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अत्यंत सार्थक थी प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा

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शरद सिंगी

प्रधानमंत्री की अभी तक की विदेश यात्राएं कूटनीतिक और आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ करने के लिए थीं  किन्तु पिछले सप्ताह की यात्रा सामरिक संबंधों को मज़बूत करने, देश की रक्षा व्यवस्था को शक्तिशाली बनाने एवं मेक इन इंडिया के अपने इरादे को अमली जामा पहनाने के लिए थी। 
 
यात्रा की पहले पड़ाव में फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमानों का सौदा हुआ। अभी तक हमारी वायु सेना की मारक क्षमता रुसी विमानों सुखोई, मिग 21 और मिग 29  पर आधारित है। फ्रांस का केवल मिराज विमान ही इस टोली में शामिल है।  
 
मिग विमान अब बूढ़े होने लगे हैं और उनकी निवृत्ति का समय निकट आने लगा है ऐसे में भारत को तुरंत आधुनिक विमानों की दरकार थी जो हमारी वायु सेना को फिर एक बार हवाई श्रेष्ठता दे। 
 
वायु सेना की इसी आपात स्थिति का ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री ने स्थिति को अपने हाथों में लेते हुए ताबड़तोड़ 36 राफेल विमानों को खरीदने का निर्णय लिया। ये विमान दो वर्षों के भीतर ही वायु सेना का हिस्सा बन जाएंगे। यह करार सरकार से सरकार के बीच में है अर्थात बीच में कोई भी दलाल नहीं है। अतः इस सौदे पर कोई ऊँगली भी नहीं उठाई जा सकती। 
 
प्रधानमंत्री की व्यग्रता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने महत्वपूर्ण अभियान 'मेक इन इंडिया' को भी  इस सौदे के बीच में नहीं  दिया अन्यथा आज कल अधिकांश सौदों में प्रोद्योगिकी हस्तांतरण की धारा अनिवार्य हो गई है।  
 
रणनीतिकारों के अनुसार चीन और पाकिस्तान से एक साथ निपटने के लिए भारत को कम से कम 44 लड़ाकू हवाई दस्ते चाहिए जबकि अभी उसके पास मात्र 34 हवाई दस्ते ही हैं। इन विमानों के शामिल होते ही भारत के पास हवाई दस्तों की जरुरी संख्या पूरी हो जाने की उम्मीद है। 
 
हवा से जमीन और हवा से हवा में मारक क्षमता रखने वाले राफेल विमान कई मामलों में अद्भुत सामर्थ्य वाले हैं। किसी भी गतिशील लक्ष्य पर निशाना साध सकते हैं तो आकाश से जमीन पर निशाना भी बड़ी परिशुद्धता से लगा सकते हैं। युद्ध पोतों पर निशाना साध सकते हैं साथ ही परमाणु प्रतिरोधक क्षमता भी रखते हैं। ये टोही विमान की तरह भी उपयोग में लिए जा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये विमान भारत की वायु सेना में नया जोश फूकेंगे।
 
अगला पड़ाव जर्मनी उनका 'मेक इन इंडिया' अभियान के लिए था और उन्होंने हनोवर औद्योगिक मेले का भरपूर लाभ लिया। उन्होंने इस अवसर पर जर्मनी की नामी कंपनियों को न्योता दिया भारत में निवेश करने का। निवेशकों की मांगों के अनुकूल वातावरण बनाने का वादा किया और जर्मनी के उद्योग जगत के प्रतिनिधियों की सलाह को सुना। भारत में जर्मनी और फ्रांस से निवेश कई मायनों में फायदेमंद रहेगा क्योंकि इन देशों से निवेश के साथ तकनीक भी आती है जो भारत के औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक है। 
 
अंतिम पड़ाव कनाडा था। 42 वर्षों बाद भारत के कोई प्रधानमंत्री द्विपक्षीय यात्रा पर गए थे। कनाडा में यूरेनियम के भंडार हैं। जाहिर है कनाडा से रिश्ते भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करेंगे। प्रधानमंत्री ने पहुँचते ही सबसे पहले यूरेनियम का सौदा पक्का किया। 3000  टन का यह सौदा अगले पांच वर्षों तक भारत के परमाणु बिजली घरों में लगने वाले कच्चे  माल के लिए पर्याप्त रहेगा।  
 
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी सुरक्षा सर्वोपरि होती है। उत्तर की विस्तारवादी ताकतें और पश्चिम की शैतानी हरकतों से सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए सेना में आत्मविश्वास होना चाहिए और आत्मविश्वास आने के लिए सेना आधुनिक उपकरणों से सज्जित होनी चाहिए। 
 
उसके बाद नंबर आता ऊर्जा की आपूर्ति का। यदि ऊर्जा के स्रोत पर्याप्त हों तो गरीबी, खाद्यान्य सुरक्षा, परिवहन, जल आदि की समस्याओं से निपटने में आसानी हो जाती है। विकास की अवधारणा बिना औद्योगीकरण के संभव नहीं और औद्योगीकरण बिना ऊर्जा के। 
 
इसी बात से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री की यह यात्रा जो सुरक्षा, ऊर्जा और औद्योगिक विकास पर केंद्रित थी कितनी महत्वपूर्ण थी। कोई भले कुछ भी कहें प्रधानमंत्री दुनिया में भारत की साख में वृद्धि करने तथा  विदेशी निवेशकों में एक जिज्ञासा पैदा करने में सफल रहे हैं। ऐसी हलचल याद नहीं पहले कभी किसी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में हुई हो। अब तो यह विश्वास हो चला है कि वे अपने इरादों में सफल होंगें।   

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