलाका और बर्बर लड़ाकू कबीले बलूचिस्तान की असली तस्वीर है। 1947 के बाद से ये कबीले पाक से आजादी के लिए लड़ रहे हैं।
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बलूचिस्तान क्षेत्रफल में पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है। लेकिन उसकी जनसंख्या सबसे कम है। वे वहां की जनजातियों में शुमार किए जाते हैं। उनकी भाषा फारसी है। इसका कारण यह है कि बलोच जनता का बहुत बड़ा भाग ईरानी संस्कृति से जुड़ा हुआ है। बलूचिस्तान के अनेक भाग समय-समय पर ईरान की सीमाओं से भी जुड़े रहे हैं।
 
बलूचिस्तान पर भारत को अपना कोई कदम काफी सोच विचार कर रखना होगा। बलोच, अफगानिस्तान से लेकर ईरान की सीमा तक फैले हुए हैं। भारत पर सामरिक दबाव बनाने और चीन की कुटिल चालों में भारत को घेरने के लिए पाकिस्तान ने सामरिक महत्व वाला ग्वादर बंदरगाह चीन की एक कंपनी को सौंप दिया है। गहरे समुद्र में स्थित और भारतीय सीमा से नजदीक होने के कारण बंदरगाह चीन की कंपनी को सौंपे जाने का समझौता भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। भारतीय सीमा से केवल 460 किमी दूर स्थित इस पोर्ट से भारत पर निगरानी रखी जाना बेहद आसान है और चीन यहां अपनी नौसेना तैनात कर सकता है।
 
पाकिस्तान जहां पश्चिमी छोर पर बलूचिस्तान से जूझ रहा है तो पूर्वी छोर पर पीओके में गिलगित-बाल्टिस्तान उसके लिए चुनौती बने हुए हैं। पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान में विरोध प्रदर्शन तेज हो गया है। यहां प्रदर्शनकारियों ने 'पाकिस्तान वापस जाओ' के नारे लगाने शुरू कर दिए हैं। बीते दिनों एक्टिविस्ट बाबा जॉन की रिहाई की मांग को लेकर विरोध की तस्वीरें दुनिया ने देखीं। बाबा जॉन को पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने 40 साल की सजा सुनाई है। साथ ही एंटी-टेररिस्ट लॉ के तहत पांच लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया है।
 
जनवरी 2010 में भूस्‍खलन होने के चलते पहाड़ का एक हिस्सा टूटकर हुंजा नदी में गिर गया। इससे गिलगित-बाल्टिस्तान के कई गांव बह गए थे और एक हजार से ज्यादा लोग बेघर हो गए थे। इसको लेकर बाबा जान की अगुआई में यहां के लोगों ने आंदोलन चलाया और पाकिस्तान से बेघर हुए लोगों के लिए मुआवजे की मांग की। इसको लेकर कई प्रदर्शन किए गए। इन लोगों ने हिंसक प्रदर्शन किए। इसके बाद अगस्त 2011 में पाकिस्तान ने एंटी-टेररिज्म एक्ट के तहत बाबा जान और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया।
 
जम्मू-कश्मीर के उत्तर में यह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और गिलगित-बलूचिस्तान का हिस्सा है। पश्चिम की ओर जाती जमीन की पट्टी में मीरपुर-मुजफ्फराबाद है। पीओके के बारे में बातचीत ज्यादातर मीरपुर-मुजफ्फराबाद के इर्द-गिर्द घूमती है। जबकि भारत ने हमेशा से ही गिलगित-बलूचिस्तान की स्वायत्तता को लेकर पाकिस्तान के रुख और उसके दिखावे का कड़ा विरोध किया है।
 
साठ के दशक में बने हाइवे से जुड़े पाक और गिलगिट-बलूचिस्तान क्षेत्र का सामरिक रूप से काफी महत्व है। चीन के साथ जुड़े होने के कारण यह भारत के लिए काफी अहम है। चीन ने 60 के दशक में गिलगित-बलूचिस्तान में होते हुए काराकोरम तक हाइवे बनाया था। इस हाइवे के कारण इस्लामाबाद और गिलगिट जुड़ गए थे। इससे आगे यह हाइवे चीन के जियांगजिंग प्रांत के काशगर शहर तक भी जाता है। चीन, जियांगजिंग को एक हाइवे द्वारा बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जोडऩे की योजना बना रहा है। चीन के राष्ट्रपति ने पाकिस्तान में विभिन्न योजनाओं के लिए 46 बिलियन डॉलर के निवेश का वादा किया है।
 
