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गुरु उत्सव के समर्थन और विरोध की राजनीति

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, बुधवार, 3 सितम्बर 2014 (11:35 IST)
-उमेश चतुर्वेदी
क्या शिक्षक दिवस का गुरु उत्सव बनाना इतनी बड़ी गलती है कि इस पर सियासी विवाद खड़ा हो जाए। उत्तर की राजनीति का हमेशा विरोध करते रहे द्रविड़ नेता करुणानिधि का गुरुपर्व का विरोध तो समझ में आता है, लेकिन सबसे हैरत की बात यह है कि इसके विरोध में कांग्रेस के साथ ही तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी भी उतर आई हैं...साथ अखिलेश सरकार भी दे रही है।
 
इस विवाद पर पहले विचार करने से पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि आखिर यह मसला है क्या। देश के दूसरे राष्ट्रपति और महान शिक्षाविद् डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सम्मान में हर साल उनके जन्मदिन पांच सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। इसे स्कूलों में धूमधाम से मनाए जाने की परंपरा रही है। इसी शिक्षक दिवस को इस बार मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने गुरु उत्सव के तौर पर मनाने का फैसला लिया है। इसके तहत प्रधानमंत्री मोदी पांच सितंबर को दिल्ली के मानेकशॉ स्टेडियम में एक हजार चुनिंदा बच्चों को संबोधित करने वाले हैं।
 
इसी बातचीत और भाषण को देश के 18 लाख सरकारी और निजी स्कूलों में डीडी और शिक्षा चैनलों के जरिये प्रसारण करने की तैयारी है। यह कार्यक्रम शाम के तीन बजे होना है। विवाद इसे ही लेकर है। क्योंकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आदेशानुसार सभी स्कूलों ने अपने बच्चों का टाइम टेबल इसी मुताबिक तय किया है। वैसे महानगरीय इलाकों में तो स्कूल सुबह साढ़े सात-आठ से दोपहर डेढ़ से दो बजे तक चलते हैं। लिहाजा मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आदेश पर महानगरीय इलाकों के स्कूलों ने बच्चों के लिए पांच सितंबर को नया टाइम टेबल तय किया है। हालांकि ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में ऐसा करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि वहां आम तौर पर नौ से तीन या दस से चार की टाइमिंग ही होती है।
 
अव्वल तो विरोध इस बात पर होना चाहिए था कि क्या प्रधानमंत्री से मुखातिब होने का हक महानगरीय और शहरी विद्यालयों के छात्रों को ही होना चाहिए। क्योंकि शैक्षिक प्रसारणों की सहूलियत सिर्फ शहरी इलाकों तक ही संभव है। बड़ा सवाल यह है कि क्या ग्रामीण इलाकों के बोरा-चट्टी पर पढ़ने वाले बच्चों का हक नहीं है और क्या उनसे प्रधानमंत्री को मुखातिब नहीं होना चाहिए? लेकिन विवाद इस बात पर हो रहा है कि गुरु उत्सव मनाया ही क्यों जाए। ममता बनर्जी हों या कांग्रेस या फिर बाद में इस सुर में शामिल हुई अखिलेश यादव की सरकार हो, सबका मकसद यह नहीं है कि प्रधानमंत्री पर इसलिए सवाल उठाए जाएं कि वे आखिर ग्रामीण इलाकों की स्कूलों की बेहतरी की बजाय सिर्फ शहरी क्षेत्रों के स्कूलों के छात्रों पर ही ध्यान क्यों केंद्रित कर रहे हैं।
 
अव्वल तो उन्हें यह सवाल उठाना चाहिए कि देश में उचित और समावेशी विकास के लिए बराबरी वाली शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा क्यों नहीं दिया जा रहा और प्रधानमंत्री इसकी तरफ कब कदम उठाएंगे। लेकिन विवाद इसलिए हो रहा है कि शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री बच्चों से गुरु उत्सव के बहाने मुखातिब ही क्यों हों? ऐसे में स्मृति ईरानी का यह सवाल मौजूं हो जाता है कि क्या इस देश के प्रधानमंत्री को इतनी भी आजादी नहीं है कि वह देश के भविष्य से सीधे बात कर सके। 
 
दरअसल, करुणानिधि की पूरी राजनीति उत्तर भारत की राजनीति के विरोध पर टिकी है। हिंदी विरोध भी दरअसल उनके उत्तर भारतीय राजनीतिक रुख का विरोध है। करुणानिधि बेशक हिंदीभाषी या हिंदी बहुलतावाली पार्टियों के सहयोग से मलाई खाने के आदी रहे हैं, लेकिन स्थानीय राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उनकी कोशिश हमेशा उसी राजनीतिक कदमों का विरोध रहा है, जिनके साथ वे सत्ता की मलाई खाते रहे हैं। इसलिए उनके विरोध को तो उत्तर में खास तवज्जो नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन ममता बनर्जी, कांग्रेस और अखिलेश के गुरु उत्सव के विरोध में शामिल होने का कोई तार्किक आधार नजर नहीं आता, सिवा इसके कि उन्हें डर है कि 18 लाख स्कूलों के बच्चों से संवाद के जरिए नरेंद्र मोदी भावी नौजवानों के बीच में अपनी पहुंच और पकड़ बना सकते हैं।
 
उन्हें डर है कि 2019 के लिए उन्होंने (मोदी) अभी से ही तैयारिया शुरू कर दी हैं। सत्ता में रहते वक्त उन्हें ऐसी तैयारियां करने का हक है। आखिर लुभावनी योजनाओं के जरिए करुणानिधि, ममता बनर्जी, अखिलेश और कांग्रेस की सरकारें यही काम करती रही हैं, लेकिन इस विरोध में सबसे अनूठी पहल हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा की है। वे अपने राज्य के बच्चों से मोदी से पहले ही मुखातिब होंगे। साफ है कि अक्टूबर-नवंबर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए वे इस विवाद को अपने वोटरों को लुभाने का जरिया बनाने की कोशिश में हैं। 
 
भारतीय संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में शामिल है। लिहाजा शिक्षा के मसले पर केंद्र को दखल देने का हक भी है। विरोध बेशक लोकतंत्र की जरूरी सलाहियत है। लेकिन विरोध तार्किक होना चाहिए। लेकिन विरोध सिर्फ सियासी खेल के लिए हो रहा है। दुर्भाग्य की बात यह है कि देश के नौनिहालों को लेकर इस विरोध और समर्थन के बहाने राजनीति हो रही है। (लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं) 

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