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देश फिर करेगा सूखे का सामना

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अनिल जैन

देश के कृषि क्षेत्र पर पहले से मंडरा रहे संकट के बादल अब और गहरा गए हैं। इसी वर्ष फरवरी-मार्च में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि की मार झेल चुके कृषि क्षेत्र को अब एक बार फिर सूखे के संकट से दो-चार होना है। मानसून का सीजन अब बीतने को है और भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही साबित होती दिख रही है। जिस अल नीनो प्रभाव की बात विदेशी वैज्ञानिक काफी पहले से कर रहे थे वह भी अब रंग दिखाने लगा है। 
इस साल मानसून का सीजन शुरू होने से ठीक पहले मौसम विभाग ने मानसून के कमजोर रहने का अंदेशा जताया था। उसने अनुमान जताया था कि इस वर्ष 88 फीसदी ही बारिश होगी। अगर बारिश का आंकड़ा 96 फीसदी से नीचे रहता है तो उसे सामान्य से कम माना जाता है। एक जून से अब तक देशभर में 640 मिलीमीटर बारिश हुई है जो सामान्य से 12 फीसदी कम है यानी सीजन के बचे हुए समय में भी बारिश मौसम विभाग के पूर्वानुमानों के मुताबिक रही तो इस साल मानसून की बारिश 88 फीसदी से भी कम दर्ज होगी। 
 
इस कमजोर मानसून का सीधा मतलब हुआ कि देश को 2009 के बाद सबसे बड़े सूखे का सामना करना है, लेकिन मामला इतने पर ही खत्म नहीं हो रहा है। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों की मानें तो प्रशांत महासागर का तापक्रम बढ़ने से उत्पन्न होने वाला अल नीनो का दैत्य अगले साल के मानसून भी असर डाल सकता है। ऐसी भयंकर आशंकाएं अगर सही साबित हुईं तो इसका असर न केवल किसानों पर बल्कि देश की विशाल आबादी को गहरे जख्मों से भरकर रख देगा। 
 
जून के महीने की शुरुआत में जब मौसम विभाग ने कमजोर मानसून का अंदेशा जताया था, उसी समय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी आसन्न सूखे के खतरे से महंगाई बढ़ने की आशंका जताई थी। मौसम विभाग और रिजर्व बैंक के गवर्नर की इन आशंकाओं के बरक्स उस वक्त वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि घबराने की बात नहीं है, क्योंकि मानसून संबंधी पूर्वानुमान गलत भी निकल सकता है। दरअसल, वित्तमंत्री को बाजार की चिंता सता रही थी और वे निवेशकों को आश्वस्त करना चाहते थे कि सब कुछ ठीकठाक रहेगा। लेकिन वित्तमंत्री यह भूल गए थे कि अब मौसम संबंधी पूर्वानुमान पहले से कहीं अधिक वैज्ञानिक विधि से निकाले जाते हैं और भारतीय मौसम विभाग ने भी अपनी आकलन पद्धति को बेहतर बनाया है।
 
तो मौसम विभाग ने जैसी चेतावनी दी थी, अब वैसी ही स्थिति सामने है। खुद केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि सामान्य से पंद्रह-सोलह फीसदी कम बारिश दर्ज हुई है और इसके चलते खरीफ की पैदावार में करीब दो फीसदी की कमी आएगी। जाहिर है, सबसे ज्यादा असर चावल, दलहन और मोटे अनाजों की पैदावार पर पड़ेगा। सबसे खराब हालत महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में है। उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में भी बारिश सामान्य से कम हुई है। इन क्षेत्रों के किसानों पर यह दोहरी मार है, क्योंकि बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के कारण उनकी रबी की फसल को पहले ही काफी नुकसान हो चुका है। अब कम बारिश का असर धान, कपास, गन्ना और सोयाबीन जैसी फसलों के उत्पादन पर पड़ सकता है। 
 
यह लगातार दूसरा साल है जब देश मानसून की कमी का दंश झेल रहा है। पिछले साल मानसून में बारह फीसदी की कमी दर्ज हुई थी। इस साल उससे कहीं ज्यादा चिंताजनक हालात है। यह सही है कि औद्योगिक उत्पादन, सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों का देश की अर्थव्यवस्था में खासा योगदान है, लेकिन इसमें 15 फीसदी का योगदान करने वाले कृषि क्षेत्र का महत्व इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि इस पर देश की दो-तिहाई आबादी निर्भर है। लिहाजा कृषि पर किसी भी तरह के संकट का असर चौतरफा होता है। यह अकारण नहीं था कि जिस दिन मौसम विभाग ने मानसून के कमजोर रहने का अनुमान जताया था, उसके थोड़ी ही देर बाद मुंबई शेयर बाजार भी बुरी तरह लड़खड़ा गया था और उसका सूचकांक 600 अंक तक गिर गया था। 
 