मोदी ने शिया बहुत गिलगित-बलूचिस्तान क्षेत्र में गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों का भी जिक्र किया। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने कहा कि गिलगिट-बलूचिस्तान सहित पूरा जम्मू-कश्मीर ही भारत का अभिन्न अंग है। गिलगित-बलूचिस्तान में भारत के समर्थन और पाक-विरोधी रैलियां हो रही हैं। मोदी चाहते हैं कि विदेश मंत्रालय विदेश में रहने वाले पीओके के परिवारों से संपर्क करे।
 
1947 में कश्मीर के महाराजा ने भारत और पाकिस्तान में शामिल ना होकर, आजाद ही रहने का फैसला किया था। उन्होंने सोचा कि उनकी मुस्लिम बहुल प्रजा भारत के साथ जुडऩे का विरोध करेगी। नेहरू ने गिलगित-बलूचिस्तान क्षेत्र से पाकिस्तानी फौजों को हटाने जाने पर जोर दिया। 31 अक्टूबर 1947 को जब पाकिस्तानी सेना ने कबाइलियों के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर पर हमला किया और यह बारामूला तक घुस आई, तो महाराजा हरिसिंह परेशान हो गए। उन्होंने भारत से मदद मांगी और भारत के साथ मिलने के समझौते पर दस्तखत कर दिए। भारत ने हवाई रास्ते ने वहां अपनी फौज भेजी।
 
पूर्व कश्मीर रियासत का हिस्सा है पीओके : भारत का कहना है कि पीओके कश्मीर रियासत का ही हिस्सा है। ऐसे में भारत उसे अपना अभिन्न अंग कहता है। जिस हिस्से को भारत पीओके कहता है, वह पूर्व कश्मीर रियासत का ही वह हिस्सा है जो कि 22 अक्टूबर 1947 से ही पाकिस्तान के कब्जे में है। पाकिस्तान समर्थित कबाइलियों द्वारा जम्मू-कश्मीर पर हमला किए जाने के बाद से ही उस पर पाक ने कब्जा जमाया हुआ है।
 
विवादित क्षेत्र है गिलगित-बलूचिस्तान : गिलगित-बलूचिस्तान का 72 हजार 500 स्क्वेयर किलोमीटर का क्षेत्र ज्यादातर पहाड़ी इलाका है। इसी हिस्से में विश्व की दूसरी सबसे ऊंची चोटी के-2 है। नंगा पर्वत भी इसी हिस्से में है। गिलगित-बलूचिस्तान को पाकिस्तान विवादित क्षेत्र कहता है। पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह दावा करता है कि वह इस क्षेत्र के लोगों की आजादी का समर्थन करता है, लेकिन असलियत यह है कि गिलगित-बलूचिस्तान पर पाकिस्तान ने कब्जा किया हुआ है। जीबी ऑर्डर 2009 के द्वारा मीरपुर-मुजफ्फराबाद की व्यवस्था की ही तरह यहां भी व्यवस्था कायम कर दी गई है। 
 
पाकिस्तान कश्मीर को लेकर भारत में दहशत फैलाता रहता है। आजादी के नाम पर कश्मीरियों के युवाओं को हिंसा के रास्ते पर लाना और बेकसूर लोगों की हत्या के लिए उकसाना पाकिस्तान की नीयत में शामिल है, लेकिन बलूचिस्तान से पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। आजादी के लिए आंदोलन कर रहे बलोच नेताओं ने पाकिस्तान के इस्लामाबाद और लाहौर जैसे शहरों पर सीधे हमले की धमकी दी है। बलूची आंदोलनकारियों ने कहा कि अब पाकिस्तान जंग का मैदान बनेगा।
 
बलूचिस्तान के लोगों ने अब पाकिस्तान को सीधी धमकी दी है कि अब वह आत्मरक्षा की बजाय आक्रमण की नीति पर चलेंगे तो बलोच सेना अब पाकिस्तान को घर में घुसकर मारेगी। बलोच आंदोलनकारियों की बड़ी नेता नायला बलूच ने कहा है कि अब तक बलोच पाकिस्तान पर सीधे हमला नहीं करते थे और हम पाकिस्तानी हमले से खुद को बचाते रहते थे, लेकिन अब बलोच लोग और ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते। बलोचस्तान में आंदोलन कर रहे नेता भारत से भी इस आंदोलन में समर्थन चाहते हैं। 
 
तीन संगठनों ने दी धमकी : बलूचिस्तान के लोगों का आरोप है कि पाकिस्तान की सेना ने उनकी जिंदगी नर्क से भी बदतर बना दी है। इस नर्क से निकलने के लिए अब उनका पाकिस्तान पर हमला करना जरूरी हो गया है। अब अपने आंदोलन को और तेज करने के लिए बलूच आंदोलनकारियों की उम्मीद तीन संगठनों पर टिकी है। बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट, बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी, बलूचिस्तान रिपब्लिकन आर्मी ने पाकिस्तान पर हमले की धमकी दी है। पाकिस्तान ने इन तीनों ही संगठनों पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। इन संगठनों ने पाकिस्तान को धमकी दी है कि अगर उन्होंने अब बलूचिस्तान के महत्वपूर्ण इलाके ग्वादर में अपना दखल बढ़ाया तो खैर नहीं होगी।
 
चीन निवेश कर लूटना चाहता है : इन संगठनों ने आरोप लगाया है कि ग्वादर में चीन जो भी निवेश कर रहा है उसका असली मकसद बलूचिस्तान को लूटना है। बलूचिस्तान के प्रतिबंधित संगठनों ने धमकी दी है कि चीन समेत दूसरे देश ग्वादर में अपना पैसा बर्बाद न करें। दूसरे देशों को बलूचिस्तान की प्राकृतिक संपदा को लूटने नहीं दिया जाएगा। इन संगठनों ने बलूचिस्तान में काम कर रहे चीनी इंजीनियरों पर भी हमले बढ़ा दिए हैं।
 
अगले पन्ने पर दूसरा बांग्लादेश बन जाएगा बलूचिस्तान....
 

बन जाएगा दूसरा बांग्लादेश? 
बलूचिस्तान के लोग और नेता लगातार आंदोलन को तेज कर रहे हैं। उनका दावा है कि जैसे 1971 में पाकिस्तान से कटकर बांग्लादेश बन गया था, उसी तरह एक दिन बलूचिस्तान भी बन जाएगा। बलूचिस्तान के लोग किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से अलग हो जाना चाहते हैं। लेकिन क्या यह संभव है? बांग्लादेश के मामले में भू-राजनीतिक स्थितियां भारत के अनुकूल थीं और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिका के चौथे बेड़े को बंगाल की खाड़ी में भेजने की धमकी देने के बावजूद मुक्तिवाहिनी (जिनमें ज्यादातर भारतीय सैनिक थे) ने बांग्लादेश को स्वतंत्र करा दिया था। 
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लेकिन बलूचिस्तान का दूसरा बांग्लादेश बन पाना इतना सरल नहीं है। बड़े पैमाने पर हिंसा, शोषण और फौजी कार्रवाइयों के बाद भी बलूचिस्तान का मुद्दा क्यों अंतरराष्ट्रीय मंच पर नहीं आ सका? इसका कारण है कि बांग्लादेश और बलूचिस्तान की भौगोलिक सामरिक स्थिति में बहुत अंतर है। पूर्वी पाकिस्तान में भी पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण करने से पहले कम से कम तीस लाख लोगों की हत्या की थी और इन कार्रवाइयों पर अमेरिका समेत बहुत से पश्चिमी देशों ने पर्दा डाल रखा था।
 
ठीक इसी तरह बलूचिस्तान के मामले पर जहां पाकिस्तान सत्तर साल तक संयुक्त राष्ट्र, ब्रिटेन, रूस, अमेरिका की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब रहा और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बलूचिस्तान के मामले पर अपने आंख, कान बंद कर लिए? इसके कारण हैं कि बलूचिस्तान काफी समय से अंतरराष्ट्रीय शक्तियों जैसे ब्रिटेन, रूस और अमेरिका के साथ-साथ अब चीन के हाथों का खिलौना बना रहा है। दूसरी ओर, पाकिस्तान और ईरान अपने सामरिक और आर्थिक हितों को देखते हुए एक दूसरे से सहयोग करने की इबारत गढ़ रहे हैं। इन परिस्थितियों में भारत की क्या भूमिका हो सकती है? क्या वह बलूचिस्तान में भी बांग्लादेश की तरह से सीधे हस्तक्षेप करने की हालत में है? बिल्कुल नहीं,  क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी हैं जोकि किसी भी तरह से भारतीय हस्तक्षेप की संभावनाओं को खारिज करती हैं। 
 