यकीनन लगातार दूसरे वर्ष कमजोर मानसून और सूखे का संकट किसानों के साथ-साथ उद्योग जगत और देश के आर्थिक प्रबंधकों का दिल दहला रहा है, क्योंकि रोजगार और उपभोक्ता मांग से कृषि क्षेत्र का परस्पर गहरा नाता है। इस बार कम बारिश से स्थिति इसलिए भी अधिक भयावह हो सकती है क्योंकि देश पिछले साल भी कम बारिश की मार झेल चुका है। रही-सही कसर कुछ महीनों पहले बेमौसम बरसात और ओलों की बौछार ने पूरी कर दी है। इसका दुष्परिणाम 2014-15 के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों में भी नजर आया है। 
 
पिछले वित्त वर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर सात फीसद से अधिक रही, पर कृषि क्षेत्र में कोई वृद्धि होना तो दूर उल्टे 2.3 फीसदी की कमी दर्ज की गई। ऐसे में साफ है कि कमतर बारिश किसानों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ सकती है। पिछले वर्ष भी कमजोर बारिश का असर खाद्यान्न उत्पादन पर देखा गया था। यदि मानसून ने अपना यही रंग इस वर्ष भी दिखाया, तो रिजर्व बैंक की उदारता के बावजूद महंगाई की मार तो पड़ेगी ही, इसके साथ ही उन योजनाओं पर भी पानी फिर सकता है, जिनके जरिए केंद्र सरकार निवेश जुटाना चाहती है।
 
यही वजह है कि बारिश में पंद्रह फीसदी की कमी ने सरकार के माथे पर भी चिंता की लकीर खींच दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही मनरेगा को यूपीए सरकार की नाकामी का स्मारक करार दे चुके हों, पर सूखाग्रस्त इलाकों में राहत के तौर पर सरकार को यही जरूरी जान पड़ा कि मनरेगा के तहत सौ दिन के बजाय डेढ़ सौ दिन काम मुहैया कराए जाए। यह अच्छी पहल है। मगर सूखे से जुड़ी चुनौतियां और भी हैं। कृषि पैदावार में आने वाली कमी के कारण खाद्य पदार्थों की कीमतें चढ़ सकती हैं। ग्रामीण भारत की आय में कमी आएगी, नतीजतन बाजार में मांग घटेगी और इसका असर विकास दर पर भी पड़ सकता है। इन सब नतीजों को एक अनिवार्य नियति की तरह देखा जाए या इनकी चुभन कम की जा सकती है?
 
हम ज्यादा या कम बारिश के लिए मानसून को दोषी ठहरा सकते हैं, पर इनसे पैदा होने वाली समस्याओं के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। यह प्राकृतिक कारण नहीं हैं बल्कि हमारी भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली का नतीजा है कि हम न तो सिंचाई के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाए और न ही फालतू बह जाने वाले वर्षा-जल के संग्रहण और प्रबंधन की कोई ठोस प्रणाली विकसित कर सके। भंडारण और आपूर्ति की बदइंतजामी के कारण हर साल बड़ी मात्रा में अनाज सड़ जाता है। फलों और सब्जियों की भी काफी बर्बादी होती है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि कृषि क्षेत्र पहले से संकट में है और कृषि पर निर्भर लोग, चाहे वे किसान हों या श्रमिक, गुजारे लायक आमदनी से वंचित रहते हैं। 
 
सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़ों से भी इसकी पुष्टि होती है। तीसरी प्रमुख बात यह है कि भूजल के अंधाधुंध दोहन के चलते देश के बहुत-से इलाके पहले से ही पानी की समस्या झेल रहे हैं। रही-सही कसर जल प्रदूषण और पानी के इस्तेमाल में होने वाली बर्बादी पूरी कर देती है। आजादी के बाद की हमारी समूची राजनीति इस बात के लिए गुनाहगार है कि जिस तरह उसने देश के सभी लोगों को स्वच्छ पानी पीने के अधिकार से वंचित रखा, वैसे ही फसलों के लिए भी पानी का पर्याप्त इंतजाम नहीं किया। उन्हें आवारा बादलों के रहमो-करम पर जीने-मरने के लिए छोड़ दिया गया। 
 
विश्व बैंक के एक आकलन के अनुसार भारत की कुल खेती के मात्र 35 प्रतिशत हिस्से को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है यानी लगभग दो-तिहाई खेती आसमान भरोसे है। जिस देश की लगभग दो तिहाई आबादी की जीविका खेती से जुड़ी हुई हो, उसकी एक अनिवार्य जरूरत यानी सिंचाई की इस उपेक्षा को आपराधिक षड्यंत्र के अलावा और क्या कहा जा सकता है? देश के अधिकांश क्षेत्रों में बिजली सरकारी सेक्टर में है, पर वह गांवों को इतनी बिजली नहीं दे सकता कि किसान दिन में अपने खेतों की सिंचाई कर रात को चैन की नींद सो सकें। 
 
गांवों में बिजली दिन में नहीं, रात में आती है और वह भी कुछ घंटों के लिए। क्या यह किसी शरीफ और जिम्मेदार व्यवस्था का लक्षण है कि अपना पैसा खर्च कर धरती से पानी निकालने के लिए किसानों को रात-रात भर जागना पड़े? देश की आजादी के सातवें दशक में भी देश के आधे से अधिक किसान मानसून की मेहरबानी पर जिंदा हैं, यह तथ्य अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि हमारा व्यवस्था तंत्र अभी शराफत और अपनी बुनियादी जिम्मेदारी से कोसों दूर है।

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