जहां तक पश्चिमी ताकतों का सवाल है तो उनके लिए बलोच लोगों की दुर्दशा एक कोलेटल डैमेज से ज्यादा नहीं है क्योंकि पाकिस्तान की 'आतंक के खिलाफ लड़ाई' चलती रहेगी भले ही यह लड़ाई बलोच लोगों के दमन के तौर पर ही क्यों न हो। इस्लामाबाद इस मामले में पश्चिमी देशों को यह समझाने में भी कामयाब हो सकता है कि अगर बलूचिस्तान को आजाद कर दिया गया तो इस क्षेत्र में मध्य पूर्व जैसा आतंक का दानव हावी हो सकता है। भारत ने बलूचिस्तान को नैतिक समर्थन को दे दिया है लेकिन इससे ज्यादा भारत कुछ नहीं कर सकता है। बलोच लोगों की आजादी का ईरान ही विरोध कर सकता है और इस मामले पर भारत को अफगानिस्तान का समर्थन भले ही हासिल हो जाए लेकिन अमेरिका, रूस जैसी ताकतों का सामरिक समर्थन मिलना संभव नहीं लगता।  
 
अब यह देखना बाकी है कि बलोच लोगों की लड़ाई का उपयोग भारत पाकिस्तान के कश्मीर राग को दबाने के लिए करता है या फिर इस मामले को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर जाता है? क्या इस मामले पर यह अफगानिस्तान और ईरान का समर्थन जुटा पाता है और बलूचिस्तान में नरसंहार और मानवाधिकार हनन के मामले को विश्व मंच पर ले जाता है ताकि भारत को अपनी कार्रवाई में अफगानिस्तान, ईरान और अमेरिका जैसे देशों का सहयोग मिल सके ?  इस स्थिति के बिना बलूचिस्तान के दूसरे बांग्लादेश बन जाने की संभावना एक खुश फहमी से ज्यादा कुछ नहीं होगी।
 
भारत उप-महाद्वीप में पाकिस्तान का प्रयोग करने के साथ-साथ अंग्रेजों ने जाते-जाते पाकिस्तान को भी बलूचिस्तान जैसी टेस्ट-ट्यूब स्टेट सौंप दी ताकि इसे भी प्रजातीय और धार्मिक आधारों पर बांटने में सुविधा हो। हालांकि बलूचिस्तान स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान के बनने से पहले ही एक स्वतंत्र देश रहा है जोकि आज भी स्वतंत्र रहना चाहते हैं और वे अपनी अलग सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान बनाए रखना चाहते हैं। एक चौथे कुर्द देश के तौर पर बलूचिस्तान का देश-राज्य का अस्तित्व 1410 से रहा है लेकिन पहले अंग्रेजों की तकड़मों और बाद में जिन्ना ने इसे ठीक उसी तरह पाकिस्तान में मिला लिया जैसेकि पाकिस्तान ने भारत के गिलगित, हुंजा, बाल्टिस्तान को अपना हिस्सा बना लिया।   
 
बलूचिस्तान के पूर्व गवर्नर गौस बख्श बिजेंजो ने बीबीसी के चैनल फोर पर कहा था कि '14 अगस्त को वाइसरॉय के ऑफिस से एक सूचना जारी की गई थी कि कलात के खान, ब्रिटिश सरकार के साथ एक संधि के तहत एक स्वतंत्र संप्रभु देश हैं। तब कलात के मुखिया यार खान ने अपने राज्य को भारत या पाकिस्तान में से किसी में भी मिलाने से इनकार कर दिया था। लेकिन मार्च 1948 में जिन्ना ने यार खान को कैद कर लिया और एक संधिपत्र पर जबरन हस्ताक्षर करवा लिए। तब उनके भाइयों, परिजनों ने पाकिस्तानी सेना का सामना किया लेकिन पाकिस्तान बलूचिस्तान पर जबरन कब्जा करने में सफल हो गया।'
 
पाकिस्तान ने बलोच लोगों की आबादी पर नेपाम और क्लस्टर बमों का भी इस्तेमाल किया है। बलोच लोगों की आवाज को पाकिस्तान ने अपनी ताकत और दुष्प्रचार के जरिए सत्तर साल तक दबाए रखा और कश्मीर के हिस्से को भी अपना बनाए रखा। इसलिए जरूरी है कि बलूचिस्तान के मुद्‍दे को भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पूरी ताकत से उठाए तभी वह पाक-चीन के विस्तारवादी गठजोड़ का सामना करने के बारे में सोच सकता है।

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